मौन पल पल सोचता है कोई उसको गुनगुनाये
रागिनी की आस पल भर सरगमों का साथ पाये
शब्द को आतुर अधर पर, मंद स्मित की एक रेखा
जब जुड़ी सुर से नहीं तो कौन उसकी ओर देखा
हाथ में पगडंडियों के मानचित्रों की घुटन में
खो चुका जो मानते थे भाग्य का है एक लेखा
पंथ के हर शैल की आशा कि पद रज में नहाये
और सरगम सोचती है, रागिनी के साथ गाये
प्रीत की अभिव्यक्तियों में शब्द की बेचारगी को
देख कर बढ़ती हुई हर भाव की आवारगी को
फिर दरकते कांच सा,पल चीख कर निस्तब्ध होता
और उकसाता, कि बोले छोड़ कर दीवानगी को
स्वप्न की चाहत को रह रह नैन में आकर समाये
और सरगम सोचती है कोई उसको गुनगुनाये
साधना में दॄष्टि की, वाणी अहम खोती रही है
नयन में विचलित तरंगें, भाष्य नव बोती रही हैं
चाह की चाहत निरंतर है बढ़ी पर चाहना भी
धुन्ध सी, झोंके हवा के पा विलय होती रही है
किन्तु फिर भी चाह सोचे, चाह के नूपुर बजाये
और सरगम की तमन्ना, पायलों में झनझनाये
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1 comment:
पूरा गीत बहुत खुबसूरत है...
"स्वप्न की चाहत को रह रह नैन में आकर समाये
और सरगम सोचती है कोई उसको गुनगुनाये"
चाहत का क्या बेहतरीन चित्रण..बधाई.
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