पॄष्ठ थे सामने मेरे कोरे पड़े
भाव कहते रहे कोई उनको गढ़े
क्रुद्ध मुझसे हुए व्याकरण के नियम
चाहते भी हुए, गीत लिख न सका
लेखनी शब्द की उंगलियां थाम कर
हाशिये के किनारे खड़ी रह गई
बून्द स्याही की घर से चली ही नहीं
अपनी देहलीज पर ही अड़ी रह गई
पत्र की अलगनी को पकड़ते हुए
झूले झूले नहीम अक्षरों ने जरा
और असफ़ल प्रयासों की थाली लिये
दिन दुबकता रहा, नित्य, सहमा दरा
शैल की ओट खिलते सुमन की व्यथा
पत्तियों पर गिरे ओस कण की कथा
धागों धागों पिरीं सामने थीम मेरे
बस मुझे ही सिरा कोई दिख न सका
तूलिका रंग लेकर चली साथ में
किन्तु पा न सकी कैनवस की गली
देता आवाज़ सावन को , अम्बर रहा
अनसुनी कर विमुख ही रहा वो छली
साध के इन्द्रधनुषी सपन धूप की
उंगलियों मे उलझ कर बन्धे रह गये
फ़ागुनी आस के बूटे, नीले हरे,
हैं अपरिचित यहाम पर सभी, कह गये
झाड़ियों से उगी जुगनुओं की चमक
मुट्ठियों से गगन की पिघलता धनक
थे अजन्ता के सपने लिये साथ में
चित्र धुन्धला भी लेकिन उभर न सका
शंख का नाद भागीरथी तीर से
गूँज कर बांसुरी को बुलाता रहा
कुंज वॄन्दावनी रास की आस में
पथ पे नजरें बिछा कसमसाता रहा
तार वीणा के सारंगियों से रहे
पूछते, रागिनी की कहां है दिशा
भैरवी के सुरों की प्रतीक्षित रही
अपने पहले प्रहर में खड़ी हो निशा
ताल पर गूँजती ढोलकी की धमक
नॄत्य करते हुए घुंघरुओं की खनक
काई सी सरगमों पर फ़िसलते रहे
स्वर अधूरा रहा, राग बज न सका
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6 comments:
क्रुद्ध मुझसे हुए व्याकरण के नियम
---अगर क्रुद्ध होने पर इतने सही उदगार निकलते हैं ,तब तो मैं भी प्रार्थना करता हूँ कि हमसे भी यह नियम क्रुद्ध हो जायें. :)
ऐसे संपूर्ण गीत के लिये कोई भी टिप्पणी अधूरी ही रहेगी, कुछ इस तरह;
थिरक अधर की नहीं बताती,
भाव ह्रदय का हर इक प्रमुदित
मैं कहने की कोशीष करता रहा...
और गीत न जाने कब रच गया.....
पर मूक मेरे भावों को....
किसी रूप में न ढल सका...
आपके शब्द इतने उपयुक्त होते हैं....काश आपसे हिन्दी सीख पाती....व्याकरण सहित !
राकेश जी जैसा समीर जी ने कहा कुछ उसी तरह के विचार मेरे मन में भी चल रहे थे।
सब कुछ अधूरा-अधूरा रहा शब्द भी दूर-दूर रहे फिर भी न जाने कैसे आप क्या-क्या कह गये बहुत ही अर्थपूर्ण है सारी ही पंक्तियाँ। साधुवाद।
समीर जी के सुर में,
हे ईशवर,
व्याकरण के नियम मुझसे भी क्रुद्ध हो जायें।
समीरजी, अनुरागजी,उन्मुक्त जी तथा भावनाजी:-
अच्छा लगा यह जान कर कि मेरा प्रयास आपको पसन्द आया.
बेजी:-
मुझे सच में ही व्याकरण का ज्ञान नहीं है
काव्या का व्याकरण मैने जाना नहीं
शब्द कागज़ पे खुद ही उतरते गये
भावनाओं की गंगा उमड़ती रही
छंद के शिल्प खुद ही संवरते रहे
और सर पर मेरे हाथ रख, शारदा
राग को छेड़ती, गीत रचती रही
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