बात इक रात की

थी धुंधलके मे रजनी नहाये हुए
चांदनी चांद से गिर के मुरझाई सी
आंख मलती हुई तारकों की किरण
ले रही टूटती एक अँगड़ाई सी

कक्ष का बुझ रहा दीप लिखता रहा
सांझ से जो शुरू थी कहानी हुई
लड़खड़ाते कदम से चले जा रही
लटकी दीवार पर की घड़ी की सुई
फ़र्श पर थी बिछी फूल की पाँखुरी
एड़ियों के तले बोझ से पिस रही
टूटती सांस की डोरियां थाम कर
खुश्बुओं से हवाओं का तन रंग रही

और खिड़की के पल्ले को थामे खड़ी
एक प्रतिमा किसी अस्त जुन्हाई की

शून्य जैसे टपकता हुआ मौन से
्होके निस्तब्ध था हाथ बाँधे खड़ा
गुनगुनता रहा एक चंचल निमिष
जो समय शिल्प ने था बरस भर गढ़ा
बिन्दु पर आ टिका सॄष्टि के, यष्टि के
पूर्ण अस्तित्व को था विदेही किये
देहरी पर प्रतीक्षा लिये ऊँघते
स्वप्न आँखों ने जो भी थे निष्कॄत किये

गंध पीती हुई मोतिये की कली
बज रही थी किसी एक शहनाई सी

डूबते राग में ऊबते चाँद को
क्या धरा क्या गगन सब नकारे हुए
एक अलसाई बासी थकन सेज पर
पांव थी बैठ, अपने पसारे हुए
रिक्तता जलकलश की रही पूछती
तॄप्ति का कोई सन्देश दे दे अधर
ताकता था दिया क्या हो अंतिम चरण
जो कहानी लिखी थी गई रात भर

भोर की इक किरन नीम की डाल पर
आके बैठी रही सिमटी सकुचाई सी

2 comments:

Anonymous said...

बड़ी गलत बात है जी, पहले तो कविता का 'टाइटल' दिखा कर बुला लिया और फिर कहानी भी पूरी नहीं सुनाई। :)

Udan Tashtari said...

भोर की इक किरन नीम की डाल पर
आके बैठी रही सिमटी सकुचाई सी

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बस लिखते रहे बैठकर रात भर
वो चली भी गई तनिक गुस्साई सी.

(वो का तात्पर्य रात से है).... :)

पंडित जी सही कह रहे हैं, हम खुद उसी चक्कर में भागते हुये आये कि यह मान्यवर गीत सम्राट को क्या हुआ..कोई नाजुक कहानी सुनाई जा रही है...मगर बस, अब वापस जाते हैं. :)

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