जीवन के इस संधि पत्र

जीवन के इस संधि पत्र पर,सांसों ने धड़कन से मिलकर
जो हस्ताक्षर किये हुए थे, वे धुंधले हो गये अचानक

नयनों की चौकी पर खींची गईं विराम की रेखायें थीं
समझौता था नहीं अतिक्रमण अश्रु-सैनिकों का अब होगा
मन की सीमाओं पर यादें कभी नहीं घुसपैठ करेंगीं
गुप्तचरी से कोई सपना आंखों में दाखिल न होगा

किन्तु न जाने किस ने करके उल्लंघन तोड़ी हैं शर्तें
नये ढंग से लिखा जा रहा इस विराम का आज कथानक

शान्ति-वार्ता के सारे ही आमंत्रण रह गये निरुत्तर
" पता नहीं मालूम" लिये है लौटा पत्र निमंत्रण वाला
किये फोन तो पता चला है नम्बर यह विच्छेद हो गया
रिश्तेदारों के दरवाजे पर लटका था भारी ताला

किसको भेजें इक विरोध का पत्र यही असमंजस भारी
सन्धि पत्र की धाराओं का जिसने लिखा हुआ है मानक

सौगन्धों की रक्षा परिषद ने सारे सम्बन्ध नकारे
शीत युद्ध में लीन मिले सब, सूखे फूल किताबों वाले
इतिहासों की गाथाओं ने चक्रव्यूह ही रचे निरन्तर
हुए समन्वय वाले सारे स्वर बिल्कुल आड़े-चौताले

उत्तरीय फिर से अनुबन्धन का कोई आ लहरा जाये
दीप्तिमान करता आशा को संध्या भोर निशा यह स्थानक

आठों याम अड़ी रहती है मन की कोई भावना हठ पर
और नियंत्रण बिन्दु कहां हो ? नहीं चेतना सहमति देती
सुधियाम तो बहाव की उंगली पकड़े चाह रही हैं चलना
पर यथार्थ की चली हवायें नौका को उल्टा ही खेतीं

पाठ शाम्ति के पढ़ा सके जो आज पुन: जीवन में आकर
आस बालती दीपक आये पार्थसारथि, गौतम, नानक

6 comments:

Udan Tashtari said...

क्या कहूँ-एकदम बेजोड़. आपकी रचनाओं पर कुछ कहना अब शब्द क्षमता के बाहर होता जा रहा है, कुछ सुझाब आप ही दें वरना इस्माली लगा कर भाग जायेंगे शर्माते हुए. :)

रंजू भाटिया said...

नयनों की चौकी पर खींची गईं विराम की रेखायें थीं
समझौता था नहीं अतिक्रमण अश्रु-सैनिकों का अब होगा
मन की सीमाओं पर यादें कभी नहीं घुसपैठ करेंगीं
गुप्तचरी से कोई सपना आंखों में दाखिल न होगा

बहुत ही बेहतरीन भाव और शब्द हैं इस रचना के ..बेहतरीन रचना लिखी है आपने राकेश जी

नीरज गोस्वामी said...

राकेश जी
एक के बाद एक जिस धारा प्रवाह से आप रचनाये रचते हैं वो शोध का विषय है. शब्द कोष जो आप के पास है वो ही सब के पास होता है लेकिन आप उस में से न जाने कहाँ से नए शब्द खोज कर उन्हें इस तरह से सजाते हैं की लगता है वो शब्द नितांत आप के हैं किसी कोष के नहीं. हर बार आप की रचना पढ़ कर नतमस्तक हो जाता हूँ. क्या कहूँ "समीर जी" शब्दों में अब कुछ कहने को रहा ही क्या है?
नीरज

rakhshanda said...

नयनों की चौकी पर खींची गईं विराम की रेखायें थीं
समझौता था नहीं अतिक्रमण अश्रु-सैनिकों का अब होगा
मन की सीमाओं पर यादें कभी नहीं घुसपैठ करेंगीं
गुप्तचरी से कोई सपना आंखों में दाखिल न होगा

किन्तु न जाने किस ने करके उल्लंघन तोड़ी हैं शर्तें
नये ढंग से लिखा जा रहा इस विराम का आज कथानक

बहुत सुंदर और सशक्त कविता,थैंक्स इतनी अच्छी कविता पढने का अवसर देने के लिए.

राजीव रंजन प्रसाद said...

जीवन के इस संधि पत्र पर,सांसों ने धड़कन से मिलकर
जो हस्ताक्षर किये हुए थे, वे धुंधले हो गये अचानक

आपके गीतों में डूब कर रह जाता हूँ..

***राजीव रंजन प्रसाद

Mohinder56 said...

राकेश जी,

अद्धभुत रचनाओं की कडी में एक और रचना.

सचमुच जीवन समझोतों का पुलिन्दा है जिसे ढोना ही पडता है..चाहे इसे आधी जीत समझ लो चाहे आधी हार... और हर समझोते की तह में क्या है..कौन जान सका है

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