हर दिशा तीर संधान करके खड़ी
बढ़ रही है हवा तेग ले हाथ में
बादलों से बरसती हुई बरछियां,
मैं अकेला, महा ज़िन्दगी का समर
कोशिशें सिन्धु तट के घरोंदे बनी
और उपलब्धियां स्वप्न मरुपंथ के
कल्पना से भरे गल्प निकले सभी
सत्य जिनको बताते रहे ग्रंथ थे
रात आई तो डेरा जमाये रही
मानचित्रों ने सूरज को पथ न दिया
जन्म से हिचकियां ले बिलखता रहा
जो था जन्मा, अंधेरे से लड़ने, दिया
एक जुगनू मुझे धैर्य देता रहा
और लंबा नहीं है अधिक ये सफ़र
लड़खड़ाते हुए पांव अक्षम हुए
और ज्यादा तनिक बोझ ढो पायें वो
डगमगाती नजर लौट थकते हुए
कह रही नीड़ का आसरा जल्द हो
चुक गईं बूंद संकल्प के नीर की
सूखे पत्ते से निर्णय हिले जा रहे
सामने कोई शायद विवर श्याम है
लौट कर स्वर तलक भी नहीं आ रहे
शून्य खोले हुए मूँह खड़ा सामने
है उधर भीत इक और खाई इधर
बीज बोते रहे कंठ में स्वर उगे
किन्तु हर बार उगती रही प्यास ही
और अनबूझ सी उलझनों से भरी
एक कलसी निराशाओं की साथ थी
खंज़रों पे टिकी वक्त की चौघड़ी
सांस रोके हुए स्तब्ध बैठी रही
और हत हो गई आस की धज्जियाँ
एक ही दायरे में बिखरती रही.
राह होकर समर्पित खड़ी राह में
युद्ध के अंत का पर बजे न बजर/
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2 comments:
बीज बोते रहे कंठ में स्वर उगे
किन्तु हर बार उगती रही प्यास ही
और अनबूझ सी उलझनों से भरी
एक कलसी निराशाओं की साथ थी
एसी अनमोल पंक्तियों में डूबने के बाद आशावादिता की इन अनमोल पंक्तियों नें हरा कर दिया:
राह होकर समर्पित खड़ी राह में
युद्ध के अंत का पर बजे न बजर।
***राजीव रंजन प्रसाद
अति सुन्दर एवं अद्भुत रचना.
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