पढ़ कर सुनाये गुनगुनाते

पृष्ठ पर किसने हवा के याद के कुछ गीत लिख कर
पांखुरी से कह दिया पढ़ कर सुनाये गुनगुनाते
 
जलतरंगों से सिहरती धार की अवलोड़ना में
हो रही तट की प्रकम्पित सुप्त सी अवचेतना में
झाड़ियों पर टँक रही कंदील में जुगनू जलाकर
सांझ को ओढ़े प्रतीची के अधर पर स्मित जगा कर
 
कौन है जिसने उड़ाकर बादलों की चादरों को
बून्द को सन्देश भेजा द्वार पर अपने बुलाते
 
दोपहर में ओक-मेपल के तले इक लम्ब खींचे
कौन पल भर के लिये आकर रुका है आँख मींचे
फ़ेंकता है कौन पासे धूप से बाजी लगाकर
रंग भरता है धुंधलके में अजाने कसमसाकर
 
डालता है कौन मन की झील में फ़िर कोई कंकर
तोड़ता है इन्द्रजाली स्तंभनों को हड़बड़ाते
 
एक पल लगता उसे शायद सभी पहचानते हैं
और है मनमीत यह भी बात सब ही जानते हैं
किन्तु दूजे पल बिखरते राई के दानों सरीखा
छूट जाता हाथ से पहचान पाने का तरीका
 
प्रश्न यह अनबूझ कब से सामने लटका खड़ा है
और हल कर पायें रहतीं कोशिशें बस छटपटाते

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन की कसमसाहट का स्पष्ट चित्रण।

Shardula said...

"कौन है जिसने उड़ाकर बादलों की चादरों को
बून्द को सन्देश भेजा द्वार पर अपने बुलाते

दोपहर में ओक-मेपल के तले इक लम्ब खींचे
कौन पल भर के लिये आकर रुका है आँख मींचे
फ़ेंकता है कौन पासे धूप से बाजी लगाकर
रंग भरता है धुंधलके में अजाने कसमसाकर

डालता है कौन मन की झील में फ़िर कोई कंकर
तोड़ता है इन्द्रजाली स्तंभनों को हड़बड़ाते"
--- ये बंद दीख रहा है एक अनुपम चित्र की तरह! इतनी सुन्दर कविता है कि कुछ कहना नहीं चाहती है कलम!
एक और बात..'राई' न जाने क्यों गौतम बुद्ध की कहानी तक ले जाती है मन को!
सादर...

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