एक मोड़ पर जाने कब से

कितने दिन हो गये भाव ने थामी नहीं शब्द की उंगली
कितने दिन हो गये भावना, मन से बाहर आ न मचली
कितने दिन हो गये कल्पना के पाखी ने नीड़ न छोड़ा
कितने दिन हो गये समय की कात न पाई धागे तकली
 
वैसे तो सब कुछ परिवर्तित होता रहा निरन्तर गति से
केवल मेरा अनुभव अटका एक मोड़ पर जाने कब से
 
संदेशों के उजियारे फ़ाहे आ कर बिखरे अम्बर पर
मसि को कर के परस घटायें बन कर आये नहीं संवर कर 
मेघदूत की वंशावलियां लगा कहीं अवरुद्ध हो गईं
कोई चिह्न नहीं दिखता है बिछे पत्र पर कहीं उभर कर
 
शब्दों की लड़ियाँ तो बुनती रही नीर की ढलती बूँदें
एक धार में बँध कर लेकिन ढुलकी नहीं व्याकरण घट से
 
बोला कहीं पपीहा कोई मोर पुकारा कहीं विजन में
कोई भी आकार न उभरा बिछे हुये जा पंथ-नयन में
रही खोलती बन्द क्षितिज की खिड़की दृष्टि अधीरा पगली
सूनापन देता आहुतियाँ रहा ह्रदय की जली अगन में
 
सूखी जमना, तट की रेती सोख रही है एक एक कर
जितने भी थे राग सिक्त हो उठते आये वंशीवट से
 
बांधे हुए न जाने कैसे कुछ अनदेखे अनचीन्हे पल
आकुलता को दे जाते हैं इक क्षणांश का कोई संबल
पल की करवट फिर भर देती अन्तहीन लाचारी मन में
ढली सांझ सा लगने लगता दोपहरी का मौसम उज्ज्वल
 
रीत चुके कोषों का सूनापन यादों के गलियारे में
आ जाता है कजरी चूनर के लहराते ही झटपट से
 

1 comment:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
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