अपने अपने शून्य

जीवन की लम्बी राहों पर अपने अपने शून्य संभाले 
चलता है हर एक पथिक संग लेकर खींचे हुए दायरे 

अन्तर में है शून्य कभी तो कभी शून्य सम्मुख आ जाता
और कभी तो अथक परिश्रम, केवल शून्य अन्त में देता
आदि जहां  से हुआ अन्त भी सम्भाहित हो रहा शून्य पर
बाकी गुणा जोड़ सब कुछ  बस रहा शून्य का जोखा लेखा

यद्यपि अधोचेतनाओं में दृश्य हुआ पर रहा अगोचर
सत्य आवरण की छाया में बन कर रहता यज्ञ दाह रे

वर्तमान जब ढले शून्य में, पलक पारदर्शी खुलती हैं
 दृश्य सामने आ जाते हैं लम्बे घने उजालों वाले 
चांदी के प्यालों से छलके तब अबीर बन सपने कोमल
फिर अतीत के स्वर्णकलश से भरते हैं सुधियों के प्याले 

लेकिन ऐसा शून्य गहरता अक्सर गया नकारा ही तो 
जो ले शून्य किनारे बैठे, लगा सके हैं कहाँ थाह रे 

जीवन के इस अंकगणित में क्या परिचित है और  अपरिचित 
एक शून्य के खिंचे  वृत्त की परिधि पर सब कुछ है अंकित
अर्धव्यास पर रहते रहते कौन व्यास में ढल जाता है 
कौन हथेली की रेखा से गिरता, कौन रहा हो संचित 

समीकरण के चिह्न कहीं भी लगे  शून्य तो रहा शून्य ही 
बनती रही शून्य ही केवल हृदयांचल से उठी चाह रे  

1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा....दायरे की तलाश!!

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