कुछ आड़ी तिरछी रेखायें

जीवन के कोरे पृष्ठों पर
लिये हाथ में एक पेंसिल
रोजाना खींचा करते हैं
हम सम्बन्धों की रेखायें
कोई आड़ी,कोई तिरछी,
कोई वर्तुल,कोई तिर्यक
कुह लगती हैं निकट,और
कुछ दृष्टि परस भी कर न पायें
 
जाने किस उंगली की थिरकन
खींचेगी रेखायें कैसी
कौन रंग भरता जायेगा
कुछ होंगी खींचे बिन जैसी
कौन उतर जायेगी मन के
कागज़ पर आकर के गहरे
किसकी परिणति होगी केवल
प्रथम बिन्दु पर ही जा ठहरे
 
करता कोई और नियंत्रित
अनदेखे अनजाने इनको
अक्सर यह सोचा करते हैं
कभी पार उसकी पा जायें
 
धुंधलाई सी दिखीं कभी कुछ
कुछ दिखतीं  दर्पण सी उजली
कुछ को घेरे हुए कुहासे
कुछ कौंधी बन बन कर बिजली
कुछ सहसा मिल गईं हथेली
की रेखाओं से अनचाहे
और कई की रही अपेक्षा
हर पल कोई उन्हें सराहे
 
त्रिभुज चतुर्भुज के कोणों से
जुड़ीं, उलझती ज्यामितियों में
लगता है हर बार नया इक
समीकरण ये रचती जायें
 
बान्धे हुए लगा रखती हैं
बनी डोर यह उजियारे की
करती सदा नियंत्रित गतियाँ
सूरज चन्दा की तारों की
उगी   भोर से ढली सांझ तक
जकड़े हुए पलों की गठरी
कभी लगे ये द्रुतगतिमय हैं
कभी कहीं  पर रुक कर ठहरी
 
जब भी हुई अपेक्षा विधु की
बनें विभायें कुछ रेखायें
तब तब अम्बर के कागज़ पर
खिंच  जाती बन कर शम्पायें

1 comment:

Udan Tashtari said...

Vaah Bahut umda!!

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