अब शब्द में अमरत्व देदें


गीत ये कहने लगा है आज कुछ ऐसा लिखें हम
लीक से हट कर ज़रा तो गीत को नव अर्थ दे दें

आज लिख दें दीप  के मन की व्यथा  जो प्राण देकर
दूर कर पाया नहीं था तम बसा उसकी तली  में
और पीड़ा फूल की जो देव के सर तो चढ़ा पर 
गंध का छिड़काव कर पाया नहीं अपनी गली में

कर रही हैं वर्तिकाएँ नित्य ही   बलिदान प्रतिपल
क्यों नहीं उनको पिरो अब शब्द में अमरत्व देदें 

प्रवृत्ति हम आसुरी  पर रह गए उंगली उठाये 
किंतु प्रेरित हो नहीं पाये करें हम नाश उनका 
आज लिख कर चेतना जो सो गई झकझोर दें हम
और परिवतन  बुलाएं  सही मानों में खुशी का 

तीर की हिचकोलियों में जो उलझ कर रह गई है 
आज हम उस नाव को मंझधार का अपनत्व दे   दें 

लिख रहे हैं जो समय के पृष्ठ पर विध्वंस के स्वर
कृष्ण बन संहार कर दें तोड़ कर अपनी प्रतिज्ञा
इक महाभारत सुनिश्चित वक्त की अंगड़ाइयां में
पूर्ण कर दें पार्थ बन कर द्रोण की पूरी अपेक्षा

कर चुकी श्रृंगार कितना  लेखनी कहने लगी है
अब शिराओं के रूधिर को युद्ध का कटु सत्य  दे दे

1 comment:

Udan Tashtari said...

गीत ये कहने लगा है आज कुछ ऐसा लिखें हम
लीक से हट कर ज़रा तो गीत को नव अर्थ दे दें

----आप तो नित ही ऐसा रचते हैं..

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