व्रत रक्खे एकादशियों के

एक पुरानी परिपाटी का अन्ध अनुसरण करते करते
कितनी बार पूर्णिमा पूजीं, व्रत रक्खे एकादशियों के

था  यह ज्ञात मान्यताओं को, ये हैं गहरी सघन गुफ़ायें
जहां ज्ञान का और विवेक का कोई दीप नहीं जल पाता 
फ़िसल चुके हैं जो सरगम की अलगनियों पर से टूटे सुर
मन का तानसेन उनको ही चुन, दीपक-मल्हार सुनाता

बरगद के मन्नत  धागों से ले पीपल के स्वस्ति चिह्न तक
दो ही द्वार चुने थे हमने, जीवन की लम्बी गलियों के

पथ की ठोकर समझा समझा, हार गई आखिर बेचारी
काली कमली पर चढ़ पाना रंग दूसरा नामुमकिन था
रही मानसिकता सूदों के चक्रवृद्धि व्यूहों में उलझी
याद रखा ये नहीं सांस को मिला मूल में कितना ऋण था

अंकगणित से बीजगणित तक खिंची हुई उलझी रेखा में
रहे ढूँढ़ते समीकरण हम नक्षत्रों की ज्यामितियों के

था स्वीकारा धुंधली होती हैं दर्पण में हर परछाईं
और असंभव गिरे झील में चंदा को मुट्ठी में बाँधें
फिर भी आस लगाई हमने नदिया से चुन शैलखंड से
किन्ही अदेशी आकृतियों से रखी बाँध अतृप्ता साधें

रहा असंभव सने पंक में पगचिह्नों के दाग छूटना
ज्यों की त्यों कब रख पायेंगे चादर ओढ़ी यह, पटियों पे

2 comments:

Udan Tashtari said...

सत्य वचन!! बेहतरीन!!

जसवंत लोधी said...

अंधविश्वास के सागर मे क्यों डूवा रे इंसान ।
Seetamni. blogspot. in

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