रही कोशिशें असफल।, बदले ना विधना का लेखा
नईै सुबह परिवर्तन अपने संभव है कल
लेकर आये
आस सजी थी संध्या से ही
छाई हुई तिमिर की बदली छँट जायेगी
उगती हुई
छाई हुई तिमिर की बदली छँट जायेगी
उगती हुई
धूप की थिरकन छूते से ही
मगर भोर पर इतिहासों ने खींची लक्ष्मण रेखा
परिणति कब बदली है तपती हुई जेठिया
दोपहरी में
संचित रखे तुहिन कणो की
सदियों से दोहराती जाती रही व्यवस्था
कब संभव है
सदियों से दोहराती जाती रही व्यवस्था
कब संभव है
रहे पाहुनी चार घडी ही
इसी सत्य ने फिर से खुद को आईने में देखा
रहे उगाते अंगनाई के टूटे हुए कुम्भ गमलों में
ताजमहल नित
सुबह शाम सपनो के
रहे ढूंढते घिर कर रहते हुए कुहासों की छाया में
इंद्रधनुष बन जाए
रहे ढूंढते घिर कर रहते हुए कुहासों की छाया में
इंद्रधनुष बन जाए
जिनमें रंग रहे अपनों के
टूटे बिम्बो में निकालते रहे मीन और मेखा
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