रूप की धूप

शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा
चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा
फागुनी फाग,सावन की मल्हार मिल कार्तिकी पूर्णिमा को लगा कर गले
आपके रूप की धूप में चाँदनी का नया ही कोई चित्र बनने लगा

प्रतीक्षा

कल्पना जिसकी चित्रित करे तूलिका, छैनियां शिल्पियों की जो सपना गढ़े
शब्द होकर मगन रात दिन हर घड़ी, एक जिसके लिये ही कसीदे पढ़े
रागिनी कंठ की वाणियों में घुली, जिसके गीतों को आवाज़ देती रही
बस उसी की प्रतीक्षा में आतुर नयन, राह को मोड़ पर थाम कर हैं खड़े

इक गीत लिखूँ

बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ

भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी

जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में

बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये

चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

याद की प्रतीक्षा

धुंध में डूबी हुई एकाकियत बोझिल हुई है
मैं किसी की याद की पल पल प्रतीक्षा कर रहा हूँ

मानसी गहराईयों में अनगिनत हैं जाल डाले
चेतना, अवचेतना के सिन्धु भी मैने खंगाले
आईने पर जो जमी उस गर्द को कण कण बुहारा
सब हटाये गर्भ-ग्रह में जम गये थे जो भी जाले

तीर पर भागीरथी के, आंजुरि में नीर भर कर
जो उठाईं थीं शपथ, उनकी समीक्षा कर रहा हूँ

खोल कर बैठा पुरानी चित्र की अपनी पिटारी
हाथ में थामे हुए हूँ मैं हरी वह इक सुपारी
तोड़ने सौगंध का बाँधा हुआ हर सिलसिला जो
पीठ के पीछे उठा कर हाथ थी तुमने उछारी

कोई भी सन्मुख नहीं है पात्र, फिर भी रोज ही मैं
कल्पना की गोद में कोई सुदीक्षा भर रहा हूँ

एक चितकबरा है, दूजा इन्द्रधनु के रंग वाला
जिन परों को डायरी में है रखा मैने संभाला
हैं उन्हें ये आस कोई उंगलियों का स्पर्श दे दे
तो है संभव देख पायें फिर किसी दिन का उजाला

उत्तरों की माल .मुझको प्रश्न से पहले मिली है
फिर न जाने किसलिये देते परीक्षा डर रहा हूँ

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...