हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा
मान्यता दी बिठा बरगदों के तले
भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे
घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले
धूप अगरू की खुशबू बिखेरा किये
और गाते रहे मंगला आरती
हाथ के शंख से जल चढ़ाते रहे
घंटियां साथ में लेके झंकारती
भाग्य की रेख बदली नहीं आज तक
कोशिशें सारी लगता विफल हो गईं
आस भरती गगन पर उड़ानें रही
अपने आधार से कट विलग हो गई
शास्त्रों में लिखे मंत्र पढ़ते हुए
आहुति यज्ञ में हम चढ़ाते रहे
देवताओं को उनका हविष मिल सके
नाम ले ले के उनको बुलाते रहे
अपने पितरों का आशीष सर पर रखे
दीप दोनों में रख कर बहाया किये
घाट काशी के करबद्ध होकर खड़े
अपने माथे पे चन्दन लगाया किये
आँजुरि में रखे फूल मुरझाये पर,
पांखुरी पांखुरी हो तितर रह गई
हमने उपवास एकादशी को रखे
पूर्णिमा को किये पाठ नारायणी
है पढ़ी भागवत, गाते गीता रहे
हो गये डूब मानस में रामायणी
वेद,श्रुतियां, ॠचा, उपनिषद में उलझ
अर्थ पाने को हम छटपटाते रहे
धुंध के किन्तु बादल न पल भर छंटे
हर दिशा से उमड़ घिरते आते रहे
होती खंडित, रही आस्था पूछती
कुछ पता? ज़िन्दगी यह किधर बह गई
राकेश खंडेलवाल
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा फागुनी ...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
5 comments:
अति सुन्दर ! अति सुन्दर !
राकेश जी,
यह रचना पढ़ने के बाद यही कह सकता हूँ कि यदि कोई मुझसे पूछे कि सर्वश्रेष्ठ गीतकार कौन है, तो मैं बिना झिझक के कह सकता हूं कि पहले मुझे बच्चनजी और नीरजजी के बीच चुनना पड़ता था और अब राकेशजी, बच्चनजी तथा नीरजजी में चुनना पड़ेगा। तथा यह भी कहना पड़ेगा कि राकेश जी का शब्द चयन तथा प्रस्तुतीकरण अनेक अवसरों पर दोनों दिग्गजों से अधिक श्रेष्ठ है।
अद्भुत लिखते हैं आप।
आपका
अभिनव
होती खंडित, रही आस्था पूछती
कुछ पता? ज़िन्दगी यह किधर बह गई
वाह वाह !
मैं राकेश जी, के भावों का बड़ा प्रशंसक हूँ, मगर मैं परम आदरणीय कवियों से किसी अन्य कवि की तुलना अपराध मानता हूँ ! अभिनव, को संयत रहने का प्रयत्न करना चाहिए , आशा है आप मेरे विचार को अन्यथा नहीं लेंगे !
"है पढ़ी भागवत, गाते गीता रहे
हो गये डूब मानस में रामायणी
वेद,श्रुतियां, ॠचा, उपनिषद में उलझ
अर्थ पाने को हम छटपटाते रहे
धुंध के किन्तु बादल न पल भर छंटे
हर दिशा से उमड़ घिरते आते रहे
होती खंडित, रही आस्था पूछती
कुछ पता? ज़िन्दगी यह किधर बह गई"
गुरुजी,
अगर आपने ५०० नहीं केवल एक यही कविता भी लिखी होती तो भी आप मेरे गुरु होते!
सादर
Post a Comment