एक विधेयक-आँखों ने

आज विधेयक एक किया पारित मेरे नयनों ने
अब न याद के क्षण में कोई अश्रु बहाया जाये
एकाकी पल को न मिलेगी आप्रवास की अनुमति
चाटुकार होकर मन चाहे जितनी स्तुतियां गाये

दोष हृदय का, करे प्रेम की वही प्रज्ज्वलित ज्वाला
अपनी सुधि को बिसराकर गुम हो जाता मतवाला
बुनता रहता आस मिलन की लिये निमिष की डोरी
और कहे वाणी से जपते रहो नाम की माला

करता है अतिक्रमण, नयन की सीमा पर, हताश हो
चिन्ह रेत पर बना, हवा में अगर बिखरता जाये

दोषी भुजा, समेटें यादें पल के आलिंगन की
और अधर दोहरायें स्मृतियां रसभीने चुम्बन की
श्रवणेन्द्रियां आतुरा रह-रह सुनें नाम वह केवल3
और कल्पना रहे चितेरे छवि माधुर्य मिलन की

डाल रहे मिल कर दबाव सब,बार-बार आँखों पर
सारे दृश्य भुला कर, केवल सपना एक सजाये

क्षण भर देखा था नयनों ने इसके अपराधी हैं
किन्तु पूर्ण आक्षेप लगा है तब ही प्रतिवादी हैं
इसीलिये विद्रोह-विधा मिलकर नयनों ने ठानी
वरना सहज समर्पण कर देते गाँधीवादी हैं

आपत्काली सत्र बुला कर यह निर्णय ले डाला
अब विरोध में चाहे जितनी,मन रैलियां सजाये

पतझड़ में फूल

आपकी उंगलियों का परस पायेंगे
और आँचल के झोंके जो दुलरायेंगे
पतझड़ों की गली में भी ओ ज्योत्सने
मोगरा,जूही चम्पा महक जायेंगे

आपकी पायलों से बहारें बँधी
बाग की हर कली को ये विश्वास है
आपकी एक पदचाप में ही निहित
धड़कनों का खनकता हुआ साज है
कोयलों की कुहुक,गान भ्रमरों के सब
आपकी प्रेरणा से उदित हो रहे
शाख पर फूल बन कर सँवरता हुआ
आपके रूप का एक अंदाज़ है

आपके पग उठेंगे जिधर रूपसि
मेघ सावन के उस ओर ही जायेंगे

मौसमों की है हर एक करवट बँधी
आपके कुन्तलों में गुँथी डोर से
भोर,संध्या, निशा की जुड़ी किस्मतें
आपकी ओढ़नी के किसी छोर से
सॄष्टि सम्मोहिता एक चितवन से है
बंद पलकों में जीवन के अध्याय नव
राग,स्वर,नाद,सरगम का उद्गम रहा
है बँधा, उंगलियों के किसी पोर से

आप नजरें उठा कर गगन देख लें
भोर के सब सितारे उभर आयेंगे

झील में इक कमल पत्र पर हो खड़ा
वक्त आतुर इशारा मिले आपका
तो कदम अपने आगे बढ़ाकर लिखे
फिर नया एक इतिहास,नूतन कथा
आपकी मुट्ठियों में है सिमटा हुआ
भाग्य की लेख,चित्रित है रेखाओं में
देविके ! आपमें जो समाहित दिखा
न ही होगा कभी, न ही है, औ न था

आपके रूप का गान यदि कर सकें
शब्द कहते हैं वे धन्य हो जायेंगे

राकेश खंडेलवाल

गुनगुनाता नहीं


गीत पन्नों पे आकर उतरते रहे
मन ये मेरा उन्हें गुनगुनाता नहीं

किसके अहसास की है ये जादूगरी
शब्द बन आ रही है अधर पर मेरे
किसके ख्यालात की हैं ये रंगीनियाँ
चित्र बन छा रहीं पाटलों पे मेरे
किसकी महकी हुई साँस पुरबाई बन
है टहलने लगी मन की अमराई में
किसकी आवाज़ की बाँसुरी घोलती
कुछ सुधा, कुछ शहद आज शहनाई में

कोई है मेरे परिचय की सीमाओं में
कौन है ? किन्तु ये जान पाता नहीं

प्यार में प्यार का ढूँढ़ता रात दिन
शब्द से भी परे जो कोई अर्थ है
है कहानी सुनाता रहा अनगिनत
व्यक्त करने में स्वर किन्तु असमर्थ है
कुछ इसी भाँति की भावना उठ रही
है धुँये सी, बिछी घाटियों में कहीं
कुछ् दहकती हुई, कुछ गमकती हुई
कुछ अरण्यों के सुमनों सी हैं खिल रहीं

चाहती हैं कहीं कोई सन्दर्भ हो
भाव लेकिन कोई पास आता नहीं

रंग लेकर बसन्ती, सजे आ सपन
फागुनी,सावनी,कार्तिकी पूर्णिमा
नींद की देहरी पर भरे पयकलश
से छलकती रही रात भर ज्योत्सना
तूलिका ने किया श्रम अथक, भर सके
नक्श, चित्रों की रेखाओं में अर्थ के
तोड़ सीमा, नियम, सारी पाबंदियाँ
बन्द कर फ़लसफ़े भी सभी तर्क के

कर रहा दूर से ही इशारे मदन
पर कभी साथ में मुस्कुराता नहीं

कल्याण हो


मान्यतायें बिखरती रही रात दिन
हम करीने से उनको लगाते रहे
औ' झुलसती हुई संस्कॄति को उठा
देह पर घिस के चन्दन लगाते रहे

अस्मिता खो गई एक परछाईं में
गूँज सारे स्वरों की रही मौन हो
अजनबी अक्षरों से किया शब्द ने
प्रश्न, ये तो बताओ कि तुम कौन हो
आज बैसाखियों ने रची साजिशें
पंगु हो मूल भाषा सहारा तके
जो भविष्यत का आधार समझे गये
रह गये हाथ बांधे खड़े वे ठगे

रेत पर से छिटकती हुई रश्मि के
दायरे चाँदनी को छुपाते रहे

बदला युग, आततायी बदलते रहे
त्रुटि परिष्कार लेकिन नहीं हो सका
सोमनाथों के खुलते नहीं नेत्र हैं
जानते, किन्तु स्वीकार हो न सका
ढूँढ़ते सर्वदा इक शिखंडी मिले
है न साहस कभी आ सकें सामने
कर शिरोधार्य हर त्रासदी, कह रहे
ये ही किस्मत में शायद लिखा राम ने

चाहते जनमेजय हों बिना यत्न के
कोशिशों में समय को गँवाते रहे

अपनी जड़ से कटा एक पत्ता उड़ा
आस बादल सी अपने हॄदय में लिये
नापने नभ के विस्तार की ठान कर,
पंख टूटे हुए बाँह में भर लिये
पतझड़ों के थपेड़ों में उलझा हुआ
न इधर का रहा न उधर का रहा
शाख से फिर जुड़े साध मन में लिये
दर बदर ठोकरें खाता गिरता रहा

और इतिहास के पॄष्ठ से आ निकल
चित्र कुछ, व्यंग से मुस्कुराते रहे

प्रीत यों तो लपेटे थी भुजपाश में
प्रीत की आँख में प्रीत थी पर नहीं
चन्द ,मजबूरियाँ हाथ थी थामती
चूमती जिस तरह से पगों को जमीं
उंगलियों से लिपटती हुई उंगलियां
कीकरों से लतायें ज्यों लिपटी हुई
और विश्वास के सात पग की कसम
हो धराशायी राहों में बिखरी हुईं

शीर्ष वेदी पे आचार्य बैठे हुए
पुत्र कल्याण हो गुनगुनाते रहे

लेखनी का प्रश्न

आज यह लेखनी प्रश्न करने लगी
गीत किसके लिये मैं लिखूँ तुम कहो
जब भी स्याही उबलने लगी है मेरी
तुमने मुझसे कहा, धैर्य रख चुप रहो

चुप रही आज तक बात मैं मान कर
तुम ही बतलाओ हासिल मुझे क्या हुआ
तुम युधिष्ठिर बने हारते जा रहे
भीष्म के सामने हो रहा है जुआ
आज अभिमन्यु के साथ में उत्तरा
युद्ध से पूर्व ही हत हुए जा रहे
और तुम आँख पर पट्टियाँ बाँध कर
शांति हो शांति हो ! बस खड़े गा रहे

भीरु कहलाओगे तुम, विदित ये रहे
मौन अन्याय यदि और ज्यादा सहो
प्रश्न दोहरा रही हूँ ये, उत्तर मिले
गीत किसके लिये मैं लिखूँ तुम कहो

ओढ़ आदर्श, ले प्रण, जिन्हे जी रहे
खोखले हो चुके कितना दोहराओगे
फन कुचलने को विषधर का, है ये घड़ी
और कब तक स्वयं को यूँ डँसवाओगे
दूध तुमने पिलाया, चलो ठीक है
आस्तीनों में पालो ये अच्छा नहीं
जनमेजय हो, चुनौती को स्वीकार लो
जो लड़ा कर सका अपनी रक्षा वही

प्रेम की भाईचारे की सीमा रखो
भावना में उलझ अब न ज्यादा बहो
प्रश्न कायम है अपनी जगह पर अभी
गीत कैसे लिखूँ आज मुझसे कहो

एक पल फिर ठिठक, लेखनी ने कहा
संस्कॄति में हमारी क्षमा धर्म है
किन्तु उत्पातियों का करें नाश हम
शास्त्रों ने कहा है ये सत्कर्म है
तुमको चुननी स्वयं आज अपनी दिशा
कॄष्ण हर एक युग में उतरता नहीं
मीन को मार पाये बिना मुद्रिका
भाग्य, शाकुन्तलों का सँवरता नहीं

रह गये तुम निरुत्तर अगर आज भी
मैं भी चुप हो रहूँ सर्वदा, ये न हो
गीत कैसे लिखूँ, किसकी खातिर लिखूँ
या लिखूँ ही नहीं आज मुझको कहो.

देता रहा

अपने सिरहाने के पत्तों को हवा देता रहा
अपनी उरियानी को शोलों की कबा देता रहा

आयेंगी इक दिन बहारें, पाल कर ऐसा भरम
जलजलों को अपने घर का रास्ता देता रहा

भीड़ में बिछुड़ा हुआ फिर भीड़ में मिल जायेगा
नाउम्मीदी के शहर में भी सदा देता रहा

जो मेरी अँगनाई से नजरें बचा कर मुड़ गये
मैं उन्हीं अब्रों को सावन की दुआ देता रहा

गुम न हो जाये मेरी पहचान इस सैलाब में
शेर लिख कर अपने होने का पता देता रहा

दौर में खामोशियों के चुप न हो जाये कहीं
मैं फ़न-ए-इज़हार को रंगे-नवा देता रहा

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...