नाम तुम्हारा

प्राची के प्रांगण मे आकर, ऊषा ने जो नित्य संवारा
शतदल के पत्रों पर मैने लिखा हुआ था नाम तुम्हारा

भोज पत्र से लेकर अंकित
किया मलय-वन में शाखों पर
कोयल के गीतों में रंग कर
लिखा बुलबुलों की पांखो पर
टेर पपीहे की बनकर जो
उड़ा पकड़ चूनर पुरबा की
लहरों का संगीत बना जो
वंशी बजा, बही धारा की

फूलों के पराग ने तितली के पंखों पर जिसे निखारा
शतदल के पत्रों पर प्रियतम लिखा हुआ था नाम तुम्हारा

इतिहासों की अमर कथायें
फिर जिससे जीवंत हो गईं
जिससे जुड़ती हुई कहानी
मधुर प्रणय का छंद हो गई
वशीकरण के महाकाव्य के
प्रथम सर्ग का शब्द प्रथम यह
जीवन की क्षणभंगुरता में
केवल एक यही है अक्षय

संध्या ने सिन्दूरी होकर, दूर क्षितिज से जिसे पुकारा
ओ अनुरागी! शतदल पत्रों पर शोभित वह नाम तुम्हारा

मधुपों के गुंजन ने ्जिससे
चित्रित किये कली के पाटल
सावन के नभ ने ले जिसको
आँजा है नयनों में काजल
मीनाक्षी, कोणार्क, एलोरा
भित्तिचित्र बन रंगी अजन्ता
दिशा, नक्षत्र, काल के रथ का
जो सहसा बन गया नियंता

विधना ने आधार बना कर हर लेखे में जिसे उचारा
कलासाधिके ! कण कण में अब बसा हुआ है नाम तुम्हारा

किसके चित्र बनाती

जाने किसके चन्द्रबदन की खुशबू से महकी हैं राहें
जाने किसकी यादे पीकर यह पुरबा मदमस्त हुई है

किसके पग की छाप धरा पर रचती जाती है रांगोली
किसके हाथों की मेंहदी की बनने लगी भोर हमजोली
किसके गालों की सुरखी से लगा दहकने है पलाशवन
किसकी बांकी चितवन ने है सुरा आज उपवन में घोली

जाने किसके चित्र बनाती आज तूलिका व्यस्त हुई है
जाने किसकी यादें पीकर यह पुरबा मदमस्त हुई है

किसके अधरों की है ये स्मित, जंगल में बहार ले आइ
किसके स्वर की मिश्री लेकर कोयल गीत कोई गा पाई
किसकी अँगड़ाई से सोने लगे सितारे नभ आते ही
पूर्ण स्रष्टि पर पड़ी हुई है जाने यह किसकी परछाई

आशा किसके मंदहास की स्वीकॄति पा विश्वस्त हुई है
जाने किसकी यादें पीकर यह पुरबा मदमस्त हुई है

जाने किसके कुन्तल ने की हैं नभ की आँखें कजरारी
लहराती चूनर से किसकी, मलयज ने वादियां बुहारीं
क्या तुम हो वह कलासाधिके, ओ शतरूपे, मधुर कल्पना
जिसने हर सौन्दर्य कला की, परिभाषायें और सँवारी

बेचैनी धड़कन की, जिसका सम्बल पा आश्वस्त हुई है
तुम ही हो वह छूकर जिसको यह पुरबा मदमस्त हुई है

वक्त की हवायें

वक्त की कुछ हवायें चलीं इस तरह
स्वप्न के जो बने थे किले, ढह गये
ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार चलती रही
हम तमाशाई से मोड़ पर रह गये

दिन उगा, दोपहर, सांझ आई गई
रात आई न रूक पाई वो भी ढली
साध खिड़की के पल्ले को थामे खड़ी
कोई आतिथ्य को न रूका इस गली
पंथ आरक्षणों में घिरे, पग उठे
थे जिधर, तय हुआ फिर न कोई सफ़र
शेष जो सामने थीं वे गिरवी रखीं
और टूटी अधूरी थीं वे रहगुजर

साँस के कर्ज़ का ब्यौरा जब था लिखा
मूल से ब्याज ज्यादा बही में दिखा
जोड़ बाकी गुणा भाग के आँकड़े
उंगलियों तक पहुँच हो सिफ़र रह गये

सूर्य मरूभूमि में था कभी हमसफ़र
हम कभी चाँदनी की छुअन से जले
हम कभी पाँखुरी से प्रताड़ित हुए
तो कभी कंटकों को लगाया गले
हमने मावस में ढूँढ़े नये रास्ते
तो कभी दोपहर में भटकते रहे
पतझड़ों को बुलाया कभी द्वार पर
तो कभी बन कली इक चटखते रहे

चाहिये क्या हमें ये न सोचा कभी
सोचते सोचते दिन गुजारे सभी
क्यारियां चाहतों की बनाईं बहुत
बीज बोने से उनमें मगर रह गये

चाहतें थीं बहुत, कोई ऐसी न थी
जिससे शर्तें न हों कुछ हमारी जुड़ी
रह गईं कैद अपनी ही जंज़ीर में
एक भी नभ में बादल न बन कर उड़ी
हम थे याचक, रही पर अपेक्षा बहुत
इसलिये रिक्त झोली रही है सदा
हम समर्पण नहीं कर सके एक पल
धैर्य सन्तोष हमसे रहा है कटा

दोष अपना है, हमने ये माना नहीं
खुद हमारे ही हाथों बिकीं रश्मियां
द्वार से चांद दुत्कार लौटा दिया
कक्ष अपने, अँधेरों को भर रह गये

लड़खड़ाने लगी बाग में

आप की देह की गंध पी है जरा
लड़खड़ाने लगी बाग में ये हवा

कर रही थी चहलकदमियाँ ये अभी
लग पड़ी गाल पर ज़ुल्फ़ को छेड़ने
चूमने लग गई इक कली के अधर
लाज के पट लगी पांव से भेड़ने
ओस से सद्यस्नाता निखरती हुई
दूब को सहसा झूला झुलाने लगी
थी अभी होंठ पर उंगलियों को रखे
फिर अभी झूम कर गुनगुनाने लगी

फूल का‌टों से रह रह लगे पूछने
कुछ पता ? आज इसको भला क्या हुआ

फुनगियों पर चढ़ी थी पतंगें बनी
फिर उतर लग गई पत्तियों के गले
बात की इक गिलहरी से रूक दो घड़ी
फिर छुपी जा बतख के परों के तले
तैरने लग पड़ी होड़ लहरों से कर
झील में थाम कर नाव के पाल को
घूँघटों की झिरी में लगी झाँकने
फिर उड़ाने लगी केश के शाल को

डूब आकंठ मद में हुई मस्त है
कर न पाये असर अब कोई भी दवा

ये गनीमत है चूमे अधर थे नहीं
आपको थाम कर अपने भुजपाश में
वरना गुल जो खिलाते, भला क्या कहें
घोल मदहोशियाँ अपनी हर साँस में
सैकड़ों मयकदों के उंड़ेले हुए
मधुकलश के नशे एक ही स्पर्श में
भूलती हर डगर, हर नगर हर दिशा
खोई रहती संजोये हुए हर्ष में

और संभव है फिर आपसे पूछती
कौन है ये सबा? कौन है ये हवा ?

गीत लिखता रहूँ

गीत लिखता रहूँ, गुनगुनाता रहूँ
एक ही स्वर दिशाओं से आता रहा

भाव मिलते नहीं, गीत कैसे लिखूँ
शब्द मेरी कलम ने सँवारे नहीं
स्वप्न जाकर करीलों में अटके रहे
पल भी मेरे नयन ने निखारे नहीं
धडकनें चाहतीं बाँह थामे मगर
साँस दामन बचा कर निकलती रही
ठोकरें खाती चलती हुई भावना
अजनबी रास्तों पर भटकती रही

और कातर नजर से मुझे देखता
एक अक्षर महज कसमसाता रहा

छन्द आ खटखटाते रहे द्वार को
खोल पाया नहीं शिल्प की कुण्डियाँ
मैने समझा न व्यवसाय पल भर इसे
जो भुनाता कभी काव्य की हुण्डियाँ
सुर के सारथि लगामे लिये घूमते
कल्पना-अश्व को बाँध पाये नहीं
तार वीणा के , आवाज़ देते रहे
राग सरगम ने कोई भी गाये नहीं

एक चुप्पी अधर पर मचलती रही
एक स्वर कण्ठ में छटपटाता रहा

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...