गीत लिखता रहूँ

गीत लिखता रहूँ, गुनगुनाता रहूँ
एक ही स्वर दिशाओं से आता रहा

भाव मिलते नहीं, गीत कैसे लिखूँ
शब्द मेरी कलम ने सँवारे नहीं
स्वप्न जाकर करीलों में अटके रहे
पल भी मेरे नयन ने निखारे नहीं
धडकनें चाहतीं बाँह थामे मगर
साँस दामन बचा कर निकलती रही
ठोकरें खाती चलती हुई भावना
अजनबी रास्तों पर भटकती रही

और कातर नजर से मुझे देखता
एक अक्षर महज कसमसाता रहा

छन्द आ खटखटाते रहे द्वार को
खोल पाया नहीं शिल्प की कुण्डियाँ
मैने समझा न व्यवसाय पल भर इसे
जो भुनाता कभी काव्य की हुण्डियाँ
सुर के सारथि लगामे लिये घूमते
कल्पना-अश्व को बाँध पाये नहीं
तार वीणा के , आवाज़ देते रहे
राग सरगम ने कोई भी गाये नहीं

एक चुप्पी अधर पर मचलती रही
एक स्वर कण्ठ में छटपटाता रहा

4 comments:

Udan Tashtari said...

"भाव मिलते नहीं, गीत कैसे लिखूँ
शब्द मेरी कलम ने सँवारे नहीं"

बिना भाव मिले ही इतनी सुंदर रचना, तो भाव मिलने पर क्या होगा?
वैसे राकेश भाई,
"स्वप्न जाकर करीलों में अटके रहे" मे 'करीलों' का क्या अर्थ है?

बहुत सुंदर रचना के लिये बधाई.
समीर लाल

Anonymous said...

सुंदर रचना है

राकेश खंडेलवाल said...

समीर भाई
उत्तरी भारत में करील की काँटों भरी झाड़ियां होती हैं. लोग अक्सर बबूल का ही प्रयोग करते हैं करील का नहीं. राजस्थान में ये बहुतायत से मिलता है, एक और प्रयोग देखें
नंगे करील की शाखों सा वीरान रहूँगा कब तक मैं
निर्जन बस्ती में कब तक मैं गीतों के साथ करूंगा छल
कब तक अभाव को कोसेंगे, कब तक आंखें होंगी सूनी
अपने आंगन मेम खुद ही मैं उपजाऊंगा कितना मरुथल

Udan Tashtari said...

ज्ञानवर्धन के लिये धन्यवाद.
दुसरा प्रयोग भी अनूठा है.

समीर लाल

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