कम्प्यूटर का काम

कम्प्यूटरों का अब दखल हर क्षेत्र में हुआ
कविता का काम भी इन्ही पे छोड़ देंगें हम
जो काबिले तारीफ़ ये कविता न लिख सका
स्क्रीन फ़ोड़ देंगें, माऊस तोड़ देंगें हम

मन व्यथित मेरे प्रवासी

मन व्यथित मेरे प्रवासी
आज फिर इस धुन्ध में डूबी हुई स्मॄति के किनारे
किसलियी तू आ गया है ? ओढ़ कर बैठा उदासी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

स्वप्न की चंचल पतंगों का अभी तक कौन धागा
खींचता है? चीन्ह है पाया नहीं हर रात जागा
पुष्प-शर सज्जित धनुष के छोर दोनों रिक्त पाये
बस छलावों में उलझ कर रह गया रे तू अभागा

किसलिये तू आस की कर ज्योति प्रज्वल है प्रतीक्षित
जानता है ले रही है वर्त्तिका भी अब उबासी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

बादलों की ओढ़नी को ओढ़कर आती बयारें
द्वार पर आकर कई जो नाम रह रह कर पुकारें
कोशिशें करता, कि उनकी खूँटियों पर टाँग चेहरे
एक मादक स्पर्श के पल से पुन: सुधियां संवारें

किन्तु सीमा चाह की हर बार होकर रह गई है
भोर के बुझते दिये की एक धुंधुआसी शिखा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

काल की अविराम गति में चाहता ठहराव क्योंकर
दूर कितना आ चुका है धार में दिन रात बह कर
इस तिलिस्मी पेंच में कुछ देखना पीछे मना है
सिर्फ़ चलना सामने जो पथ, उसी पर पांव धर कर

है असंभव जो उसी की आस में डूबा हुआ है
जानता है, है नहीं संभावना जिसकी जरा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

ढूँढ़ता सुबहो बनारस हर उगे दिन की डगर में
सांझ अवधी हो सपन ये देखता है दोपहर में
लपलपाती हर लपट में यज्ञ की स्वाहा तलाशे
और बुनता मंत्र-ध्वनियां शोर की इस रहगुजर में

इन अँधेरी स्याह सुधियों में खुला इक पॄष्ठ कल का
दीप्त सहसा कर गया है प्रीत की मधुरिम विभा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

संकल्प

फूल की पांखुरी और अक्षत लिये, मैने संकल्प का जल भरा हाथ में
आपका ध्यान हर पल रहे साथ में,भोर में सांझ में, दोपहर,रात में
स्वप्न की वीथिकाओं में बस आपके चित्र दीवार पर मुस्कुराते रहें
आप मौसम की परछाईं बन कर रहें, ग्रीष्म में, शीत में और बरसात में

आधुनिकीकरण

लेखनी प्रेरणा ढूँढ़ते थक गई
कोई हो भाव जो उसको आकर छुए
वो विरह की अगन, जलता सावन,कसक
और पथ पर भटकते नयन क्या हुए ?

रोता कासिद गई हाथ से नौकरी
काम ईमेल से चल रहा आजकल
कोई संदेस बन्धता गले में नहीं
इसलिये हो रहा है कबूतर विकल
अब पड़ौसी के बच्चों को मिलती नहीं
टाफियां, या मिठाई या सिक्का कोई
सिर्फ़ आईएम पर और मोबाईल पर
इन दिनों है मोहब्बत जवां हो रही

दूरियां मिट गईं,कैमरे लग गये
जाल पर, रूबरू आज प्रीतम हुए
याद, बेचैन है कसमसाती हुई
कोई मिलता नहीं, जिसके दिल को छुए

हो गईं अजनबी, " मेरे प्यारे वतन
तुझपे कुर्बान दिल," की सभी रागिनी
एक परवाज़ के हाथ पर है वतन
जा छुआ, कामनायें जरा जो बनी
दूर के रिश्ते-सन्देश थे मौसमी
फोने की घंटियों से बन्धे हैं हुए
एक पल को कभी जिनसे परिचय हुआ
वे सभी दो पलों में पड़ौसी हुए

कोई अनजान अब है नहीं गांव का
खेत खलिहान,चौपाल,पनघट,कुंए

चित्र सारे ही उपलब्ध हैं जाल पर
अब तरसता न खिलजी, दिखे पद्मिनी
कैस लैला की खातिर गया चैट पर
साथ उसको मिलीं हीर और सोहनी
लाग करता जगन्नाथ, पर पूर्व ही
सामने आ लवंगी खड़ी हो गई
जुगनुओं की चमक नेट पर जो चढ़ी
झिलमिलाती हुई फुलझड़ी हो गई

जो भी है सब सिमट जाल पर रह गया
स्वप्न भी आँख में अब न बनते मुए



दीवाली-एक और नजर

रोशनी ओढ़ कर आई है ये अमा
आओ दीपक जला कर करें आरती
साथ अपने लिये, विष्णु की ये प्रिया
कंगनों और नूपुर को झंकारती

आहुति तम की दे सांझ के यज्ञ में
आई पहने हुए पूर्णिमा की छटा
बन पुरोहित करे मंत्र उच्चार भी
अपने स्वर में पटाखों के स्वर को सजा
दॄष्टि के पुंज की बन चमक, फुलझड़ी
की चमक में सिमट कर बिखरती हुई
अपने आंचल को लहरा, बहारें लुटा
मन में उल्लास बन कर संवरती हुई

आओ पूजा की थाली सजायें चलो
साथ, वीणा लिये हाथ में भारती

साथ में ॠद्धि-सिद्धि प्रदायक हुए
आज बदले है अपना जो ये आचरण
नव-निधि आज करने लगी बेझिझक
कार्तिकी इस अमा का सहज ही वरण
धान्य, समॄद्धियों का कमर पर कलश
है लिये पांव आँगन में धरती हुई
खील सी खिलखिलाहट को मधुपर्क में
घोल, मधुरिम उमंगों में झरती हुई

एक अनुराग को, अपने अस्तित्वे की
पूर्ण एकादशी को रही वारती

गेरू, चावल पिसे, और आटा लिये
कक्ष में भित्तिचित्रों को आओ रँगें
कंठ की वाणियां आज की रात से
एक मिष्ठान सी चाशनी में पगें
हर दिशा ने कलेवर नया कर लिया
आओ हम भी नये आज संकल्प लें
जैसे बदली अमा बन के दीपावली
हम भी बदलें न सोचा हो ज्यों गल्प ने

धड़कनों के सफ़र में खिलें हम सभी
पंथ की धूल में बन के मधुमालती
और फिर ये अमा, बन महाकालिका
हो व्यथाओं को पल पल पे संहारती

दीपावली

ज्योति के पर्व पर दीप की वर्त्तिका आपका पथ उजालों से भरती रहे
फुलझड़ी की चमक, आपके शीश पर, बन सितारे निशा दिन चमकती रहे
कामना के सुगंधित सुमन आपके घर की फुलवारियों में महकते रहें
ईश के सौम्य आशीष की छाँह में, ज़िन्दगी आपकी नित संवरती रहे

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ज्योति का पर्व आकर खड़ा द्वार पर
चाँदनी आज फिर गीत गाने लगी
फूल की पांखुरी, गंध, मेंहदी लिये
देहरी अल्पना से सजाने लगी

थाम भेषज चषक आज धन्वन्तरि
सिन्धु से फिर निकल आ रहा गांव में
कर रहीं अनुसरण झांझियां बाँध कर
कुछ उमंगों को पायल बना पांव में
आज फिर हो हनन आसुरी सोच का
रूप उबटन लगा कर निखरने लगा
मुखकमल घिरता स्वर्णाभ,रजताभ से
सूर्य बन कर गगन पर दमकने लगा

उड़ते कर्पूर की गंध में कल्पना
आरती के दियों को सजाने लगी


बढ़ रहीं रश्मियाँ हर किसी ओर से
सारे संशय के कोहरे छँटे जा रहे
जो कुहासे थे बदरंग पथ में खड़े
एक के बाद इक इक घटे जा रहे
आस्था दीप की बातियों में ढली
और संकल्प घॄत में पिघलता हुआ
सत्य के बोध को मान सर्वोपरि
मन में निश्चय नया और बढ़ता हुआ

थालियाँ भर बताशे लिये कामना
हठरियाँ ज़िन्दगी की सजाने लगी


आओ आशा की लड़ियों की झालर बना
द्वार अपने ह्रदय के सजायें सभी
द्वेष की हर जलन, दीप की लौ बने
रागिनी प्रीत की गुनगुनायें सभी
अंधविश्वास, अज्ञान, धर्मान्धता
के असुरगण का फिर आज संहार हो
झिलमिलाता हुआ ज्योत्सना की तरह
हर तरफ़ प्यार हो और व्यवहार हो

एक आकाँक्षा साध में घुल रही
स्वप्न आँखों में नूतन रचाने लगी

यादों के चन्द्रमहल

टँगे हुए जो चित्र याद के चन्द्रमहल की दीवारों पर
उन सब में जो अंकित है, वह प्राणप्रिये है छवि तुम्हारी

भित्तिचित्र हों या हो दर्पण, या देहरी पर रँगी अल्पना
पुरा चौक हो मंगल दिन का,या रँगती हो द्वार कल्पना
शंख, सीपियाँ, गेरू ,आटा, मेंहदी,कुमकुम, अक्षत, रोली
सबही से परिलक्षित होती, तुम्हें बिठा कर लाई डोली

अँगनाई से कंगूरों तक,जहां तुम्हारा परस हुआ है
हर उस कोने से उठती है गंध, रूपिणी अभी तुम्हारी

अगरबत्तियों का लहराता धुआँ, दीप की जलती बाती
मीत ! प्रार्थना के हर क्षण में चित्र तुम्हारा है बन जाती
आरति की घंटी के स्वर में, उपजा है स्वर प्रिये तुम्हारा
वही तुम्हारा नाम हो गया, जब भी मंत्र कोई उच्चारा

मन साधक की, आराधक की, जो भी है आराध्य साध्य वह
हर प्रतिमा पर, गौर किया तो पाया हैं वे सभी तुम्हारी

जागी हुई नींद के क्षण में, दिन के स्वप्निल सम्बन्धों में
एक गंध है, एक रंग है, एक ध्येय सब अनुबन्धों में
एक तुम्हारी महक रखे जो मेरी सांसों को महकाकर
एक रूप है जो रखता है, अधरों पर गीतों को लाकर

कला बोध से शब्द शिल्प तक, सुर सरगम की तुम्ही प्रणेता
शतरूपे ! इन सब से होंगी विलग न स्मॄतियाँ कभी तुम्हारी

चाँदनी अपना चेहरा छुपाने लगी

आपको देख कर देखने लग पड़ी
खुद को दर्पण में कलियों की अँगड़ाईयां
रूपमय चाँदनी ओढ़ कर बदलियों की
चुनरिया को चेहरा छुपाने लगी

वादियों में लगी गुनगुनाने हवा
आपकी ओढ़नी का सिरा चूमकर
गंध की सिहरनें गीत गाने लगीं
अपनी मदहोशियों में लिपट झूमकर
चुनता पुंकेसरों के कणों को मधुप
भूल कर अपना आपा ठगा रह गया
एक झरना नजर आप पर डाल कर
चलता विपरीत फिर स्रोत को बह गया

सांझ के दीप की रश्मियां आपकी
दॄष्टि का स्पर्श पा जगमगाने लगीं

छू के पग आपके राह की धूल भी
सरगमी हो डगर में थिरकने लगी
नभ-कलश से सुधा आपकी राह में
खुद ब खुद आ बरसने बिखरने लगी
आपकी भ्रू के ही इंगितों में बँधे
दूज के तीज के चौथ के चन्द्रमा
आपके नैन की लेके गहराईयाँ
रँ नूतन लगा ओढ़ने आस्मां

अपनी सीमाओं पर हिचकिचाती हुई
कल्पना सोच कर कुछ, लजाने लगी

गंध ने रंग को शिल्प में ढाल कर
एक प्रतिमा गढ़ी, जो रही आपकी
इन्द्रधनुषी गगन पर संवरती हुई
जो छवि इक रही, थी छवि आपकी
पालकी में बिठा मौसमों को घटा
आपकी उंगलियों का इशारा तके
आपके इंगितों से समय चल रहा
कब ढले यामिनी और दिन कब उगे

ज़िन्दगी आपको केन्द्र अपना बना
साधना के दिये फिर जलाने लगी.

नींद के साथ शतरंज

यूँ तो कुछ भी न था जिसके भ्रम में फ़ँसी
कामना रात दिन छटपटाती रही
और पीपल की डाली पे बैठी हुई
एक बुलबुल पिया को बुलाती रही

गूँजती राह में पैंजनी की खनक
याकि गागर थकी एक सोई हुई
हों सहेली सी बतिया रही चूड़ियां
या कि तन्हा हो नथ एक खोई हुई
नैन के आंगनों में सपन बैठ कर
नींद के साथ शतरंज हों खेलते
और चुप इक किनारे खड़ी हो निशा
बीते दिवसों का भारी वज़न झेलते

सबकी आंखों में जलते हुए प्रश्न के
ज़िन्दगी मौन उत्तर सुनाती रही

सॄष्टि के थी संदेसे लिखे जा रही
इस धरा पर हलों की नुकीली कलम
एक ही है इबारत, कि दोहरा रहे
हम सभी जिसको अब तक जनम दर जनम
भोर बोझिल पलक से झगड़ती हुई
सांझ की जंग बढ़ती हुई नींद से
आस फूलों के रंगों में डूबी हुई
वक्त करता हुआ टुकड़े उम्मीद के

अपनी धुन में मगन एक हो, आस्था
रोज शिवलिंग पर जल चढ़ाती रही

जानते थे हथेली की रेखाओं में
कोई बाकी नहीं बच सकी भाग्य की
फ़िर भी अपने ही भ्रम में उलझ चाहना
आस करती रही कोई सम्भाव्य की
बढ़ चुके थे कदम, न निशां शेष थे
पर उठी ही नहीं है धरा से नजर
स्वप्न की डोर को थाम कर चल रही
अपने परिवेश से कट हुई बेखबर

था सुना द्वादशी पर बदलता सभी
फिर यही बात रह रह लुभाती रही

नाम अपना दोषियों में

है विदित मुझको कि पथ पर प्रीत के मैं चल न पाया
पा रहा हूँ किसलिये फिर नाम अपना दोषियों में

शब्द जिन अनुभूतियों को कर नहीं अभिव्यक्त पाया
भावना के सिन्धु में फिर से उन्ही का ज्वार आया
लड़खड़ा कर रह गये अक्षर सभी उस व्याकरण के
आपकी अभ्यर्थना करते हुए जिसको सजाया

और अब असमंजसों की ओढ़ कर काली दुशाला
घिर गया हूँ मैं यहाँ बढ़ती हुई खामोशियों में


धड़कनों में नाम बो कर साधना की लौ जलाई
साँस की सरगम सलौनी रागिनी में गुनगुनाई
वर्जना की पालकी में बैठती सारंगियों को
नाद के संदेश पत्रों की शपथ फिर से दिलाई

बोध के सम्बोधनों को, कंठ स्वर जो नाम दे दे
ढूँढ़ता हूँ मिल सके सहमी हुई सरगोशियों में

हाँ चला हूँ राह को पुष्पित किये मैं रात वासर
शाख पर बैठी कली को, गीत नदिया के सुनाकर
पर्बतों के गांव से लौटी हुई पुरबाईयों को
बाँधता हूँ ओढ़नी के घुंघरुओं में गुनगुनाकर

तीर पर वाराणसी में, दे रहा आवाज़ उसको
वह अवध की शाम, जिसको खो चुका मयनोशियों में

कविता किन्तु नहीं आ पाती

फागुन को गुजरे दिन बीते, बरखा ॠतु भी दिखती जाती
मैने भेजे कई संदेसे, कविता किन्तु नहीं आ पाती

छंद बढ़ाये हाथ रह गये औ' कवित्त फैलाये बांहें
दोहों की बढ़ती व्याकुलता से सज्जित हैं सारी राहें
कुण्डलियों के स्वप्न सजाये बिना रहे नयना पथराये
और सवैये की लाचारी करती जाहिर व्यथित निगाहें

अलंकार ने उपमाओं के साथ नित्य ही भेजी पाती
मैने भी भेजे संदेसे, कविता किन्तु नहीं आ पाती

सर्ग सर्ग की दहलीजों पर रख रूपक की वन्दन्वारें
खण्डकाव्य के सन्दर्भों की आतुरतायें पंथ निहारें
महाकाव्य की गंगा के तट खड़ी लेखनी नौका बनकर
कब भावों के अवधपति आ, इस केवट के भाग्य संवारें

सरगम खड़ी थाम रागिनियां, शब्द बिना पर गा न पाती
कितने भेजे हैं संदेसे, कविता किन्तु नहीं आ पाती

गज़लें मुक्तक, नज़्म, निगाहें मुझसे बचा बचा कर गुजरे
दूर अंतरे रहे, कभी जो जोड़ लिये मैने कुछ मुखड़े
अक्षर हुए अजनबी, संचय सब, शब्दों का क्षीण हो गया
रहे पास में बिसरी हुई उक्तियों के कुछ टूटे टुकड़े

इन् पर लिखी इबारत धूमिल, कोई अर्थ नहीं दे पाती
थका बुलाते दिवस-निशा मैं, कविता किन्तु नहीं आ पाती

और सरगम सोचती है

मौन पल पल सोचता है कोई उसको गुनगुनाये
रागिनी की आस पल भर सरगमों का साथ पाये

शब्द को आतुर अधर पर, मंद स्मित की एक रेखा
जब जुड़ी सुर से नहीं तो कौन उसकी ओर देखा
हाथ में पगडंडियों के मानचित्रों की घुटन में
खो चुका जो मानते थे भाग्य का है एक लेखा

पंथ के हर शैल की आशा कि पद रज में नहाये
और सरगम सोचती है, रागिनी के साथ गाये

प्रीत की अभिव्यक्तियों में शब्द की बेचारगी को
देख कर बढ़ती हुई हर भाव की आवारगी को
फिर दरकते कांच सा,पल चीख कर निस्तब्ध होता
और उकसाता, कि बोले छोड़ कर दीवानगी को

स्वप्न की चाहत को रह रह नैन में आकर समाये
और सरगम सोचती है कोई उसको गुनगुनाये

साधना में दॄष्टि की, वाणी अहम खोती रही है
नयन में विचलित तरंगें, भाष्य नव बोती रही हैं
चाह की चाहत निरंतर है बढ़ी पर चाहना भी
धुन्ध सी, झोंके हवा के पा विलय होती रही है

किन्तु फिर भी चाह सोचे, चाह के नूपुर बजाये
और सरगम की तमन्ना, पायलों में झनझनाये

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...