फूल की गंध में चाँदनी घोल कर

कैनवस पर गगन के लिखा भोर ने
नाम प्राची की जो खिड़कियां खोलकर
रश्मियों ने उसे रूप नव दे दिया
बात उषा के कानों में कुछ बोलकर
आप के चित्र में आप ही ढल गया
आज मेरे नयन के क्षितिज पर तना
रंग भरता हूँ मैं भोर से सांझ तक
फूल की गंध में चाँदनी घोल कर

गीत हो यह कब जरूरी

गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर
लेखनी का छोड़ते हैं हाथ, कह ये बात अक्षर
भावनायें रह गईं अक्सर अधूरी ही, उमड़ कर

छंद में बँधना कहाँ हर शब्द की किस्मत हुई है
और कब तक भाव को एकाग्रता के तार बाँधें
भार होता एक सा कब? पल विरह का, पल मिलन का
इक सुमन सा, दूसरे का ढो न पाते बोझ कांधे

हर दफ़ा चित्रित न होतीं तूलिकायें कैनवस पर
गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर

है जरूरी कब? घटा जब जब घिरे, हर बार बरसे
तीर जो संधान हो हर एक , पा जाये निशाना
और नदिया बँध किनारों में सदा बहती रहेगी
मुस्कुराये हर दिवस ही बाग में मौसम सुहाना

या निशा की पालकी में चाँद आये नित्य नभ पर
गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर.

पायलों में झनझनाना घुंघरुओं की नियति यद्यपि
शर्त लेकिन् है नहीं हर नॄत्य में वे गुनगुनायें
साज का है सरगमों से ज्न्म, का अनुबन्ध चाहे
ये नियम भी तो नहीं हर राग में वो गीत गाये

सांझ की दुल्हन न आती नित्य ही बन कर संवर कर
गीत ही हो कब जरूरी शब्द जब आये अधर पर

स्वाति के मेघ घिरते नहीं

सांझ ढलने लगी और बढ़ने लगी
ढेर एकाकियत जब मेरे कक्ष में
सैंकड़ों चित्र आकर उमड़ने लगे
सात रंगों में रँगकर मेरे अक्ष में

पीठ अपनी तने से सटा, नीम की
छांह में बैठ पढ़ते किताबें कभी
तो क्भी दोपहर की पकड़ चूनरी
गीत बादल के संग गुनगुनाते हुए
वाटिका में लिये टोकरी फूले की
अर्चना के लिये पुष्प चुनते हुए
तो कभी बैठ मनिहारियों के निकट
चूड़ियों से कलाई सजाते हुए

सहसा जागे हुए, याद की नींद से
भाव भरने लगे कुछ नये, वक्ष में

चित्र इक गुलमोहर से सजी पगतली
कुन्तलों में मदन आ गमकता हुआ
औ’ कपोलों को आरक्त करता हुआ
स्वप्न कोई फ़िसल नैन की कोर से
बन के अलगोजा दांतों से बातें करे
एक चंचल कलम, उंगलियों में उलझ
कल्पना लेके अंगड़ाई उड़ती हुई
बँध उमंगों भरी रेशमी डोर से

एक मोहक लजीली लिये स्मित अधर
रिक्त करते हैं संचय कलादक्ष में


षोडशी सांझ की चौखटों को पकड़
है प्रतीक्षा बनी एक चातक विहग
स्वाति के मेघ घिरते नहीं नित्य हैं
प्यास के किन्तु कीकर हुए सावनी
ओढ़नी में समेटे निशा ले गई
आस का कोई सपना बढ़ा जो इधर
भोर से दोपहर तक, सभी हो गईं
एक बोझिल उदासी की अनुगामिनी

काल के चक्र से जितने पल हैं मिले
चार-छह भी नहीं हैं मेरे पक्ष में

आमंत्रण है उद्घाटन का

मीत ! ह्रदय की अँगनाई में मैने जो निर्माण किया है
उसका उद्घाटन करने को आज तुम्हें आमंत्रण भेजा

पत्थर लिये भावनाओं के, मन मकराना की खानों से
पच्चीकारी की है उन पर कोयल की मधुरिम तानों से
एक अनूठी लगन रोप कर रखी हुई आधार शिलायें
जिन्हें मांग कर लाया हूँ मैं, इतिहासों के दीवानों से

एक तपस्वी के दॄढ़ निश्चय सी दीवारों से आरक्षित
मंदिर में बस एक तुम्हारी ही प्रतिमा को रखा सहेजा

प्राची की अँगड़ाई लेकर भित्तिचित्र हर ओर बनाये
अनुभूति के फूल द्वार पर वंदनवार बना लटकाये
भावुकता के निमिष पिरोकर रँगी अल्पनाऒं से देहरी
नयनों के सतरंगी सपने कालीनों की तरह बिछाये

और तुम्हारी छवियों वाले रंग लिये फूलों को रंगता
फुलवाड़ी की हर क्यारी में मन का ये पागल रँगरेजा

सौगंधों की कड़ियां जोड़ीं विश्वासों के शहतीरों से
रखी आस्थाओं की छत पर निष्ठाओं की ज़ंज़ीरों से
साधी कंदीलों में ज्योतित मैने किया साधनाओं को
राहें दीप्तिमान कीं सारी , सम्बन्धों की प्राचीरों से

अगवानी की थाली में रख कर सर्वस्व हुआ संकल्पित
मीत मेरे यह सब कुछ तेरा, जो चाहे वह आकर लेजा

चन्दन की गंधें टाँगी है लाकर मैने वातायन पर
पुरबाई के नूपुर मेंने जड़े हुए खिड़की की सिल पर
जूही की कलियों के परदों में गुलाब की पंखुरियों को
एक तुम्हारा स्वागत करने को लटकाया हर चौखट पर

और तुम्हारी गलियों से जो चला, हवा के हर झोंके से
कहा, तुम्हारे पग उठते ही आकर के संदेसा दे जा

रात भर मैने बुने हैं

रात के दरवेश से हर रोज यह कहते सवेरे
रात भर मैने बुने हैं ओ निमग्ने गीत तेरे

पंखुड़ी में फूल की, रख केसरों की वर्त्तिकायें
गंध चन्दन में डुबो अपने ह्रदय की भावनायें
पारिजाती कामना के पुष्प की माला पिरोकर
एक तेरी प्रियतमे करता रहा आराधनायें

तूलिका ने हर दिशा में रंग जितने भी बिखेरे
प्राण सरिते ! देखता हूँ उन सभी में चित्र तेरे

शब्द तेरे नाम वाला अर्चना का मंत्र बन कर
भोर मे संध्या निशा में, हर घड़ी रहता अधर पर
धड़कनों की ताल पर जो नॄत्य करती रागिनी है
सांस हर गतिमान है उसके थिरकते एक स्वर पर

आहुति की आंजुरि मं आ गया संचय समूचा
सप्तरंगी रश्मियों के साथ शरमाते अँधेरे

ज्ञात की अनुभूतियों में तुम, मगर अज्ञात में भी
व्योम में, जल में, धरा में, अग्नि में तुम, वात में भी
तुम विधि ने भाल पर जो लिख रखी है वो कहानी
बिन्दु तुम हो ज़िन्दगी का केन्द्र, रेखा हाथ की भी

चेतना की वीथियों में रूप इक विस्तार पाकर
चित्र में ढल कर तुम्हारे रँग रहा अहसास मेरे

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...