गीत हो यह कब जरूरी

गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर
लेखनी का छोड़ते हैं हाथ, कह ये बात अक्षर
भावनायें रह गईं अक्सर अधूरी ही, उमड़ कर

छंद में बँधना कहाँ हर शब्द की किस्मत हुई है
और कब तक भाव को एकाग्रता के तार बाँधें
भार होता एक सा कब? पल विरह का, पल मिलन का
इक सुमन सा, दूसरे का ढो न पाते बोझ कांधे

हर दफ़ा चित्रित न होतीं तूलिकायें कैनवस पर
गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर

है जरूरी कब? घटा जब जब घिरे, हर बार बरसे
तीर जो संधान हो हर एक , पा जाये निशाना
और नदिया बँध किनारों में सदा बहती रहेगी
मुस्कुराये हर दिवस ही बाग में मौसम सुहाना

या निशा की पालकी में चाँद आये नित्य नभ पर
गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर.

पायलों में झनझनाना घुंघरुओं की नियति यद्यपि
शर्त लेकिन् है नहीं हर नॄत्य में वे गुनगुनायें
साज का है सरगमों से ज्न्म, का अनुबन्ध चाहे
ये नियम भी तो नहीं हर राग में वो गीत गाये

सांझ की दुल्हन न आती नित्य ही बन कर संवर कर
गीत ही हो कब जरूरी शब्द जब आये अधर पर

5 comments:

Rachna Singh said...

है जरूरी कब? घटा जब जब घिरे, हर बार बरसे
very very nice

Anonymous said...

अच्छा है। बहुत दिन बाद लिखा!

Divine India said...

पर बन चुके हैं यहाँ पर आपके शब्द पुन: गीत ही…।

Unknown said...

भार होता एक सा कब? पल विरह का, पल मिलन का
इक सुमन सा, दूसरे का ढो न पाते बोझ कांधे

बहुत सुंदर,और सोचने को एक मोती...।

Reetesh Gupta said...

सांझ की दुल्हन न आती नित्य ही बन कर संवर कर
गीत ही हो कब जरूरी शब्द जब आये अधर पर

बहुत सुंदर राकेश जी ...अच्छा लगी आपकी कविता
....बधाई

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...