नव वर्ष का प्रथम काव्य सुमन- माँ के चरणों में

मात शारदे ने जो अपनी वीणा के तारों को छेड़ा
आशीषों की सरगम बिखरी, ढली शब्द में गीत बन गई

शतदल की पाँखुर पाँखुर से, बिखरे हैं सहस्त्र शत अक्षर
और ओसकण के स्पर्शों से सँवर गईं मात्रायें पूरी
महके हैं परागकण, भावों में गंधों को पिरो गये हैं
छन्दों के कौशल ने अपनी दे दी उन्हें सहज मंजूरी

मां के हाथों की पुस्तक का पना एक खुला जिस क्षण से
मस्तक पर की लिखी पंक्तियां, इक स्वर्णिम संगीत बन गई

हंस वाहिनी के इंगित से शब्द संवरते मुक्ता बन कर
और परों की छुअन, भावना उनमें सहज पिरो जाती है
कलम उजागर कर देती है श्वेत श्याम अक्षर का अंतर
और नजर शब्दों को आकर प्राण सुरों का दे जाती है

माला के मनकों से होती प्रतिबिम्बित हर एक किरण को
छूकर फ़ैली हुई अमावस, विस्मॄत एक अतीत बन गई

शांत शुभ्र, श्वेताभ, सत्यमय भाषा की जननी ने अक्षर
को देकर स्वर संजीवित कर पग पग पर आल्हाद बिखेरा
छोर चूम उसके आंचल का गतिमय हुआ ज्ञान का रथ जब
अज्ञानों के अंधकार को छंटते देखा, हुआ सवेरा

एक बार उसकी अनुकम्पा के पारस ने जिसे छू लिया
वही लेखनी सन्दर्भों की इक अनुकरणीय रीत बन गई

नव वर्ष की शुभकामनायें

पंथ विधु की विभायें सजाती रहें,ज्योत्सना आंगनों से ढले न कभी
व्यस्तता आपके साथ चलती रहे, जोर एकाकियत का चले न कभी
पेंजनी की तरह झनझनाती रहे,होके फ़गुनाई खिड़की पे पुरबाईयाँ
दोपहर चैत की धूप वाली रहे, जेठ का सूर्य आकर जले न कभी

मंदिरों में जले दीप की रोशनी, जगमगाती रहे आपके द्वार पर
सप्त घट नीर अभिषेक करते रहें नित्य ही आपका मंत्र उच्चार कर
तूलिकायें लिये, नित्य विधना नये, आपके हाथ में चित्र रँगती रहे
इस नये वर्ष में आपका हर दिवस, गीत गाता रहे राग मल्हार पर

दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा

एक परिशिष्ट में सब समाहित हुए
शब्द जितने लिखे भूमिका के लिये
फ़्रेम ईजिल का सारे उन्हें पी गया
रंग जो थे सजे तूलिका के लिये

स्वप्न की बाँसुरी, नींद के तीर पर
इक नये राग में गुनगुनाती रही
बाँकुरी आस अपने शिरस्त्राण पर
खौर केसर का रह रह लगाती रही
चाँदनी की किरण की कमन्दें बना
चाह चलती रही चाँद के द्वार तक
कल्पना का क्षितिज संकुचित हो गया
वीथिका के न जा पाया उस पार तक

धूप की धूम्र उनको निगलती गई
थाल जितने सजे अर्चना के लिये
सरगमों ने किये कैद स्वर से सभी
बोल जितने उठे प्रार्थना के लिये

दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा
रात अटकी रही दीप की लौ तले
सांझ कोटर में दुबकी हुई रह गई
कोई ढूँढ़े तो उसका पता न चले
पाखियों के परों की हवायें पकड़
जागते ही उठी भोर चलने लगी
दोपहर छान की ओर बढ़ती हुई
सीढियाँ चढ़ते चढ़ते उतरने लगी

व्याकरण ने नकारे सभी चिन्ह जो
सज के आये कभी मात्रा के लिये
एक बासी थकन बेड़ियाँ बन गई
पांव जब भी उठे यात्रा के लिये

बोतलों से खुली, इत्र सी उड़ गई
चांदनी की शपथ,राह के साथ की +
पीर सुलगी अगरबत्तियों की तरह
होंठ पर रह गई अनकही बात सी
चाह थी ज़िंदगी गीत हो प्रेम का
एक आधी लिखी सी ग़ज़ल रह गई
छंद की डोलियाँ अब न आती इधर
ये उजडती हुई वेदियाँ कह गईं

सीपियाँ मोतियों में बदल न सकीं
नीर कण जो सजे भावना के लिये
जिसमें रक्खे उसी पात्र में घुल गए
पुष्प जितने चुने साधना के लिये

वाणी ने कर दिया समर्पण

व्यक्त नहीं हो सकी ह्रदय की भाषा जब कोरे शब्दों में
हुआ विजेता मौन और फिर वाणी ने कर दिया समर्पण

दॄष्टि हो गई एक बार ही नयनों से मिल कर सम्मोहित
और चेतना साथ छोड़ कर हुई एक तन्द्रा में बन्दी
चित्रलिखित रह गया पूर्ण अस्तित्व एक अनजाने पल में
बांध गई अपने पाशों में उड़ कर एक सुरभि मकरन्दी

वशीकरण, मोहन, सम्मोहन, सुधियों पर अधिकार जमाये
समझ नहीं पाया भोला मन, जाने है कैसा आकर्षण

गिरा अनयन, नयन वाणी बिन, बाबा तुलसी ने बतलाया
पढ़ा बहुत था किन्तु आज ही आया पूरा अर्थ समझ में
जिव्हा जड़, पथराये नयना, हुए अवाक अधर को लेकर
खड़ी देह बन कर प्रतिमा इक, शेष न बाकी कुछ भी बस में

संचय की हर निधि अनजाने अपने आप उमड़ कर आई
होने लगा स्वत: ही सब कुछ, एक शिल्प के सम्मुख अर्पण

आने लगे याद सारे ही थे सन्दर्भ पुरातन, नूतन
कथा,गल्प,श्रुतियां, कवितायें पढ़ी हुई ग्रन्ठों की बातें
यमुना का तट, धनुर्भंग वे पावन आश्रम ॠषि मुनियों के
नहीं न्याय कर पाये उससे, मिली ह्रदय को जो सौगातें

खींची हैं मस्तक पर कैसी, भाग्य विधाता ने रेखायें
उनका अवलोकन करने को देख रहा रह रह कर दर्पण

संध्या की पुस्तक के पन्ने तब सिन्दूरी हो जाते हैं

मीत तुम्हारे हाथों की मेंहदी जब इनको छू जाती है
संध्या की पुस्तक के पन्ने तब सिन्दूरी हो जाते हैं

अभिलाषायें लिख देती हैं प्रथम पॄष्ठ पर स्वप्न सुनहले
स्वयं रंग में रँग सतरंगी हो जाता है पूर्ण कथानक
और क्षितिज की खिड़की पर आ खड़ी हुई रजनी के कुन्तल
रजत आभ से घिर जाते हैं बिना चाँद के तभी अचानक

और तुम्हारी नजरें छूकर शब्द लिखे परिशिष्ट रहे जो
पता नहीं है जाने कैसे सब अंगूरी हो जाते हैं

बिखरी हुई लालिमा आकर चेहरे को रँगने लग जाती
आंखों में खिंचने लग जातीं हैं रेखायें हुईं गुलाबी
मौसम ढल कर प्रतिमाओं में संजीवित होने लगता है
और बादलों की रंगत भी हो जाती कुछ और उनावी

खनके हुए कंगनों की धुन जब छू लेती ज़िल्द सांझ की
बिखरे सब अध्याय सिमट कर गाथा पूरी हो जाते हैं

नीड़ लौटते पाखी के स्वर में बजने लगते अलगोजे
उठ जाती है लेकर करवट, बांसुरिया की सोई सरगम
सोना बिखराने लगते हैं धारा पर दोनों के दीपक
चहलकदमियां करने लगता मंदिर का आरति स्वर मद्दम

रजनीगंधा की महकों से, उमड़ी हुई हवा के झोंके
अनायस ही एक बिन्दु पर संचित दूरी हो जाते हैं

किसलिये फिर उत्तरों की कुछ अपेक्षायें करूँ मैं

रह गये हैं प्रश्न सारे कंठ में ही जब अटक कर
किसलिये फिर उत्तरों की कुछ अपेक्षायें करूँ मैं

जो विसंगतियाँ बिखेरीं ज़िन्दगी ने पंथ में आ
मैं उन्हें अरुणाई कर के भोर की जीता रहा हूँ
दोपहर ने जो पिघल कर सांझ के प्याले भरे हैं
पीर के वे पल निरंतर ओक भर पीता रहा हूँ
रात के बिखरे चिकुर में गंध ले निशिगंध वाली
गूँथता मंदाकिनी की लहर के मोती उठाकर
स्वप्न की दहलीज पर जो आ उतर जाते अचानक
याद के पैबन्द अपने मौन से सीता रहा हूँ

उंगलियाँ का काम ही जब हो गया पैबन्द करना
किसलिये फिर एक धागा भी पिरोने से डरूँ मैं

डूब कर जो दंभ में खोई हुइ है मानसिकता
कोशिशें सारी विफ़ल हैं एक पल उसको उबारूँ
चाहना जिस बिम्ब की है आईने में देख पाना
वो मुझे दिखता नहीं है चाहे जितना भी निहारूँ
ढीठ हैं सपने दिवस के, पॄष्ठ पलकों के न छोड़ें
लिख रहे हैं दॄष्टि भ्रम की एक नव फिर से कहानी
चेतना के तर्क को घेरे खड़े हैं आवरण कुछ
कोई भी उत्तर नहीं है चाहे जितना भी पुकारूँ

रोष पतझड़ का खड़ा है राह में बाहें पसारे
सोचता हूँ क्यों नहीं फिर पात बन क ही झरूँ मैं

राह पर चलते हुए विपरीत जो पग हो गये तो
कह दिया है दोष पथ का, पांव का माना नहीं है
अर्धव्यासों की डगर पर रह गया केवल उलझ कर
जो दिशाओं ने कहा वह सत्य ही माना नहीं है
हठ अहम का बन गया बाधा समन्वय की डगर की
जो कसौटी थे समय की, कह दिया परछाई केवल
मुट्ठियों में भर लिया जो सामने था, ये न सोचा
साधना का अर्थ होता मात्र बस पाना नहीं है

नीर कब संचित शिवालय के कलश में हो सका है
किसलिये फिर छिद्र वाली एक गागर को भरूँ मैं

गीत तुम संगीत हो तुम

कंठ का स्वर, शब्द होठों के मिले बस एक तुमसे
चेतना को दे रही चिति एक अभिनव प्रीत हो तुम

जो तपस्या के पलों में चित्र बनते हो वही तुम
नाम तुम जपते जिसे मालाओं के मनके निरन्तर
यज्ञ की हर आहुति को पूर्णता देती तुम ही हो
पांव प्रक्षालित तुम्हारे कर रहे सातों समन्दर

लेखनी तुम और तुम मसि,हम निमित बस नाम के हैं
सिर्फ़ इक तुम ही कवि हो और सँवरा गीत हो तुम

राग के आरोह में, अवरोह में औ’ रागिनी में
स्वर निखरते बीन की झंकार की उंगली पकड़ कर
तार पर बिखरा हुआ स्वर एक तुम हो स्वररचयिते
हर लहर उमड़ी सुरों की एक तुम ही से उपज कर

साज की आवाज़ तुम ही, तार का कम्पन तुम्हीं हो
पूर्ण जग को बाँधता लय से वही संगीत हो तुम

हो कली की सुगबुगाहट याकि गूँजा नाद पहला
शब्द को रचती हुई तुम ही बनी हर एक भाषा
बस तुम्ही अनूभूति हो,अभिव्यक्ति भी तुम ही सदाशय
भाव भी तुम,भावना तुम,प्राण की तुम एक आशा

तुम रचेता अक्षरों की,वाक तुम,स्वर तुम स्वधा तुम
प्राण दे्ती ज़िन्दगी को वह अलौकिक रीत हो तुम


प्राण का पाथेय पल पल क्षीण होता जा रहा है

शब्द कोई लिख नहीं पाये समय की हम शिला पर
प्राण का पाथेय पल पल क्षीण होता जा रहा है

नीड़ कोई दे न पाया चार पल विश्रांति वाले
राह सारे पी गई है पास के संचित उजाले
पांव के छाले पिघल कर कह गये जो पत्थरों से
बात वह मिलती नहीं अब, कोई कितना भी खंगाले

पेंजनी बोली नहीं आकर कभी नदिया किनारे
बाँसुरी पर गीत कोई युग युगों से गा रहा है

लिख गईं थीं रोशनी की सलवटों पर जो कहानी
शेष अब बाकी नहीं है कोई भी उनकी निशानी
तूलिकाऒं ने अंधेरों का रँगा था भाल जिससे
साथ है बस टूटती इक आस की ढलती जवानी

जीत कर बाजी ठठाता हँस रहा तम का दु:शासन
वर्तिका के चीर को पल पल निगलता जा रहा है

धुन्ध की परछाईयों ने चित्र जितने भी बनाये
डूब कर वे रह गये हैं बस कुहासों में नहाये
दर्पणों की चाँदनी को लग गया शायद ग्रहण है
बिम्ब बनते ही नहीं है चाहे जितना भी बनाये

खो गई आवाज़ की हर गूँज गहरी घटियों में
एक सन्नाटा घनेरा लौट कर बस आ रहा है

रात दिन सारे कटे हैं रश्मियों के तीर सहते
और आवारा हवाओं के झकोरों साथ बहते
होंठ पर ताले लगाये ज़िन्दगी के शासकों ने
हो नहीं संभव सका कुछ भी किसी से बात कहते

जो सुधा समझे हुए हम आचमन करते रहे हैं
वह गले को बन हलाहल नील करता जा रहा है

राह के इक मोड़ पर कब से खड़ा हूँ

एक पागल और सूनी सी प्रतीक्षा के दिये को
मैं जला कर राह के इक मोड़ पर कब से खड़ा हूँ

सो गई है गूँज कर अब चाप भी अन्तिम पगों की
पाखियों ने ले लिये हैं आसरे भी नीड़ जाकर
धूप की बूढ़ी किरण, थक दूर पीछे रह गई है
और चरवाहा गया है लौट घर बन्सी बजाकर

पर लिये विश्वास की इक बूँद भर कर अंजलि में
मैं किसी के दर्शनों की ज़िद लिये मन में अड़ा हूँ

आ क्षितिज पर रुक गया है रात का पहला सितारा
जुगनुओं की सैकड़ों कन्दील जलने लग गई हैं
धार तट की बात तन्मय हो लगी सुनने निरन्तर
शाख पर की पत्तियां करवट बदलने लग गई हैं

आस वह इक स्पर्श पाये पाटलों जैसा सुकोमल
ओस बन कर मैं सदा जिसके लिये पल पल झड़ा हूँ

लग गया चौपाल पर हुक्का निरन्तर गुड़गुड़ाने
छेड़ दी आलाव पर दरवेश ने आकर कहानी
भक्त लौटे देव की दहलीज पर माथा टिका कर
जग गई है नींद से अँगड़ाई लेकर रातरानी

दृष्टि का विस्तार फिर भी हो असीमित रह गया है
सीढ़ियां, सीमायें देने के लिये कितनी चढ़ा हूँ

उभरे आ संशय के साये

काढ़ रहे थे रांगोली तो अभिलाषा की सांझ सकारे
रंग भरा तो न जाने क्यों उभरे आ संशय के साये

संकल्पों के वटवृक्षों की जड़ें खोखली ही थीं शायद
रहे सींचते निशा दिवस हम उनको अपने अनुरागों से
जुड़े हुए सम्बन्धों के जो सिरे रहे थे बँध कर उनसे
एक एक कर टूट गये वे सहसा ही कच्चे धागों से

रागिनियों ने आरोहित होते स्वर की उंगली को छोड़ा
रहे तड़पते शब्द न लेकिन फिर से होठों पर चढ़ पाये

सपनों का शिल्पित हो जाना, होता सोचा सिर्फ़ कहानी
असम्भाव्य कुछ हो सकता है बातें ये भी कभी न मानी
इसीलिये जब हुआ अकल्पित,ढलीं मान्यतायें सब मन की
अटकी रही कंठ के गलियारे में, मुखरित हुई न वाणी

जाने क्यों यह लगा छलावा है कुछ सत्य नहीं है इनमें
दरवाजे पर आकर पुरबाई ने जितने गीत सुनाये

विश्वासों के प्रासादों की नींव रखी थी गई जहाँ पर
सिकता थी सागर के तट की, या फिर थे मरुथल रेतीले
बन न सकी दीवार, उठाती कंगूरों का बोझा कांधे
और सीढ़ियां थी सम्मुख जो, उनके थे पादान लचीले

निश्चय तो था अवसर पाते, भर लेंगे अम्बर बाँहों में
लेकिन हुई परिस्थिति ऐसी, हाथ नहीं आगे बढ़ पाये

आईने का सत्य, सदा स्वीकार रहे, क्या है आवश्यक
जितने अक्स दिखें थे उनमें कोई परिचय मिला नहीं था
आशाओं के गुलदस्ते में कलियां यों तो लगीं हज़ारों
लेकिन उनके मध्य एक भी फूल मिल सका खिला नहीं था

रहे प्रवाहित पूरी होती हुईं कामनाओं के निर्झर
चित्रलिखित हम खड़े रह गये, आंजुर एक नहीं भर पाये

पखेरू याद वाले

सांझ आई हो गये जब सुरमई दिन के उजाले
खिड़कियों पर आ गये उड़ कर पखेरू याद वाले

छेड़ दी आलाव पर सारंगियों ने फिर कहानी
चंग बमलहरी बजाने लग गये फिर गीत गा कर
बिछ गईं नजरें बनी कालीन आगंतुक पगों को
स्वप्न के दरवेश नभ में आ गये पंक्ति बनाकर

कुछ सितारे झिलमिलाये ओढ़ कर आभा नई सी
ज्यों किसी नीहारिका ने झील में धोकर निकाले

वे विभायें झांकती सी चूनरी से चन्द्रमा की
नैन में अंगड़ाईयां लेती हजारों कल्पनायें
पा बयारी स्पर्श रह रह थरथराता गात कोमल
पूर्णता पाती हुइ मन की कुंआरी भावनायें

और मुख को चूमते रह रह उमड़ते केश काले
खिड़कियों पर आ गये उड़ कर पखेरू याद वाले

गंध की बरसात करते वे खिले गेंदा चमेली
आरती की गूँज, गाती भोर की बन कर सहेली
मंत्र की ध्वनियां नदी के तीर पर लहरें बनाती
नीर से भीगी हिना के रंग में डूबी हथेली

तारकों की छांह से वे ओस के भरते पियाले
खिड़कियों पर आ गये उड़ कर पखेरू याद वाले

वह तो मेरा गीत नहीं था

लगे उमड़ने आशंका के बादल मन के नील गगन पर
जिसे संवारा तुमने स्वर से वह तो मेरा गीत नहीं था

नैन हुए अभ्यस्त देखते टूट बिखरते बनते सपने
पथ को ज्ञात न पदरज कोई उसे नया जीवन द्वे देगी
छत को विदित न कोई कागा बैठेगा आकर मुंड़ेर पर
मेघदूत की अभिलाषा में अंगनाई पल पल तरसेगी

आशा बनी गोपिका फिर भी भटकी है मथुरा गोकुल में
पर कान्हा के कर से बिखरा मिला उसे नवनीत नहीं था

रोष बिखरता है उपवन में अक्सर ही पतझड़ का आकर
रह जाती है लहर घाट पर अंतिम सीढ़ी से नीचे ही
गूँज, आरती में बजते शंखों की अर्थहीन रह जाती
साथ नहीं देती है दीपक की लौ उसका बनी सनेही

धूप पिरोकर आकांक्षा ने खिला दिये हैं गमलों में जो
सूर्यमुखी के फूलों का कोई भी पाटल पीत नहीं था

जलतरंग, सारंगी, वीणा, मांझी गीत और अलगोजे
डमरू.ढपली, तबला, तासे बजे ताल दे सरगम के संग
धुन सरोद की ले सितार ने रह रह छेड़ा पैंजनियों को
खिला नहीं मल्हारों वाला आकर लेकिन कोई मौसम

आरोहों में अवरोहों में झंकारें थीं, सुर सरगम थी
लेकिन फिर भी बजा शोर ही, वह कोई संगीत नहीं था

पीर मन की बोलती तो है, मगर गाती नहीं है

गूँजती स्वर मॆं सिसक कर
आँख से बहती निकल कर
पीर मन की बोलती तो है, मगर गाती नहीं है

और पल उल्लास के वे
हास के परिहास के वे
याद उनकी एक पल को लौट कर आती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है

अनमने होकर निपटते हैं दिवस के प्रहर सारे
और खालीपन लपेटे देह को संध्या सकारे
सात घोड़े सूर्य के रथ के चुनें विपरीत पथ को
रात भी आती नहीं है, सांझ कितना पथ निहारे

दीप आतुर जल सके वो
बात कोई कर सके वो
किन्तु सूखी शाख पर इक मंजरी आती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है

सिलसिले भी खत्म होते हैं नहीं तन्हाईयों के
धुन्ध पीती जा रही आकार भी पर्छाईयों के
बेड़ियां बनत्ते पगों की लुम्बिनी के राजद्वारे
ढूँढ़ते पहचान स्वर भी गूँजती शहनाईयों के

अर्थ की दुश्वारियाँ हैं
बुझ रही चिंगारिया है
मिल रहे हैं जो दिये, उनमें कोई बाती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है

हाथ से जब छूट जाते हैं सिरे भी उंगलियों के
और नभ पर से बरसते तीर ही जब बिजलियों के
लिख रहे थे जो सुनहरी रागिनी पुरबाईयों पर
टूट बिखराने लगें वे पंख भी जब तितलियों के

उस घड़ी की छटपटाहट
और मन की सुगबुगाहट
करवटें लेती निरंतर, सो मगर पाती नहीं है
पीर मन की बोलती तो है मगर गाती नहीं है

फिर अधूरा रहा स्वप्न का चित्र वह

आस हर एक जब अजनबी हो गई
रेख जब भाग्य की धुंध में घुल गई
सांस जब धड़कनों से झगड़ती हुई
अपनी ज़िद पे अड़ी, रार पर तुल गई
सिन्धु गहरा निराशा का लहरा हुआ
पीर बन मंदराचल घुमड़ने लगी
कामना थी कि नवनीत मिल जायेगा
अश्रु की आंख से बस झड़ी तब लगी

और फिर हाथ की मुट्ठियों से रिसा
नीर था भूमि में जा सिमटता रहा
फिर अधूरा रहा स्वप्न का चित्र वह,
आज तक रंग मैं जिसमें भरता रहा

एक गंगाजली को लिये था तिमिर
जब उठाई कसम थी रहे साथ में
इसलिये साथ अपना निभाता रहा
सांझ में, भोर में, दोपहर, रात में
एक पल को विलग हो न पाया कभी
सूर्य के तीर जितने चले, व्यर्थ थे
चाँदनी की गली से निकाले गये
दीप सारे अंधेरे के अभ्यस्त थे

और फिर तारकों ने पिघल कर जिसे
था भरा वो गगन दीप हो न सका
इसलिये रात की ड्योढ़ियों से फिसल
सिर्फ़ तम ही गली में था झरता रहा

एक सन्दर्भ से सिलसिले जब जुड़े
चन्द पौधे पनपने लगे आस के
अर्थ की गंध में थे नहाये हुए
फूल हँसते हुए एक विश्वास के
आंधियों ने दिखा पर दिया आईना
शेष कुछ भी नहीं बाग में रह गया
शब्द आकर लटक तो अधर से गया
ज्ञात हो न सका कौन था कह गया

टूटते भ्रम गये स्वर की सीमाओं के,
ज्ञात होने लगा कोई सुनता नहीं
शब्द होकर बहूटी, हवा की तनी
उंगलियां देख, होठों पे मरता रहा

कर्मण्यवाधिकारस्ते

शब्दों में जब सिमट न पाईं अन्तर्मन में उगी व्यथायें
तब हमने उल्लास बिखेरा है राहों में गाते हँसते

सुना, कमन्दें टूटा करतीं हैं छत की सीमा से पहले
और ठोकरें दुलरातीं पग आँगन की देहरी पर आकर
बिखरा जाती पांखुर पांखुर कलिकाओं की खिलते खिलते
और भोर में ही भटकाया करता राहें निकल दिवाकर

रहा सूत भर दूर सदा ही, अथक प्रयासों का हर प्रतिफ़ल
निष्ठा देती किन्तु दिलासा, है कर्मण्यवाधिकारस्ते

स्वप्न स्वप्न ही तो होते हैं, उम्र उषा के मुस्काने तक
चाहे कितने फ़ुंदने बाँधें आशाओं के चूनरिया में
खुले हाथ को मुट्ठी कहकर, भ्रम में रँगकर चेहरा जीते
संचय कहाँ शिवाले वाली हो पाता है गागरिया में

लेकिन आदत की लाचारी ले जाती पग उन राहों पर
जो जाती हैं कभी सुना था, जहां आस के नूपुर बजते

जीवन भरा विसंगतियों से ज्ञात मुझे है तुम भी जानो
पंथ समन्वय के पर चलते रहना होता आवश्यक है
समतल राहों पर बोयी जाती हैं जब फ़सलें मनमानी
गंतव्यों के पथ का कण कण होने लगता तब बाधक है

उस नगरी के गलियारों में सम्बन्धों की लुटती पूँजी
जहाँ स्वार्थ की दूकानों पर भाव बिका करते हैं सस्ते.

कोई भी अंकुर न फ़ूटा

ढली सांझ से उगी भोर तक, बोते रहे आंख में आंसू
बीती रात. स्वप्न का लेकिन कोई भी अंकुर न फ़ूटा

तारों की झिलमिली छांह में पीड़ा के पैबन्द लगा कर
टूती तस्वीरों की किरचों को बरौनियों पर अटका कर
सांसों ने धड़कन के संग मिल पल पल सींचा देखा भाला
आशाओं का पुष्प गुच्छ् था पलकों पर ला रखा सजा कर

लेकिन सूखे का शिकार हो गई मिलन के पल की बदली
राहों से सम्बन्ध जुड़ सके , इससे पहले ही था टूटा

प्राची के पनघट पर बैठी रही प्रतीक्षा एक रात भर
बुनती रही किरण की डोरी अभिलाषा का सूत कात कर
सन्देशों के पाखी निकले नहीं नीड़ की सीमाओं से
रूठे रहे अनकही अधरों पर थी अटकी किसी बात पर

और धुन्ध के दावानल का यों विस्तार बढ़ा सहसा ही
एक एक कर लीन हो गया रँगा हाथ का हर इक बूटा

बूँद बूँद कर झरी चाँदनी घुली टपकते सन्नाटे में
अटका रहा चाँद सागर के तट पर खड़ा ज्वार-भाटे में
नीर भरी थाली,झीनी चूनर,चलनी, रेशम की जाली
सबका विक्रय हुआ एक ही साथ,हुआ लेकिन घाटे में

और एक व्यापारी जो था गया पास का सब खरीद कर
उसका नाम पता जो कुछ था वह सारा ही निकला झूठा

भर भर कलश उलीचे नभ की गंगाओं ने उगी प्यास में
परछाईं का विलय हो गया अँगड़ाई लेते उजास में
खंडित होकर ढहीं मूर्तियां खड़े हुए निस्तब्ध मौन की
रही सिमटती निधि सांसों की, क्षीण हो रहे उच्छवास में

रही पूछती प्रश्न निरन्तर लदी पीठ पर रीती गठरी
किस धड़कन ने आखिर अपना कोष स्वयं ही आकर लूटा

जब अंधेरे ही उगलते हैं दॄगों के दीप

जब अंधेरे ही उगलते हैं दॄगों के दीप जलते
तो कहाँ संभावना है लेखनी से जन्म गीतों को मिलेगा
और जब ॠतुराज की डाली बसेरा बन गई है कीकरों का
तो कहाँ यौवन कभी कचनार कलियों का खिलेगा ?

देखने के वास्ते यों तो बगीचा खिल रहा दिखता सदा है
पर जड़ों को चूमती हैं दीमकें ये कौन जाना
शाख पर के मुस्कुराते पात पर टिक कर रुकीं अभ्यस्त नजरें
किन्तु क्या परछाईयों पर है लिखा रहता अजाना
ढूँढ़ती हैं भित्तिचित्रों पर टँगी जो कौड़ियों में कुछ निगाहें
आस है पहचान पाने की न जाने क्या यही बस सोचती हैं
द्वार पर आते हुए हैं संदली पथ से निकल कर जो हवाओं के झकोरे
चाहते रुकना मगर आदत उन्हें रुकने न देती टोकती है

होंठ का रह रह उगलना शब्द बेअर्थी , मगर इच्छा जगाना
एक पल के ही लिये कोई कभी तो छन्द में , इनको सिलेगा

शब्द ने विद्रोह की ठानी हुई है भावनाओं के नगर में
और कोई भी समन्वय की दिशा दिखती नहीं है दूर तक भी
पोटली अनुभूतियों की लग रहा है कोई आ फिर फिर कुतरता
छिन गई है शीश पर से एक जो थी छिरछिरी सी ओढ़नी भी
राह ने पाथेय के सब चिन्ह अपने आप में रक्खे छुपाकर
और इक विश्राम का पल भी डगर की धूल में ला भर दिया है
लग रहा है रात ने जितने रचे षड़यंत्र वे सारे सफ़ल हैं
रोशनी की छटपटाती हर किरण को पी रहा जलता दिया है

राह की बढ़ती विहंगमता अचानक बन गई आनन अहिन मां का लगा है
और पग है लड़खड़ाता काँपता डरता हुआ कैसे उठेगा

बढ़ रही इक अजनबियत के दायरे में घिर गई. सहमी हुई संभावनायें
छटपटाती, कसमसाती, लग रहा ज्यों हर घड़ी दम तोड़ती हैं
चाहना की चादरें उमड़े हुए कुछ बादलों से युद्ध करती जीर्ण होकर
एक पल की छांह के विश्वास का दामन निरन्तर छोड़ती हैं
टूट कर बिखरा गईं सौगन्ध जो थी बन्द आधी मुट्ठियों में
और जो जोड़े हुए सम्बन्ध थे वे आज मतलब खो गये है
थीं महत्वाकाँक्षायें सर उठातीं भोर की उंगली पकड़ कर
सर पटकतीं. जो सिरे को थामते वे हाथ असफ़ल हो गये हैं

रोष में भरकर खड़ा है आज पतझर पांव अंगद का बना सा वाटिका में
और लगता है यहां पर फूल अब कोई नहीं उग कर खिलेगा.

चांदनी से धुले रात के पॄष्ठ पर

स्वप्न की जो कहानी नयन ने लिखी, चांदनी से धुले रात के पॄष्ठ पर
आज वह आपकी याद को छू गई, गीत बन कर नया गुनगुनाने लगी

कुछ सितारे पिघलते हुए रंग में कैनवस को गगन के सजाते रहे
कुछ निखरती हुई ओस में मिल गये, पाटलों को मधुर आ बनातेरहे
नभ की मंदाकिनी में लगा डुबकियाँ, एक नीहारिका खिलखिलाने लगी
राशि के चक्र की आ धुरी पर रुके,रोशनी में ढले जगमगाते रहे

ज्योति के अग्निमय पंथ पर जा खड़े बिन्दु थे ध्यान के स्वर्णवर्णी हुए
दॄष्टि के पारसों का परस जो मिला हर कली ध्यान की मुस्कुराने लगी

गंध निशिगंध की चूनरी से उड़ी, लिख कथानक गई भोर के पंथ का
वीथियॊं में उभरते रहे पत्र वे, जिनपे लिक्खा हुआ प्रीत अनुबन्ध था
कल्पना बादलों सी उमड़ते हुए आप ही आप को शिल्प देने लगी
बन पथिक आज मौसम चला झूमता, खाई गंगा किनारे की सौगन्ध सा

अंजलि में भरे निर्णयों के निमिष, आपकी दॄष्टि के पारसों से मिले
तो समय की शिला निश्चयों पे टिकी,सूखा पत्ता बनी डगमगाने लगी

चूड़ियों से छिटकती हुई रश्मियों ने रँगे चित्र आकर नये सांझ के
कंगनों ने खनकते हुए लिख दिये चन्द अध्याय, पायल पे आवाज़ के
नथनियों में थिरकते हुए मोतियों ने लिये चूम आकर गुलाबी अधर
कनखियों में उलझती हया ने लिखे चिन्ह शब्दों में जितने छुपे राज के

तुलसियों के वनों से उठी गूँज कर बांसुरी की धुनें कुछ भटकते हुए
आपकी पैंजनी से गले जो मिली, नॄत्य करते हुए झनझनाने लगीं

बन सुधा अंगनाईयों में प्राण की झरता रहेगा

भोर की पहली किरण जब गा चुके वाराणसी में
सांझ थक कर बैठ जाये वीथियों में जब अवध की
बौर सब अमराईयों के बीन कर ले जाये पतझड़
शब्द रखवाला स्वयं ही लूट ले पूँजी शपथ की

प्राण सलिले ! प्रीत का विश्वास उस पल में निरंतर
हर अंधेरी रात में दीपक बना जलता रहेगा

राह में झझायें आकर हों खड़ी बाँहे पसारे
वॄष्टि का आवेग कर दे जब प्लावित दॄश्य सारे
हर कदम दावानलों ने गोद में अपनी रखा हो
बीतने लगते सभी दिन हों लगे जब अनगुजारे

चन्द्रबदने ! नैन पाटल पर उभरता प्रीत का पल
बन सुधा अंगनाईयों में प्राण की झरता रहेगा

जब तिमिर का एक धागा चादरों सा फ़ैल जाये
गुनगुनाहट इक विहग की शोर का आकार ले ले
जब घिरें बदरंग कोहरे, पंथ में आ संशयों के
भोर संध्या औ’ दुपहरी, आ निराशा द्वार खेले

स्वर्णवर्णे ! प्रीत की उस पल सुरभि का स्पर्श पाकर
वेदना का हिम, सहज कर्पूर सा उड़त रहेगा

लील जाये जब हथेली ही स्वयं अपनी लकीरें
मील का पत्थर निगल कर राह को जब खिलखिलाये
बादलों को कैद कर ले जब क्षितिज के पार अम्बर
और बस निस्तब्धता ही ज़िन्दगी का गीत गाये

कोकिले ! तब शब्द का विन्यास सुर से स्वर मिला कर
मौन के साम्राज्य से संघर्ष कर लड़ता रहेगा

कहो तो कौन हो तुम

जो जलधि ने देव को सौंपा, वही उपहार हो तुम ?
जो मणी बन ईश के सीने लगा गलहार हो तुम ?
क्या लहर हो तुम उठी नभ की किसी मंदाकिनी की
प्रीत का बन स्वप्न आँखों में बसा संसार हो तुम ?

बन्द हौं आँखें खुली हों चित्र बनते हैं तुम्हारे
किन्तु अब तक जान मैं पाया नहीं हूँ कौन हो तुम

मात्रा हो अक्षरों को जोड़ कर जो शब्द करती ?
तॄप्ति हो जो प्यास के सूखे अधर पर है बरसती ?
हो सुरभि क्या?पुष्प की पहचान का कारण बनी जो
या सुधा हो जो तुहिन कण सी निशा से प्रात झरती

हो असर डाले हुए अनुभूतियों पर इक अनूठा
धूप की परछाईं बन कर चल रही हो कौन हो तुम

क्या वही तुम जो निरन्तर है मधुप से बात करती ?
क्या वही तुम भोर जिसके साथ प्राची में सँवरती ?
क्या तुम्ही को केश पर शिव ने सजाया धार कर के
या कि जो अलकापुरी का है सहज श्रॄंगार करती ?

बन रहे हैं मिट रहे हैं सैंकड़ों आकार प्रतिपल
ओढ़ न पाता तुम्हारा नाम कोई, कौन हो तुम ?

ज्योत्स्ना हो तुम चली नीहारिकाओं की गली से
गंध हो उमड़ी हुई अँगड़ाईयां लेकर कली से
तार पर वीणाओं के झंकॄत हुई झंकार हो तुम
नीर की हो बूँद छिटकी अर्चना की अंजली से

झिलमिलाते रंग अनगिन रश्मियों की उंगलियों से
पर न कोई रंग तुमसा है, कहो तो कौन हो तुम

बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद पेड़ पर आकर बैठी सोनचिरैय्या
बहुत दिनों के बाद बांसुरी से गूंजे हैं सरगम के सुर

बहुत दिनों के बाद आज इक आया है भटका संदेसा
पुरबाई की अंगड़ाई में गूँथ किसी ने जो था भेजा
बहुत दिनों के बाद करवटें लेकर जागीं सोई शपथें
बहुत दिनों के बाद आज कुछ व्यस्त हुआ मन का रंगरेजा

घुले धुंधलकों में से उभरा चित्र नया कोई सहसा ही
बहुत दिनों के बाद स्वप्न हैं हुए नयन छूने को आतुर

अरसे बाद दूब ने थामा हाथ ओस का हाथ बढ़ाकर
ले मरीचिकायें अपने संग गये उमड़ते मेघ उड़ाकर
बहुत दिनों के बाद आज फिर लहराई रंगीन चुनरिया
बहुत दिनों के बाद पपीहा मचला भंवरे के संग गाकर

बहुत दिनों के बाद पखारे चरण स्वयं के आज उसी ने
मंदिर मंदिर घूम रही थी भरी नीर की जो इक आंजुर

बहुत दिनों के बाद आज फिर बोला है मुंड़ेर पर कागा
बहुत दिनों के बाद बँधा है बरगद पर मन्नत का धागा
बहुत दिनों के बाद नदी ने छेड़ी है तट पर सारंगी
बहुत दिनोंके बाद समय का सोया हुआ प्रहर इक जागा

बहुत दिनों के बाद आज उन शब्दों ने पाई परिभाषा
बन्द पुस्तकों में जो रहते बने फूल की सूखी पांखुर

बहुत दिनों के बाद गीत इक गूँजा वीणा के तारों पर
बहुत दिनों के बाद किसी का पिघला है मन मनुहारों पर
बहुत दिनों के बाद, महावर ने की हैं मेंहदी से बातें
बहुत दिनों के बाद चढ़ा है रंग निखरता कचनारों पर

बहुत दिनों के बाद चाँदनी झांकी अम्बर की खिड़की से
बहुत दिनों के बाद होठ पर थिरका है स्वीकॄति का माधुर

बहुत दिनों के बाद किसी की यादों का चन्दन महका है
बहुत दिनों के बाद किसी के सपनों का पलाश दहका है
बहुत दिनों के बाद हुई है मन में कोई आस तरंगित
बहुत दिनों के बाद पखेरू बन कर पुलकित मन चहका है

बहुत दिनों के बाद आज फिर बही हवा की उंगली पकड़े
बजने लगे गंध की धुन पर बरखा की फ़ुहार के नूपुर.

उसका चढ़ा सांस पर कर्ज़ चुकाऊँ

सरगम का हर स्वर रह जाता है घुट कर जब रुँधे कंठ में
तब कैसे है संभव अपने गीतों को मैं तुम्हें सुनाऊँ

पा न सका आशीष नीड़ से जब आँखों का कोई सपना
अंगनाई ने नहीं सांत्वना वाला हाथ रखा काँधों पर
छिदों भरी गगन की चादर, नहीं ओढ़नी बन पाई जब
लगे रहे अनगिनती पहरे जब मन की क्वांरी साधों पर

तब जिस टूटी हुई आस ने बढ़ कर मेरी उंगली थामी
सोच रहा हूँ कैसे उसका चढ़ा सांस पर कर्ज़ चुकाऊँ

पनघट के द्वारे से लौटी, आशाओं की रीती गागर
रत्नाकर ने निगले भोली सीपी के सोनहरे सपने
मेघों के उच्छवासों में घुल गईं सावनों की मल्हारें
बातों की कल्पना मात्र से लगे होंठ रह रह कर कँपने

तब मन की सूनी क्यारी में उगी एक कोंपल जो फिर फिर
सोच रहा हूँ कैसे उसका दॄढ़ निश्चय, मैं भी दुहराऊँ

अक्षत पुष्प सभी बिखरे जब सौगंधों के गंगा तीरे
आरति के मंत्रों की ध्वनि से सजी न मन्दिर की अँगनाई
छोड़ गई जब एक दिये को जलता हुआ राह में बाती
समो गई प्राची में ही जब बिखरी नहीं तनिक अरुणाई

उस पल ढहती हुई आस्था के अतिरेकों ने जो सम्बल
दिया, उसे मैं सोच रहा हूँ किस सिंहासन पर बिठलाऊँ

व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू

चाहना तो है पुजू मैं देवता बन कर किसी दिन
चेतना पर कह रही है व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू

आईना तो ज्ञात तुमको झूठ कह सकता नहीं है
ताल में जो रुक गया जल,धार बान सकता नहीं है
मंज़िलों के द्वार तक जाते कहां हैं चिन्ह पथ के
हो गया जड़ जो, कभी गतिमान हो सकता नहीं है

साध तो यह पल रही है रागिनी नूतन रचूँ मैं
चेतना पर कह रही है एक सरगम गा प्रथम तू

जो कि है क्षमता सिमटता सिर्फ़ उतना मुट्ठियों में
ज्ञान की सीमा सदा उलझाये रखती गुत्थियों में
चादरों से बढ़ गये जो बस वही तो पांव ठिठुरे
फ़ूट कब पाते कहो अंकुर बची जो थुड्डियों में


चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू

बालुओं की नींव पर प्रासाद कितनी देर टिकते
और पत्थर भी कहां पर स्वर्ण के हैं भाव बिकते
ज्ञात हो असमर्थता पर चाँद को चाहें पकड़ना
इस तरह विक्षिप्त कितने सामने आ आज दिखते

चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू

दो सौ पचासवीं प्रस्तुति---परिभाषा उस एक निमिष की

परिभाषा उस एक निमिष की खोज रहा हूँ जिस पल तुमने
होठों से न कहते कहते आँखों से मुझको हाँ की थी

वह पल जब शाकुन्तल सपने, सँवरे थे दुष्यन्त नयन में
वह पल देख मेनका को जब विश्वामित्र हुए थे विचलित
वह पल छुआ उर्वशी ने था जब पुरूरवा की नजरों को
वह पल देख लवंगी को जब जगन्नाथ रह गये अचम्भित

परिभाषा मैं ढूँढ़ रहा हूँ रह रह कर उस एक निमिष की
जिस पल नयनों में आ मेरे सँवरी एक छवि बांकी थी

जब राजीवलोचनों में बन चित्र हुई अंकित वैदेही
जब वंशी की धुन ने छेड़ी यमुनातट पर थिरकी पायल
सम्मोहित कर गई शान्तनु को जब उड़ती गंध हवा में
और पुरन्दर के कांधों पर लहराया जब शचि का आँचल

सोच रहा हूँ क्या कह कर मैं आज पुकारूँ उस इक पल को
जब सूरज की रश्मि हटा कर प्राची का घूँघट झांकी थी

वह पल जिसमें कुछ न कहकर तुमने सब कुछ कह डाला था
वह पल जिसने अनजाने ही किया मेरे आगत का सर्जन
शब्दों ने बतलाया संभव नहीं उसे वर्णित कर पाना
जिस पल में सहसा बँध जाते शत सहस्त्र जन्मों के बन्धन

अभिव्यक्ति ने कहा असम्भव व्यक्त करे उस एक निमिष को
जिसमें पूनम बन जाती है जो इक रात अमा की सी थी

वो ही गीत बनी है मेरा

वीणापाणि शारदा ने जो अपने शतदल की इक पांखुर
मुझको सौंपी है, शब्दों में ढल कर गीत बनी है मेरा

यों तो हर मन की क्यारी में फूटे हैं भावों के निर्झर
और कंठ से उपजा करता सहज भावनाओं में ढल स्वर
अक्षर की उंगली को पकड़े सभी प्रकाशित हो न पाते
कुछ लयबद्ध स्वयं ही हो जाते हैं शब्द मात्र को छूकर

आशीषों की अनुकम्पा से कालनिशा का घना अंधेरा
एक रश्मि के आवाहन पर बन जाता है नया सवेरा

अक्षर की पूँजी जो तुमको मिली वही मैने भी पाई
तुमने सब रख लिये कोष में, मैने पास रखे बस ढाई
जो बहार के समाचार को लेकर फिरी बयारे भटकीं
वे सहसा ही कलम चूम कर बनी गंध डूबी पुरबाई

एक तार ने झंकॄत होकर यों सरगम की आंखें खोलीं
सन्नाटे का जो छाया था निमिष मात्र में हटा अंधेरा

फूलों की पांखुर, तितली के पंख, कूचियां चित्रकार की
चूड़ामणि जानकी की जो गढ़े कल्पना स्वर्णकार की
आम्रपालियों के पगनूपुर, वैशाली के कला-शिल्प को
और सूप ने जिन्हें संजोया, सारी बातें गहन सार की

हंसवाहिनी ने जब दे दी दिशा और निर्देशन अपना
तब ही तो स्वयमेव कलम ने इन्हें शब्द में पिरो चितेरा

अभिलाषा की पायल कितनी खनके नॄत्य नहीं सज पाता
पनघट पर आकर भी गागर का तन मन प्यासा रह जाता
शब्दकोष हो, भाव प्रबल हों और शिल्प का ज्ञान पूर्ण हो
फिर भी उसके इंगित के बिन कोई गीत नहीं बन पाता

मानस कमल विहारिणि के ही वरद हस्त की मॄदु छाया ने
सुर शब्दों में रंग कर मन का सोया जागा भाव बिखेरा

मेरा गीत गुनगुनाओगे

लिख तो देता गीत सुनयने, लेकिन एक बार भी तुमने
कहा नहीं है एक गीत भी मेरा, कभी गुनगुनाओगे

लिखता मैं उतरीं संध्यायें जो आकर खंजन नयनों में
अरुण कपोलों पर आकर जो फ़ूले गुलमोहर महके हैं
सीपी की संतानों ने जो रँगा हुआ है मुस्कानों को
रक्तिम अधरों पर यौवन पा कर जितने पलाश दहके हैं

अभिमंत्रित हो गई कलम जिस रूप सुधा का वर्णन करते
एक बार तुम उस में अपना, बिम्ब एक भी झलकाओगे

लिखता स्वर जो करता प्रेरित मस्जिद से उठानी अजान को
जो बन शंख ध्वनि, मंदिर में करता है मंगला आरती
जो मिश्रित है गिरजों से उठते घंटों के तुमुल नाद में
वह स्वर जिससे सावन की झड़ियां अपना तन हैं निखारती

सरगम को जो दे देता है इक अस्तित्व नया, शतरूपे
उस स्वर को अपना सुर देकर और अधिक कुछ चहकाओगे

लिखता वह कल्पना, शब्द जो बनी बही हर एक कलम से
लिखता जो बन गई अजन्ता, छूकर कूची चित्रकार की
वह जिसकी सांसों में चन्दन के वन,तन में वॄन्दावन है
वह जो एक अनूठी कॄति, छैनी से उपजी निराकार की

लिख दूँ उसके गीत, बँधा है, सकल विश्व जिसकी चितवन से
कह दो तुम मेरे शब्दों को पिरो सांस में महकाओगे

आज नये कुछ बिम्ब उभारूँ

आंसू से सिंचित सपनों के अवशेषों पर उगी कोंपलें
मुझसे कहती हैं आँखों में, मैं फिर नूतन स्वप्न संवारूँ

सिर्फ़ काल ही तो निशेश है, बाकी सब कुछ क्षणभंगुर है
संध्या के संग डूबा करता, उगा भोर में जो भी सुर है
एक निमिष की परिभाषायें, बदला करतीं कल्प निगल कर
और रोशनी दिन बन जाती, अंधियारा मुट्ठी में भर कर

यों तो सब कुछ ज्ञात सभी को, लेकिन यादें ताजा करने
मैं इनको रंगों की कूची में भर कर कुछ चित्र निखारूँ

आवाज़ें खो तो जाती हैं, पर अपना अस्तित्व न खोतीं
पा लेना है छुप जाता है जो सीपी के भीतर मोती
प्रतिध्वनियों को अम्बर से टकरा कर लौट पुन: आना है
एक शाश्वत सत्य ! नदी का विलय सिन्धु में हो जाना है

लौटे पुन: जलद में ढल कर, इस तट से गुजरी जो धारा
दिशाबोध का चिन्ह स्वयं को किये, उसे मैं आज पुकारूँ

वहाँ क्षितिज के परे बिन्दु है एक सभी कुछ जो पी जाता
एक दिशा को ही जाता पथ, लौट नहीं है वापिस आताउ
स रहस्य की कथा खोल दूँ एक एक कर अध्यायों में
और नई आशा संचारूँ, थक कर बैठे निरुपायों में

पारायण हो चुकी कथा के जितने चिन्ह अभी बाकी हैं
उन्हें नये संकल्पों के लेने से पहले, उठूँ बुहारूँ

एक ही आशीष बन कर शब्द हर पल गुनगुनाये

शारदा का हो नहीं आशीष तो संभव कहाँ है
कोई भी अक्षर अधर पर आये,आकर खिलखिलाये

शब्द जितने गुंथ गये हैं मोतियों की माल बनकर
हार में नव गीत के, बस एक उंगली की थिरक से
और पत्थर की लकीरों से खुदे सिल पर समय की
भाव वैसे तो रहे भंगुर, रजतवाले वरक से

एक स्वर जो तार की झंकार स उसकी उठा है
है वही जो रागिनी संध्या सवेरे गुनगुनाये

ओस की जो बूँद उसके श्वेत नीरज से झड़ी है
वह बनी इतिहास रच कर भोजपत्रों पर कथायें
एक अनुकम्पा उसी की बीन से उपजे हुए स्वर
या बने पद सूर के, या संत तुलसी गुनगुनाये

एक उसकी दॄष्टि का अनुग्रह बने सूरज दिवस में
और ढल कर तारकों में रात को वह झिलमिलाये

कंठ में उपजा हुआ स्वर, होंठ पर जो शब्द आते
या कि अक्षर में छुपी रचना जिसे हम जान पाते
है उसी भाषा स्वरा की अक्षरा की देन हमको
अन्यथा है कौन सक्षम जो कभी कुछ गुनगुनाये

शब्द भी वह , है वही सुर और वह ही रागिनी है
गीत में संगीत बन कर एक वह ही झनझनाये

दस्तावेज सुरक्षित सारे

गुलमोहर के तले धूप की परछाईं में उस दिन तुमने
अपने अधरों से लिख दीं थीं कुछ शपथें कपोल पर मेरे,
ॠतुएं बदलीं किन्तु दिवस वे अब तक धुंधले हो न सके हैं
मन के लेखागार रखे हैं, दस्तावेज सुरक्षित सारे

चढ़ी किरण की प्रत्यंचा थी, सात रंग की जब कमान पर
अठखेली कर रहीं हवायें बाद्ल से थीं, जब वितान पर
गूँज रहे थे देवालय के पथ में अभिमंत्रित हो जब स्वर
जलतरंग के साथ नदी से बातें करता था इक निर्झर

उस पल झुकी हुई नजरों की रह रह कर उठती चितवन ने
पगनख से जो लिखे धरा पर, संशय की स्याही ले लेकर
उन प्रश्नों के उत्तर बन कर, जो पल ढले गये प्रतिमा में
उस पर ही अटके हैं अब तक ,वर्षों हुए, नयन बजमारे

यों तो बहते हुए समय की धारा सब करती परिवर्तित
वहां मौन अँगड़ाई लेता, जहाँ रहे हों घुंघरू झंकॄत
फूलों वाले नर्म बिछौने, बन जाते पथरीली राहें
सूनापन पीने लगतीं हैं सपने बुनती हुई निगाहें

किन्तु समय के हस्ताक्षर जब अंकित हो जाते पन्नों पर
वे यादों की पुस्तक में जाकर सहसा ही जुड़ जाते हैं
फिर संध्या के थके हुए पग, वापिस नीड़ लौटते हैं जब
पढ़तीं उनको रह रह सुधियाँ खुलते ही आंगन के द्वारे

शरद पूर्णिमा में निखरी हो ताजमहल की जब अंगड़ाई
या गुलाब की क्यारी में हो भटक गई कोई पुरबाई
पनघट की राहों में गूँजा हो आतुर होकर अलगोजा
या फिर कजरी छेड़ रहा हो , नगर चौक में कोई भोपा

ये सब सुरभित कर देते हैं, चेतन की बारादरियों में
टँगे हुए जो भित्तिचित्र हैं,जिनमें दॄश्य सभी वे चित्रित
जब तुम हुए मेरे सहराही, या तुम गिनते थे देहरी पर
तुमसे मिलने और विलगने के जो क्षण थे सांझ सकारे

कभी किसी से सामंजस्य नहीं हो पाया

मंज़िल पथ के दोराहे पर आ कर जब पीछे मुड़ देखा
सूनी राहों पर कदमों का कोई चिन्ह नजर न आया

यूँ तो एक चक्र में बँध कर चलते रहना भी चलना है
निरुद्देश्य भटके पग का भी निश्चित ही गतिमय रहना है
लक्ष्यहीन गति की परिणति तो केवल शून्य हुआ करती है
दूरी को तय करना उस पल इक भ्रम का टूटा सपना है

उगी भोर से ढली सांझ तक चलते हुए निरन्तर पथ में
जहां सजा पाथेय, नीड़ भी आखिर उसी जगह बन पाया

टँगी नित्य ही दीवारों पर चाहत की अनगिन तस्वीरें
कुछ रंगों से सज्जित थीं, कुछ में थी केवल खिंची लकीरें
समझा नहीं किन्तु रंगो का निश्चित होता एक आचरण
उंगली रहे उठाते, अपनी नहीं जाग पाती तकदीरें

जीवन के हर समीकरण का कोई सूत्र अधूरा निकला
इसीलिये तो कभी किसी से सामंजस्य नहीं हो पाया

सुना हुआ था सत्य, गल्प से अधिक अजनबी भी होता है
वही फूल हँसता है घिर कर काँटो में भी जो सोता है
बढ़ा कदम जो आगे वह ही पथ की तय कर पाता दूरी
गठरी हो जिसकी बस वह ही तो अपनी गठरी खोता है

लीकिन हर इक सोचा समझा जाना था हो गया अजनबी
जो समझे थे समझ रहे हैं वह भी कुछ भी समझ न आया

एक कंदील की हो गई रहजनी

स्वप्न सब सो गये सांझ की सेज पर
नैन बैठे रहे नींद के द्वार पर
राह भटका हुआ था कहीं रह गया
चाँद आया नहीं नीम की शाख पर

चाँदनी की सहेली खड़ी मोड़ पर
हाथ में एक कोरा निमंत्रण लिये
लिख न पाई पता, रोशनी के बिना
जुगनुओं के महज टिमटिमाये दिये
शेष चिंगारियां भी नहीं रह गईं
शीत के बुझ चुके एक आलाव में
हर लहर तीर के कोटरों में छुपी
सारी हलचल गई डूब तालाब में

रिक्त ही रह गईं पुष्प की प्यालियाँ
पाँखुरी के परिश्रम वॄथा हो गये
नभ से निकली तो थी ओस की बूँद पर
राह में रुक गई वो किसी तार पर

झाड़ियों के तले कसमसाती हुई
दूब के शुष्क ही रह गये फिर अधर
डोर थामे किरण की उतर न सका
एक तारा तनिक सी सुधा बाँह भर
स्याह चादर लपेटे हुए राह भी
पी गई जो कदम मार्ग में था बढ़ा
रोशनी को ग्रहण था लगाता हुआ
इक दिये का तला मोड़ पर हो खडा

शून्य पीता रहा मौन को ओक से
ओढ़ निस्तब्धता की दुशाला घनी .
सुर का पंछी न कोई उतर आ सका
बीच फैला हुआ फासला पार कर

न तो पहला दिखा और न आखिरी
हर सितारा गगन के परे रह गया
एक कंदील की हो गई रहजनी
कंपकंपाता हुआ इक निमिष कह गया
धुंध रचती रही व्यूह कोहरे से मिल
यों लगे अस्मिता खो चुकी हर दिशा
पोटली में छुपी रह गई भोर भी
देख विस्तार करती हुई यह निशा

हाथ संभव नहीं हाथ को देख ले
चक्र भी थम हया काल का ये लगे
कोई किश्ती नहीं सिन्धु गहरा बहुत
रोशनी का बसेरा है उस पार पर

धूप की रहगुजर से निकलती रही

अर्थ पीती रही शब्द की आंजुरी
और अभिप्राय भी प्रश्न बन रह गये
सारे संवाद घिर कर विवादों पड़े
तर्क आधार बिन धार में बह गये
मौन की रस्सियों ने जकड़ कर रखा
छूट स्वर न सका गूँजने के लिये
देहरी सांझ की फिर से सूनी रही
कोई आया नहीं जो जलाता दिये

और फिर नैन की कोर इक दृश्य के
कैनवस के किनारे अटकती रही

नीड़ को लौटते पंछियों के परों
की, हवा फ़ड़फ़ड़ाहट निगलती रही
सांझ चूनर को पंखा बनाये हुए
इक उदासी के चेहरे पे झलती रही
सीढियों में ठिठक कर खड़ी रोशनी
जाये ऊपर या नीचे समझ न सकी
और थी संधि की रेख पर वह खड़ी
न बढ़ी ही उमर और न ढल सकी

कोण को ढूँढ़ते वॄत्त के व्यास में
रोशनी साया बन कर मचलती रही

सरगमें साज के तार में खो गईं
अंतरों से विलग गीत हो रह गये
स्वन के साध ने जो बनाये किले
आह की आंधियों में सभी ढह गये
नैन सर की उमड़ती हुई बाढ़ में
ध्वस्त होती रही सांत्वना की डगर
दॄष्टि के किन्तु आयाम बैठे रहे
आस के अनदिखे अजनबी मोड़ पर

ज़िन्दगी मरुथली प्यास ले हाथ में
धूप की रहगुजर से निकलती रही

गीत ये कहने लगा है शिल्प में ढलना असम्भव

गीत ये कहने लगा है शिल्प में ढलना असम्भव
देख तुमको शब्दहीना हो ठगा सा रह गया है

एक पल में भूल बैठा अंतरों के अर्थ सारे
है संभल पाता नहीं ले मात्राओं के सहारे
कौन सी उपमा उठा कर कौन सी खूँटी सजाये
कर सके कैसे अलंकॄत भाव जो हैं सकपकाये

चाहता कुछ गा सके पर थरथराते होंठ लेकर
मौन के भुजपाश में बस मौन होकर रह गया है

सोचता है धूप कैसे चाँदनी में आज घोले
रिक्त मिलता कोष है, रह रह उसे कितना टटोले
गंध का जो प्राण, उसको गंध कहना क्या उचित है
अंश के विस्तार में सिमटा हुआ सारा गणित है

कोशिशें कर जो बनाया चित्र कोई बादलों पे
एक झोंके सांस के से वो अचानक बह गया है

रात जिसके शीश पर आ केश बन कर के संवरती
भोर की अरुणाई आ कर नित कपोलों पर मचलती
रागिनी आ सीखती है जिन स्वरों से गुनगुनाना
है कहाँ संभव, उन्हें ले छंद कोई बाँध पाना

गीत का यह भ्रम उसे सामर्थ्य है अभिव्यक्तियों की
एक बालू के घरौंदे के सरीखा ढह गया है

पेशानी पर पड़ीं सिलवटें

पेशानी पर पड़ीं सिलवटें कितना गहरा दर्द, बतायें
एक पंक्ति में लिखे हुए हैं कितने ही इतिहास बतायें

सूरज ने खींची कूची से नित्य भाल पर जो रांगोली
मौसम ने हर रोज मनाई आ आ कर दीवाली होली
सिमट गईं पहरों की चादर्बिन्दु बिन्दु के बिखरावों में
कितनी बार पिरोई इनमें सहज गली में गुंजित बोली

जाने कितनी मेघमाल हैं इनमें, हैं कितनी शम्पायें
पेशानी पर पड़ी सिलवटें, कितना गहरा दर्द बतायें

एक रेख बतलाती आंखों के आंसू की लिखी कहानी
और दूसरी समझाती है मुस्कानों पर चढ़ी जवानी
एक बनी दिग्दर्श्क खींचे चलते हुए चित्र परदे पर
और एक में छिपी हुईं हैं कई भावनायें अनजानी

शून्य,शोर,मंगल,क्रन्दन के साथ गर्व है, हैं करुणायें
एक पंक्ति में लिखे हुए हैं कितने ही इतिहास बतायें

अनुभव की ऊंची लपटों में तपा हुआ जीवन का बर्तन"
सामंजस्यों ने टीका कर दिया लगा कर गोपी चन्दन
नजरें थक जाती तलाश कर कुछ भी अब दॄष्टव्य नहीं है
हालातों के साथ किए थे जीवन ने जितने अनुबन्धन

अपने बिम्ब देखती मन को नित अतीत मे लेकर जायें
पेशानी पर पड़ी सिलवटें, इनमें कितना दर्द बतायें

तुम उनवान गज़ल का मेरी बन कर एक बार आओ तो

मीत अगर तुम साथ निभाओ तो फिर गीत एक दो क्या है
मैं सावन बन कर गीतों की अविरल रिमझिम बरसाऊंगा

मीत तुम्ही तो भरते आये शब्दों से यह रीती झोली
तुमने ही तो बन्द निशा के घर चन्दा की खिड़की खोली
तुमने मन की दीवारों को भित्तिचित्र के अर्थ दिये हैं
सुधियों की प्यासी राहों में तुमने अगिन सुधायें घोलीं

तुम अपनी यों स्नेह-सुधा से करते रहो मुझे सिंचित तो
क्यारी क्यारी में छंदों के सुर्भित फूल उगा जाऊंगा

तुम दे दो विश्वास मुझे, मैं चन्दा बुला धरा पर लाऊं
दे दो रंग, तूलिका बन कर मैं पुरबाई को रँग जाऊं
एक इशारा दो दीपक में जलूं शिखा बन कर मैं खुद ही
तुम तट बन कर साथ निभाऒ, मैं लहरों के सुर में गाऊं

तुम जो देते रहो दिशायें तो मैं नई राह पर चल कर
पद चिन्हों के प्रतिमानों को नये अर्थ दे कर जाऊंगा

यौं है विदित ह्रदय के मेरे प्रतिपल साथ रहा करते हो
लेकिन होठों की वाणी से यह व्यवहार नहीं करते हो
एक दिवस अपने शब्दों में मेरा नाम पिरो भी दोगे
जिसको नयनों की भाषा में कहते हुए नहीं थकते हि

तुम उनवान गज़ल का मेरी बन कर एक बार आओ तो
सच कहता हूँ मीत सुखन की हर महफ़िल में छा जाऊंगा

जब भी चाहा लिखूँ कहानी

ऐसा हर इक बार हुआ है, जब भी चाहा लिखूँ कहानी
धो जाता है लिखी इबारत बहता हुआ आँख का पानी

डुबो पीर के गंगाजल में मैने सारे शब्द सँवारे
राजपथों से कटी झोंपड़ी की ताकों से भाव उतारे
बिखरे हुअ कथानक पथ में, एक एक कर सभी उठाये
चुन चुन कर अक्षर, घटनाक्रम एक सूत्र में पिरो निखारे

लेकिन इकतारे की पागल भटकी धुन वह कभी न गूँजी
जिसको थाम रही थी मीरा कान्हा की बन कर दीवानी

लिखा कभी सारांश, कभी तो उपन्यास सी लम्बी बातें
कभी अमावस्या का वर्णन, कभी पूर्णिमा वाली रातें
नभ की मंदाकिनियों के तट, श्याम विवर भी धूमकेतु भी
और भाग्य के राशि-पुंज पर अटकीं उल्का की सौगातें

लिखीं भोर से दोपहरी तक, और सांझ की तय कर दूरी
लेकिन पॄष्ठ उठा देखे जब, छाई हुई दिखी वीरानी

दोहराया मैने भी कुंठा, त्रास, भूख बढ़ती बेकारी
विधवा के सपने, अनब्याही सुता देखने की लाचारी
प्रगतिवाद का परिवर्तन का मैने भी जयघोष बजाया
चेहरों पर की चढ़ीं नकाबें, एक एक कर सभी उतारीं

लेकिन जब आईना देखा, तब अपने भी दिखे मुखौटे
और सामने आई अपनी छुपी हुई सारी नादानी

पानी नहीं ठहर पाता है

बोये जाते हैं नयनों में बीज स्वप्न के हर संध्या को
किन्तु निशा के आते आते, माली खुद चुन ले जाता है

पगडंडी के राजपथों से जुड़ते जाने की अभिलाषा
प्रतिपादित करवा देती है सुविधाजनक नई परिभाषा
पनघट की हर सीढ़ी पर जब लगें दिशाओं के ही पहरे
मन मसोस कर रह जाता है रखा कमर पर का घट प्यासा

चौपालों की जलती आंखें सूनापन तकती रहती हैं
वापस आने का आश्वासन भी अब लौट नहीं पाता है

पीपल की हर शाखा चाहे गूलर लगें उसी के ऊपर
सूखा पत्ता राह छोड़ कर नहीं उतरना चाहे भू पर
जड़ का साथ न देता कोई, अगर जरा ऊपर इठता है
सिकुड़ सिमटता है चलती है अगर हवा भी उस को छू कर

अपनी धुन में आगे चढ़ता अक्सर भूल यही करता है
बिसरा देता कटा मूल से ज्यादा देर न टिक पाता है

सपनों के आश्रित रह जाना तो आंखों की है मज़बूरी
रहे बढ़ाते सदा दूब, वॄक्ष निरन्तर अपनी दूरी
सूखी हुई दूब पाकर चिंगारी दावानल बन जाये
तो उसका क्या दोष उमर ही हो जाती वॄक्षों की पूरी

लिखा हुआ है इतिहासों में, और ग्रंथ ने भी समझाया
कच्ची मिट्टी की गागर में पानी नहीं ठहर पाता है

मैने जितना समझा कम था

हर दिन यों तो तुष्टि मिली थी, लेकिन साथ जरा सा गम था
अर्थ तुम्हारी मुस्कानों का, मैने जितना समझा कम था

बिना शब्द के भी बतलाई जाती कितनी बार कहानी
ढाई अक्षर में गाथायें कबिरा ने हर बार बखानी
रावी और चिनावों की लहरों ने जिनको सरगम दी थी
इकतारे पर झंकारा करती थी जो मीरा दीवानी

नीची नजरें किये मिले तुम, उस दिन जब पीपल के नीचे
कुछ ऐसी ही बातों का वह भीना भीना सा मौसम था

गेंदे की पंखुड़ियों पर जब चढ़ते रंग घने मेंहदी के
चेहरे की पूनम में जब जब उभरे है चन्दा बेंदी के
झूमर, पायल, कंगन, टिकुली,बिछुआ, तगड़ी करते बातें
संध्या की चूनर ने बीने तम जब दीपक की पेंदी के

उस पल असमंजस कौतूहल में जो उलझी थी चेतनता
उसका प्रश्न और उत्तर से अनजाना सा इक संगम था


वाणी जब नकार देती है कभी कंठ से मुखरित होना
और हथेली बन जाती है उंगलियों का नर्म बिछौना
नख-क्षत भूमि, दांत में पल्लू, संकोचों के घने भंवर में
डूबा करता तैरा करता सुधियों का इक नव मॄग छौना

होठों की कोरों पर आकर ठिठका, फ़िसला फिर फिर संभला
वह स्मित स्वीकृति वाला था या फिर नजरों को ही भ्रम था

नहीं संभव रहा

नहीं संभव रहा अब लौट कर उस द्वार तक जाना

गली जिसमें हमारे पांव के उगते निशां हर पल
वो पीपल, पात जिसके छांव करते शीश बन आंचल
कुंए की मेंड़ जिसने गागरें प्यासी भरीं अनगिन
वो मंदिर द्वार पर जिसके कभी लगती नहीं आगल

नहीं संभव रहा अब धुन्ध से उनका उभर आना

दिये की लौ, खनकती घंटियां चौपाल की बातें
वो बमलहरी की स्पर्धायें लिये संगीतमय रातें
सुबह की आरती मंगल सिराना दीप नदिया में
हजारों मन्नतों की बरगदों की शाख पर पांतें

नहीं संभव रहा साकार अब वह दॄश्य कर पाना

गली में टेसुआ गाती दशहरे की कोई टोली
संवरती सूत,कीकर,घूघरी से रंगमय होली
रँगे रांगोलियों से वे तिवारे, आंगना, देहरी
शह्द डूबी वो मिश्री की डली जैसी मधुर बोली

नहीं संभव रहा फिर से इन्हें अनुभूत कर पाना
नहीं संभव रहा अब लौट कर उस गांव में जाना

अब सुनिये पॉडकास्ट

कल जो लोग मेरी पॉडकास्ट नहीं सुन पाये, उनके लिए विशेष:


गीत १







गीत २






मेरी पॉडकास्ट : दो गीत


आज सुनिये मेरे दो गीत, मेरी ही अवाज में. यह मेरा पॉडकास्टिंग का प्रयास है, बताईयेगा कैसा लगा?

गीत १



---चाहता हूँ लेखनी को उंगलियों से दूर कर दूँ----




चाहता हूँ आज हर इक शब्द को मैं भूल जाऊँ


चाहता हूँ लेखनी को उंगलियों से दूर कर दूँ /






आज तक मैं इक अजाने पंथ पर चलता रहा हूँ


और हर इक शब्द को सांचा बना ढलता रहा हूँ


आईने का बिम्ब लेकिन आज मुझसे कह गया है


व्यर्थ अब तक मैं स्वयं को आप ही छलता रहा हूँ






सांझ के जिन दर्पणों में रंग लाली ने संवारे


सोचता हूँ आज उनमें रात का मैं रंग भर दूँ






निश्चयों के वॄक्ष उगती भोर के संग संग उगाये


और मरुथल की उमड़ती लहर के घेरे बनाये


ओढ़ कर झंझा खड़े हर इक मरुत का हाथ थामा


मेघ के गर्जन स्वरों में जलतरंगों से बसाये






किन्तु केवल शोर का आभास बन कर रह गया सब


सोचता सब कुछ उठा कर ताक पर मैं आज धर दूँ






कब तलक लिखता रहूँ कठपुतलियों की मैं कहानी


बालपन भूखा, कसकती पीर में सुलगी जवानी


कब तलक उंगली उठाऊँ शासकों के आचरण पर


कब तलक सोचूँ बनेगी एक दिन ये रुत सुहानी






कल्पना के चित्र धुंधले हो गये अब कल्पना में


इसलिये संभव नहीं है स्वप्न को भी कोई घर दूँ












गीत २



---तुम ने मुझे पुकारा प्रियतम---





आँखों के इतिहासों में पल स्वर्णिम होकर जड़े हुए हैं


जब तुमने अभिलाषाओं को मन में मेरे संवारा प्रियतम






लिखी कथा ढाई अक्षर की जब गुलाब की पंखुड़ियों पर


साक्षी जिसका रहा चन्द्रमा, टँगा नीम की अलगनियों पर


खिड़की के पल्ले को पकड़े, रही ताकती किरण दूधिया


लिखे निशा ने गीत नये जब धड़कन की गीतांजलियों पर






अनुभूति के कैनवास पर बिखरे हैं वे इन्द्रधनुष बन


जिन चित्रों के साथ तुम्हारी चूड़ी ने झंकारा प्रियतम






चन्द्रकलायें उगीं कक्ष की जब एकाकी अँगनाई में


साँसों की सरगम लिपटी जब सुधियों वाली शहनाई में


जहां चराचर हुआ एक, न शेष रहा कुछ तुम या मैं भी


हुई साध की पूर्ण प्रतीक्षा, उगी भोर की अरुणाई में






मन की दीवारों पर वे पल एलोरा के चित्र हो गये


अपनी चितवन से पल भर को तुमने मुझे निहारा प्रियतम






आकुलता के आतुरता के हर क्षण ने विराम था पाया


निगल गया हर एक अंधेरा जब अंधियारे का ही साया


मौसम की उन्मुक्त सिहरनें सिमट गईं थीं भुजपाशों में


अधर सुधा ने जब अधरों पर सावन का संगीत बजाया






एक शिला में शिल्पित होकर अमिट हो गया वह मद्दम स्वर


जिसमें नाम पिरोकर मेरा, तुम ने मुझे पुकारा प्रियतम






आलिंगन की कलियां मन में फिर से होने लगीं प्रस्फ़ुटित


अधरों पर फिर प्यास जगी है, अधर सुधा से होने सिंचित


दॄष्टि चाहती है वितान पर वे ही चित्र संजीवित हों फिर


जब पलकों की चौखट थामे, दॄष्टि खड़ी रह गई अचम्भित






फिर से वे पल जी लेने की अभिलाषा उमड़ी है मन में


इसीलिये मौसम को मैने, भेजा कर हरकारा प्रियतम









तुम ने मुझे पुकारा प्रियतम

आँखों के इतिहासों में पल स्वर्णिम होकर जड़े हुए हैं
जब तुमने अभिलाषाओं को मन में मेरे संवारा प्रियतम

लिखी कथा ढाई अक्षर की जब गुलाब की पंखुड़ियों पर
साक्षी जिसका रहा चन्द्रमा, टँगा नीम की अलगनियों पर
खिड़की के पल्ले को पकड़े, रही ताकती किरण दूधिया
लिखे निशा ने गीत नये जब धड़कन की गीतांजलियों पर

अनुभूति के कैनवास पर बिखरे हैं वे इन्द्रधनुष बन
जिन चित्रों के साथ तुम्हारी चूड़ी ने झंकारा प्रियतम

चन्द्रकलायें उगीं कक्ष की जब एकाकी अँगनाई में
साँसों की सरगम लिपटी जब सुधियों वाली शहनाई में
जहां चराचर हुआ एक, न शेष रहा कुछ तुम या मैं भी
हुई साध की पूर्ण प्रतीक्षा, उगी भोर की अरुणाई में

मन की दीवारों पर वे पल एलोरा के चित्र हो गये
अपनी चितवन से पल भर को तुमने मुझे निहारा प्रियतम

आकुलता के आतुरता के हर क्षण ने विराम था पाया
निगल गया हर एक अंधेरा जब अंधियारे का ही साया
मौसम की उन्मुक्त सिहरनें सिमट गईं थीं भुजपाशों में
अधर सुधा ने जब अधरों पर सावन का संगीत बजाया

एक शिला में शिल्पित होकर अमिट हो गया वह मद्दम स्वर
जिसमें नाम पिरोकर मेरा, तुम ने मुझे पुकारा प्रियतम

आलिंगन की कलियां मन में फिर से होने लगीं प्रस्फ़ुटित
अधरों पर फिर प्यास जगी है, अधर सुधा से होने सिंचित
दॄष्टि चाहती है वितान पर वे ही चित्र संजीवित हों फिर
जब पलकों की चौखट थामे, दॄष्टि खड़ी रह गई अचम्भित

फिर से वे पल जी लेने की अभिलाषा उमड़ी है मन में
इसीलिये मौसम को मैने, भेजा कर हरकारा प्रियतम

चाहता हूँ लेखनी को उंगलियों से दूर कर दूँ

चाहता हूँ आज हर इक शब्द को मैं भूल जाऊँ
चाहता हूँ लेखनी को उंगलियों से दूर कर दूँ

आज तक मैं इक अजाने पंथ पर चलता रहा हूँ
और हर इक शब्द को सांचा बना ढलता रहा हूँ
आईने का बिम्ब लेकिन आज मुझसे कह गया है
व्यर्थ अब तक मैं स्वयं को आप ही छलता रहा हूँ

सांझ के जिन दर्पणों में रंग लाली ने संवारे
सोचता हूँ आज उनमें रात का मैं रंग भर दूँ

निश्चयों के वॄक्ष उगती भोर के संग संग उगाये
और मरुथल की उमड़ती लहर के घेरे बनाये
ओढ़ कर झंझा खड़े हर इक मरुत का हाथ थामा
मेघ के गर्जन स्वरों में जलतरंगों से बसाये

किन्तु केवल शोर का आभास बन कर रह गया सब
सोचता सब कुछ उठा कर ताक पर मैं आज धर दूँ

कब तलक लिखता रहूँ कठपुतलियों की मैं कहानी
बालपन भूखा, कसकती पीर में सुलगी जवानी
कब तलक उंगली उठाऊँ शासकों के आचरण पर
कब तलक सोचूँ बनेगी एक दिन ये रुत सुहानी

कल्पना के चित्र धुंधले हो गये अब कल्पना में
इसलिये संभव नहीं है स्वप्न को भी कोई घर दूँ

खिले गीत के छंद

छलक रही शब्दों की गागर
संध्या भोर और निशि-वासर
दोहे, मुक्तक और सवैये, खिले गीत के छंद
घुलने लगा कंठ में सुरभित पुष्पों का मकरंद

भरने लगा आंजुरि मे अनुभूति का गंगाजल
लगा लिपटने संध्या से आ मॆंहदी का आँचल
ऊसर वाले फूलों में ले खुश्बू अँगड़ाई
मरुथल के पनघट पर बरसा सावन का बादल

करने लगी बयारें, पत्रों से नूतन अनुबंध
दोहे मुक्तक और सवैये, खिले गीत के छंद

लहराई वादी में यादों की चूनर धानी
नदिया लगी उछलने तट पर होकर दीवानी
सुर से बँधी पपीहे के बौराई अमराई
हुए वावले गुलमोहर अब करते मनमानी

वन-उपवन में अमलतास की भटकन है स्वच्छंद
घुलने लगा कंठ में सुरभित पुष्पों का मकरंद

रसिये गाने लगीं मत्त भादों की मल्हारें
अँगनाई से हंस हंस बातें करतीं दीवारें
रंग लाज का नॄत्य करे आरक्त कपोलों पर
स्वयं रूठ कर स्वयं मनायें खुद को मनुहारें

एक एक कर लगे टूटने मन के सब प्रतिबंध
दोहे मुक्तक और सवैये, खिले गीत के छंद

नाम वह एक नि:शेष हो रह गया,

भोर की गुनगुनी धूप ने लिख दिया ओस की बूँद पर स्वर्ण से नाम जो
चेतना को विमोहित किये है रहा रात के और दिन के हर इक याम वो
धड़कनों से जुड़ा, सांस में मिल बहा, राग में रागिनी में बजा है वही
नाम वह एक नि:शेष हो रह गया, और भूला ह्रदय शेष हर नाम को
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ज्ञान की पुस्तकें धर्म के ग्रंथ सब बात हमको यही बस बताते रहे
प्राप्त उनको अभीप्शित हुआ है सदा दीप जो साधना का जलाते रहे
आपका पायें सामीप्य, यह ध्येय है, इसलिये अनुसरण कर कलासाधिके
आपके नाम को मंत्र करते हुए भोर से सांझ तक गुनगुनाते रहे

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जब भी परछाईयाँ आईने में बनीं, आपका चित्र बन झिलमिलाती रहीं
होंठ पर आ थिरकने लगीं सिहरनें, पंखड़ी की तरह थरथराने लगीं
आपकी गंध लेकर हवा जो चली, द्वार मेरे खड़ी गुनगुइनाती रही
पल सभी आपके थे, रहे आपके, धूप आँगन में आई बताती रही

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भोर में नींद के साथ टूटे सपन, रात को फिर से रंगीन हो न सके
पल प्रतीक्षा के सारे रहे मोड़ पर, इसलिये राह को भूल खो न सके
धूप की ठोकरों से गिरे दीप की बाँ को थामने को शिखा न बढ़ी
आपसे दूर हम एक पल क्या हुए फिर निकट आपके और आ न सके

मन पागल कुछ आज न बोले

मन मेरा कुछ आज न बोले

आशाओं के गुलदस्ते में सपनो की सतरंगी कलियां
अभिलाषा से सुरभित होती हैं अलसाई देहरी गलियाँ
वॄन्दावन से उमड़ी धुन के साथ ताल मिलती धड़कन की
बाहों में अँगड़ाई लेती सी महकें हैं चन्दन तन की
नूपुर की आवाज़ सरसती रह रह कानों में रस घोले

मन प्रमुदित कुछ आज न बोले

पलकों की कोरों पर आकर संवर रहे नैना कजरारे
पाटल पर बन चित्र खिल रहे, रसमय अधर रंगे रतनारे
करती है आरक्त कपोलों को गुलाब सा, लज्जा आकर
और छेड़ता एक पपीहा पीहू पीहू की धुन गाकर
चित्र एक ही स्वप्न जाग में नयनों के आगे आ डोले

मन पागल कुछ आज न बोले

उंगली छुड़ा कल्पना उड़ती फिर अतीत के गलियारों में
फिर आकंठ डूबती सुधियां प्रथम वाक्य की रसधारों में
पहली दॄष्टि-साधना का वह एक निमिष हीरे सा दमके
स्मॄतियों के विस्तारित नभ में ,बन सूरज पल पल चमके
नये नये आयामों की मंजूषा को अनुभूति खोले

मन हो मगन न कुछ भी बोले

कोई गीत नहीं बन पाया

फूल पिरोते रहे भाव के धागे लेकर रोजाना हम
लेकिन पांखुर पांखुर बिखरीं कोई गीत नहीं बन पाया

अक्षर अक्षर संयोजित कर
शब्द बनाया पंक्ति न बनी
रही भावना-अभिव्यक्ति में
निमिष निमिष पर यहाँ बस ठनी
छंदों की नगरी वाले पथ
छूट गये थे मानचित्र से
और दिशाओं के निर्देशक
ठाने बैठे रहे दुश्मनी

अधरों पर प्रतिबन्ध लगाते रहे नियम सामाजिकता के
जो थी मन में बात, शब्द वह नहीं होंठ पर लेकर आया

जागी हुई कामनाओं के
चित्र नयन में आ बन जाते
और आँख में पलते सपने
आकर सिन्दूरी कर जाते
लेकिन कटु यथार्थ की आंधी
देती जब सुधियों पर दस्तक
महज ताश के पतों जैसे
पलक झपकते ही ढह जाते


सोच रहे थे ढूँढ़ें किस्मत को हम दीप जलाकर पथ में
लेकिन किस्मत, सजा थाल मेम दीप एक भी जल न पाया

अभिलाषा ! सरगम हर दिन को
बैठी रहे बाँह में लेकर
और यामिनी रहे सुहागन
पहने निशिगंधों के जेवर
आशा के अंकुर दुलरावें,
आ आ करके नित्य बहारें
घटा घिरे जब भी आँगन में
बदली रही हमेशा तेवर

जो अपने अनुकूल अर्थ दे, ऐसा शब्दकोश चाहा था
लेकिन जब भी खोला उसको, हर प्रतिकूल अर्थ ही पाया

जिसकी रही प्रतीक्षा, केवल आई नहीं वही

सोम गया, मंगल बुध बीते और रहा गुरु भी एकाकी
शुक्र शनि रवि, एक निमिष भी सुधियों वाली हवा न आई

उड़े कुन्तलों के सायों से नजर बचा कर गईं घटायें
फुलवारी की परछाईं से कन्नी काट, बहारें गुजरीं
सुर की गलियों को सरगम ने गर्दन जरा घुमा न देखा
बिछी रही पतझर के आंगन वाली धूल, धूप में उजरी

झंझाऒं का रोष बिखरता रहा रोज द्वारे चौबारे
जिसकी रही प्रतीक्षा, केवल आई नहीं वही पुरबाई

सावन की शाखों पर बादल आकर नहीं हिंडोले झूले
अमराई, आषाढ़ी स्पर्शों की अभिलाषा लेकर तरसी
कोयलिया के कंठ निबोली, रही घोलती अपने रस को
शहतूती माधुर्यों वाली कोई बदली इधर न बरसी

जाने क्या हो गया, निशा की काली कमली की कजराहट
किरण किरन कर निगल गई है, प्राची की चूनर अरुणाइ

झीलों की लहरों पर आकर तैरे नहीं हंस यादों के
नदिया के तट के पेड़ों पर बातें कोई करे न पाखी
नजरें द्वार खटखटाती हैं देखे और अदेखे सब ही
लेकिन कोई खिड़की तक भी पल्ले खोल नहीं है झांकी

अभिलाषा यों तो उड़ान ले, गई गगन से टकराने को
पंख धूप में झुलस गये तो मुँह की खाये वापस आई

कुछ----- गीतों से परे

अर्थ सावन के उमड़ते बादलों का तो न जाना
न हुआ सन्देश जो था छुप गया, पहचान पाना
किन्तु दीपक प्रीत के विश्वास का तब जल उठा है
जब तुम्हारे होंठ पर गूँजा, लिखा मेरा तराना
-----------------------------------------------------

मैं तुम्हारे नयन के हर चित्र को पहचानता हूँ
और अधरों पर टिका स्वीकार है मैं मानता हूँ
आतुरा तुम हो मेरे भुजपाश में आओ, सिमट लो
किन्तु है संकोच थामे पांव को, मैं जानता हूँ

-----------------------------------------------------------------

क्योंकि करने के लिये है अब न कोई प्रश्न बाकी
इसलिये आकांक्षायें उत्तरों की भी नहीं है
एक पत्थर से भला मैं किसलिये वरदान मांगू
ज़िन्दगी में पत्थरों की जब कमी बिल्कुल नहीं है

---------------------------------------------------------------

पत्थरों को रंग देकर शीश पर हमने सजाया
फूल, अक्षत रोलियों से नित्य पूजा, जल चढ़ाया
सांस के मंत्रों पिरोई धड़कनों की आहुति दी
और ये सोचा नहीं है आज तक, क्या हाथ आया

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नीर की बून्द को तूलिका में पिरो

नीर की बूंद को तूलिका में पिरो
रात में रंग भरती रही चाँदनी

एक इस बून्द को ये विदित कब हुआ
गेह से साथ कितने निमिष का रहे
छोड़ दहलीज को जब चले तो भला
कौन सी धार के साथ मिल कर बहे
जाये मंदिर, रहे आचमन के लिये
एक खारे समन्दर में जा लीन हो
छलछलाये सुलगती हुई पीर में
या कि उमड़े सपन जब भी रंगीन हो

चूड़ियों के सिरे पर टिकी रो पड़े
या कि मुस्काये सिन्दूर संग मानिनी

ओस बन कर गिरे फूल के पात पर
बन के सिहरन कली के बदन में जगे
सीपियों में सजे मोतियों सी संवर
ज्योति बन कर किसी साधना को रँगे
बन हलाहल भरे कंठ में नीलिमा
तॄप्त कर दे कोई प्यास जलती हुई
प्राण संचार दे इक बियावान में
आस बन कर घटा में उमड़ती हुई

वह उमड़ती कभी तोड़ गिरिबन्ध को
तो कभी छेड़ती रागमय रागिनी

चित्रकारी करे, कैनवस कर धरा
रख नियंत्रण चले वक्त की चाल पर
सॄष्टि का पूर्ण आधार बन कर रहे
लिख कहानी अमिट काल के भाल पर
मिल मलय में चढ़े शीश पर ईश के
और प्रक्षाल दे पाहुने पांव को
पनघटॊं की खनकती बने पैंजनी
उग रही भोर में, ढल रही शाम को

सूक्ष्म से एक विस्तार पा कर चले
ज़िन्दगी की बनी ये हुई स्वामिनी

धड़कनें आज विद्रोह करने लगीं

कर रही थी तकाजा निरन्तर कलम
लिख रखूँ मैं नियम चन्द व्यवहार के

धड़कनें आज विद्रोह करने लगीं
तय किया ताल के साथ अब तक सफ़र
सांस की सहचरी बन चली हैं सदा
कोई अपनी नहीं थी बनी रहगुजर
आज नेतॄत्व की कामनायें लिये
पंथ अपना स्वयं ही बनाने लगीं
सांस आवाज़ देती हुई रह गई,
मुड़ के देखा, अंगूठा दिखाने लगीं

और गाता रहा एक भिक्षुक ह्रदय
गीत, कर जोड़ कर उनकी मनुहार के

सांस ने तो किया है समर्पण मगर
अपनी ज़िद पे अड़ी, कुछ भी मानी नहीं
हो विलग कोई अस्तित्व उनका नहीं
सत्य थी बात पर उनने जानी नहीं
कब हुई देह परछाईयों से अलग
कब विलग हो रहा फूल, रसगंध से
सब ही सम्झा थके, मानती ही नहीं
डोर ये है बँधी एक अनुबन्ध से

उँगलियाँ आज अपनी छुड़ा कर चलीं
चेतना के झनकते हुए तार से

आज जन्मांतरों की शपथ भूलकर
चाहती हैं लिखें इक कहानी नई
दूर कितनी चली धार लेकिन, अहो
तोड़ कर बन्धनों को उफ़नती हुई
अग्नि, ईधन बिना शेष कब रह सकी
सीप मोती अकेले कहां बुन सके
चाह है ज़िद को छोड़ें जरा एक पल
और सच्चाई को गौर से सुन सके

एक ज़िद ही निमिष में मिटा डालती
साये फ़ैले घने एक विस्तार के

चान्दनी सरगमों में पिघल कर घुली

एक ॠतुराज के पुष्प शर से झरी, पांखुरी देह धर सामने आ गई
चान्दनी सरगमों में पिघल कर घुली राग में शब्द को ढाल कर गा गई
जो कला मूर्त्तियों में ढली थी खड़ी, आज परदा स्वयं पर गिराने लगी
आपकी एक छवि कल्पना से निकल, दॄष्टि के पाटलों पे जो लहरा गई

चित्र जितने अजन्ता की दीवार पर थे टँगे देखते देखते रह गये
भ्रम जो सौन्दर्य के थे विमोहित किये,एक के बाद इक इक सभी ढह गये
तूलिका लाज के रंग में डूब कर फिर सिमटने लगी आप ही आप में
आप के चित्र को देखने नभ झुका आप सा है न दूजा सभी कह गये

शिल्प में घुल गई आज कोणार्क के, गंध वॄन्दावनों की उमड़ती हुई
प्यास को मिल गई स्वाति की बूँद ज्यों आज बैसाख के नभ से झरती हुई
पारिजाती सुमन से बने हार को, हाथ में ले शची आ खड़ी राह में
मौसमों के लिये रँग सब साथ में, आपके चित्र में रंग भरती हुई

होठों पे उगती रही प्यास भी

खुश्कियाँ मरूथलों की जमीं होंठ पर शुष्क होठों पे उगती रही प्यास भी
आपके होंठ के स्पर्श की बदलियां पर उमड़ के नहीं आ सकीं आज भी

नैन पगडंडियों पर बिछे रह गये मानचित्रों में उल्लेख जिनका न था
इसलियी आने वाला इधर की डगर राह भटका हुआ एक तिनका न था
चूमने पग कहारों के, मखमल बनी धूल, नित धूप में नहा संवरती रही
गंध बन पुष्पकी बाँह थामे हवा कुछ झकोरों में रह रह उमड़ती रही

सरगमें रागिनी की कलाई पकड़ गुनगुनाने को आतुर अटकती रहीं
उंगलियों की प्रतीक्षा मे रोता हुआ मौन होकर गया बैठ अब साज भी

रोलियां, दीप, चन्दन,अगरबत्तियाँ ले सजा थाल आव्हान करते रहे
आपके नाम को मंत्र हम मान कर भोर से सांझ उच्चार करते रहे
दिन उगा एक ही रूप की धूप से कुन्तलों से सरक आई रजनी उतर
केन्द्र मेरी मगर साधना के बने एक पल के लिये भी न आये इधर

घिर रही धुंध में ढूँढ़ती ज्योत्सना एक सिमटे हुए नभ में बीनाईयां
स्वप्न कोटर में दुबके हुए रह गये ले न पाये कहीं एक परवाज़ भी

हाथ में शेष, जल भी न संकल्प का धार नदिया की पीछे कहीं रूक गई
तट पे आकर खड़ी जो प्रतीक्षा हुई जो हुआ, होना था मान कर थक गई,
जो भी है सामने वह प्लावित हुआ बात ये और है धार इक न बही
जानते हैं अधूरी रहेगी सदा साध, जिसको उगाते रहे रोज ही

खो चुका है स्वयं अपने विश्वास को, थाम विश्वास उस को, खड़े हैं हुए
ठोकरें खाके संभले नहीं हैं कभी हम छलावों में उलझे हुए आज भी

होकर मेरा गीत प्रणेता

ढलती हुइ निशा के पल में
और भोर के प्रथम प्रहर में
निंदिया की खिड़की पर कोई
आ मुझको आवाज़ें देता

धुंधली चन्द्र किरण की डोरी को थामे
धीरे धीरे आ जाता है मेरे सपनों में
चित्र उभरता जो नयनों के पाटल पर
वैसा कोई चित्र न परिचित अपनों में
कभी निखरता और कभी ओझल होता
बादल के घूँघट से दिखता हो तारा
बार बार सोचा कुछ नाम उसे दे दूँ
बार बार मैं अपने उपक्रम में हारा

कभी कभी ऐसा लगता है
शायद वह ही है अनजाना
जो कि रहा जाना पहचाना
होकर मेरा गीत प्रणेता

बन्द पड़े मेरे नयनों के दरवाज़े
बिन दस्तक के अनायास खुल जाते हैं
शीशे पर झिलमिल झिलमिल किरणों जैसी
आकॄतियों के मेले आ कर लग जाते हैं
रजत पात्र से कुछ अबीर तब छलक छलक
स्वर्ण किरण की माला में गुंथ जाता है
और अचानक सोये इस निस्तब्ध कक्ष में
दूर कहीं से वंशी सा सुर आ जाता है

खुली पलक में घुले अपरिचय
बन्द पलक के अपने पन में
अन्तर को ढुँढ़ा करता है
मन हो जिज्ञासु नचिकेता

कुछ अजीब सा लगता है अहसास अजाना
अक्षम रहती अभिवयक्ति कुछ उसे कह सके
लगता है कुछ उमड़ा उमड़ा मन के नभ से
किन्तु पिघलता नहीं धार में बँधे बह सके
रह रह कर लगता है मुट्ठी में कुछ बँधता
हाथ खोल देखूँ तो शून्य नजर आता है
पाखी एक बैठता है मन छत मुंड़ेर पर
पाने को सामीप्य बढ़ूँ तो उड़ जाता है

एक पंख चितकबराअ लेकर
अभिलाषित अम्बर को छू ले
इसीलिये सुरहीन कंठ से
शब्दों को रँगता कह देता

ज़िन्दगी बस बिलम्बित बजाती रही

तुम को आवाज़ देता रहा हर निमिष
पर महज गूँज ही लौट आती रही

दर्द सीने में अपने छुपाये रखा
था बताने से कुछ भी नहीं फ़ायदा
प्यार की रीत क्या ? मैने जानी नहीं
न ही समझा यहाँ का है क्या कायदा
भावनाओं में उलझा रहा अब तलक
लोग मुझको खिलौना समझते रहे
चाह कर भी शिकायत नहीं कर सका
शब्द मेरे गले में अटकते रहे

और तन्हाइं दीपक जला कर कइं
दवार दिल के दिवाली मनाती रही

थे उठे ठोकरों से, गुबारों को मैं
सींच कर आँसुओं से दबाता रहा
पथ तुम्हारा सुखद हो सके इसलिये
राह में अपनी पलकें बिछता रहा
पर गये तुम तो फिर लौट आये नहीं
साथ पलकों के नजरें बिछी रह गइं
आँसुओं की उमड़ती हुइं बाढ़ में
मेरे सपनों की परछाइंयाँ बह गइं

और अम्बर से लौटी हुइं प्रतिध्वनि
शंख, ढ़ोलक , मजीरे बजाती रही

पाँव फ़िसले मेरे सर्वदा उस घड़ी
इन्च भर दूर जब था कंगूरा रहा
दूसरा अन्तरा लिख ना पाया कभी
गीत हर एक मेरा अधूरा रहा
एक पल देर से राह निकली सभीं
एक पग दूर हर एक मन्ज़िल रही
एक टुकड़ा मिली चाँदनी कम मुझे
एक जो साध थी, अजनबी हो रही

और सूनी नजर को क्षितिज पर टिका
ज़िन्दगी बस बिलम्बित बजाती रही

बांसुरिया की तान हो गई

मेरे जिन गीतों को तुमने एक बार गुनगुना दिया है
उन गीतों की धुन, कान्हा की बांसुरिया की तान हो गई

शब्द शिल्प में ढल कर प्रतिमा, यों ही नहीं बना करते हैं
रागों के आरोहों पर स्वर यों ही नहीं चढ़ा करते हैं
यों ही नहीं घटा की संगत गगन श्याम रंग में रँग देती
विहग भाव के बिना पंख के यों ही नहीं उड़ा करते हैं

तुमने जिसको अपने कोमल स्वर का मधुमय स्पर्श दिया है
वही भावना, उगी भोर की अँगड़ाई का गान हो गई

बिना परस पाये पारस का लौह स्वर्ण में कब ढलता है
और अग्नि का स्पर्श न पाये, स्वर्ण कहां कुन्दन बनता है
और नहीं उंगलियां कला की दें अपने चुम्बन का जादू
तो फिर कुन्दन कहां किसी आभूषण में ढल कर सजता है

आज तुम्हारे अधरों के गुलाब ने जिसे छू लिया आकर
एक पंक्ति में लिखी बात भी गज़लों का उन्वान हो गई

बिना सुरों के लिखे हुए सब गीत अधूरे रह जाते हैं
नयन-सेज के आमंत्रण बिन, सारे सपने ढह जाते हैं
सुरभि न कर दे यदि हस्ताक्षर, तो पुष्पों का रूप अधूरा
पत्र बिना अवलबन के शाखों से गिर कर बह जाते हैं+

मिला तुम्हारे कंठ सरगमी का जो साथ आज उसको तो
श्वेत शब्द की चूनरिया, इक सतरंगा परिधान हो गई

याद आई तो ऐसा लगा

याद आई तो ऐसा लगा कांच पर इन्द्रधनुषी किरण छटपटाने लगी
जो अबीरों से लबरेज थीं प्यालियां, वे सभी की सभी छलछलाने लगीं
तान आने लगी बाँसुरी की मधुर,दूर से डोरियों में हवा की उलझ
चित्र आँखों में पल पल बदलने लगे, कल्पना और कुछ कसमसाने लगी

ये घटा जो घिरी, आपके कुन्तलों की मुझे याद फिर आज आने लगी
दामिनी खिलखिलाई गगन में कहीं, एक छवि आपकी मुस्कुराने लगी
यूँ तो यादों का मौसम रहा है सदा, आज की बात कुछ और ही है प्रिये
एक बदरी पिरोये हुए बून्द में, आपके गीत को गुनगुनाने लगी

फिर दहकने पलाशों के साये लगे, गुलमोहर याद के लहलहाने लगे
जो अमलतास की छांह से थे बँधे, सारे अनुबन्ध फिर याद आने लगे
वक्त की करवटों में छुपे थे रहे, आज जीवन्त पल वे सभी फिर हुए
इक नये राग में गा उठे प्रीत-घन,साज मन के सभी झनझनाने लगे

आज उन्ही शब्दों को मेरी कलम गीत कर के लाई है

शब्दकोश के जिन शब्दों ने अधर तुम्हारे चूम लिये थे
आज उन्ही शब्दों को मेरी कलम गीत कर के लाई है

रंग तुम्हारे मन का बिखरा उपवन के सारे फूलों पर
जलतरंग बन चाल तुम्हारी अंकित सरिता के कूलों पर
उंगली के इंगित से जागीं सावन की मदमस्त मल्हारें
हर मौसम में पैगें लेतीं चढ़ी हवाओं के झूलों पर

शब्द शब्द की अनुभूति में व्याप्त तुम्हीं हो मधुर कल्पने
ढाई अक्षर पढ़ा तुम्हीं ने ज्योति ज्ञान की बिखराई है

तुमसे पा उनवान, गज़ल की महफ़िल में कोयलिया चहकी
तप्त कपोलों की अरुणाई से पलाश की बगिया दहकी
नयनसुधा की कुछ बूँदों का जो पाया है स्पर्श सुकोमल
बिसरा कर अपने गतिक्रम को सांस सांस है बहकी\ बहकी

जब बहार ने उपवन में आ अपना घूँघट जरा हटाया
पता चला उसका चेहरा भी सिर्फ़ तुम्हारी परछाई है

स्वर का कंपन छू नदिया की धारा लेती है अँगड़ाई
पग चुम्बन के लिये आतुरा हो, दुल्हन बनती अँगनाई
चितवन से विचलित होते हैं विधि के नियम कई प्रतिपादित
चिकुरों से ले रात कालिमा, दॄष्टि दिवस को दे तरुणाई

महकी हुई हवानों ने जब अपना अस्तर आकर खोला
तब मालूम हुआ है खुश्बू तुमसे ले उधार आई हैं

मीनाक्षी से एलोरा तक चित्र शिल्प जितने, तुमसे ही
मौसम की गतिविधियों का जो कारण रहा, रहा तुमसे ही
तुमही तो कविता, कविता में गज़लें नज़्म सभी हैं तुमसे
जितने छलके गीतकलश से, गीत रहे वे सब तुमसे ही

संध्या ने दिन की पुस्तक के पन्ने पढ़ते हुए बताया
जितनी भी गाथायें संचित, सब तुम ही ने लिखवाईं हैं

शब्दों के अक्सर अर्थ बदल जाते हैं

शब्दों का संयोजन यों तो अधरों से हर बार बहा है
लेकिन हमको ज्ञात नहीं है, कभी कभी हम क्या गाते हैं

चाहत तो बढ़ती हैं नभ में उमड़े हुए धुँए के जैसी
दिशाहीन विस्तारित होतीं फिर सहसा छितरा जाती हैं
बिखरी हुई आस की किरचें,चुनते चुनते थकी उंगलियाँ
गुलदानों में फूल एक भी रखने में सकुचा जाती हैं

सौगन्धों ने सम्बन्धों के जितने भी अनुबन्ध लिखे थे
दिनमानों के झरते झरते वे सब धूमिल हो जाते हैं

उगती हुई धूप पी जाती खिलते हुए फूल सपनों के
रिश्तों के सूखे पत्तों को हवा उड़ा कर ले जाती है
बरसों का संचय हर लेती, पल की एक बदलती करवट
और पास की खाली झोली फिर से खाली रह जाती है

शब्दों के आकॄति से लेकर सुर में ढलने तक की दूरी
तय करते करते शब्दों के अक्सर अर्थ बदल जाते हैं

टपकी हुई तिमिर की बूँदें भर देतीं जब दिन का प्याला
तब सुधियों के एकाकी पल अपनेपन से कट जाते हैं
पिछवाड़े की यादों वाली झाड़ी से उड़ उड़ कर जुगनू
तन्द्राओं के सूनेपन में कोई हलचल भर जाते हैं

तारों की छाया आँखों के परदे पर इक चित्र बनाये
इससे पहले ही कूची के सारे रंग बिखर जाते हैं

बन्द किताबों में र हते हैं उठे हुए प्रश्नों के उत्तर
फिर भी कट कर सन्दर्भों से रह रह प्रश्न उभर आते हैं
नजरों के बौनेपन को तो करती अस्वीकार चेतना
अहम अस्मि के पंख लगा कर स्वर के पंछी उड़ जाते हैं

झुके हुए शीशों की परिभाषा से वंचित हैं जो काँधे
अधिक नहीं वे तने शीश का अपना बोझा ढो पाते हैं

इक अधूरी गज़ल गुनगुनाते रहे

छाँह तो पी गये, वॄक्ष पथ के स्वयं
धूप हिस्सा हमारा, बताते रहे
हम अवनिका पकड़ कर खड़े रह गय
दॄश्य जो भी मिला, वे चुराते रहे

राह भटका रहा पग उठा राह में
होंठ पर मौन बैठी रही बाँसुरी
फूल अक्षत बिखरते रहे थाल से
भर नहीं पाई संकल्प की आँजुरी
सिन्धु था सामने खिलखिलाता हुआ
बाँह अपनी पसारे हुए था खड़ा
पर अनिश्चय का पल लंगरों के लिए
बोझ, अपनी ज़िदों पे रहा है अड़ा

हाशिये से परे हो खड़े हम रहे
पॄष्ठ पर वाक्य थे झिलमिलाते रहे
यज्ञ में जो हुआ शेष, वह स्वर लिये
इक अधूरी गज़ल गुनगुनाते रहे

थे निमंत्रण रहे भेजते, सावनी
मेघ आ जायेंगे पनघटों के लिये
किन्तु शायद पता था गलत लिख गया
आये आषाढ़ घन सिर्फ़ तॄष्णा लिये
स्वर बना कंठ का आज सुकरात सा
भब्द प्याले भरा छलछलाता रहा
आंख का स्वप्न था इन्द्रधनुषी नहीं,
एक धुँआ वहाँ छटपटाता रहा

और हम दंश पर दंश सहते हुए
दूध ला पंचमी को पिलाते रहे
बीन के काँपते राग को थाम कर
मौन स्वर से कहानी सुनाते रहे

पीठ पर पीढ़ियों के सपन से भरी
एक गठरी रही बोझ बनती हुई
उंगलियों के सिरों से परे ही रही
हर किरन जो उगी, याकि ढलती हुई
किसलिये क्या कहां कौन किसके लिये
प्रश्न से युद्ध में जूझते रह गये
भूल कर नाम अपना, भटकते हुए
अर्थ, अपना पता पूछते रह गये

धूल उड़ती हुई जो रही सामने
शीश, चन्दन बना कर लगाते रहे
जो कि आधा लिखा रह गया था कभी
गीत बस एक वह गुनगुनाते रहे

एक भी आज तक तुमने गाया नहीं

स्वप्न पलकों से टपका किये रात भर
हाथ में एक भी किन्तु आया नहीं
गीत लिखता रहा भोर से सांझ तक
आपने एक भी गुनगुनाया नहीं

एक नीहारिका की बगल से उठे
पार मंदाकिनी के चले थे सपन
चाँद की नाव में बैठ कर थे तिरे
चप्पुओं में संजो चाँदनी की किरन
नींद की इक लहर पर फ़िसलते हुए
नैन झीलों के तट पर रुके चार पल
खूंटियों पर टँगा कैनवस थाम ले
इससे पहले ही पलकों से भागे निकल

मैं लिये इन्द्रधनुषी खड़ा कूचियां
रंग से एक भी बांध पाया नहीं

भाव मन की तराई में वनफूल से
खिल रहे थे घने, मुस्कुराते हुए
नैन पगडंडियों पर बिछे थे हुए
शब्द को देखते आते जाते हुए
राह में छोड़ सांचे, कदम जो गये
उनके, अनुरूप ढलते रहे हैं सभी
चाही अपनी नहीं एक पल अस्मिता
कोई अध्याय खोला नया न कभी

इसलिये उनको अपना कहूँ ? न कहूँ
सोचते मैं थका, जान पाया नहीं

प्रीत की गंध में डूब संवरा हुआ
शब्द निखरा कि जैसे कली हो सुमन
हर घड़ी साथ में हमकदम हो चली
एक अनजान सुखदाई कोमल छुअन
रंग सिन्दूर के जब गगन रँग गये
आस आई नई रश्मियों में ढली
आपके कंठ की ओस में भीग कर
स्वर्ण पहने मेरे गीत की हर कली

छू न सरगम सकी शब्द की डोरियाँ
और संगीत ने सुर सजाया नहीं

रिश्ता मेरे नाम से

गीतों का रिश्ता छंदों से
फूलों का रिश्ता गंधों से
जो रिश्ता नयनों का होता है सपनों के गांव से
पीड़ा ने ऐसा ही रिश्ता जोड़ा मेरे नाम से

दिन बबूल से आकर मन की अलगनियों पर टँगे जाते हैं
रातें अमरबेल सी मुझको भुजपाशों में भर लेती हैं
दोपहरी की धूप रबर सी खिंच कर भरी रोष में रहती
संध्या आती है धुन्धों का परदा मुँह पर कर देती है

सांकल का रिश्ता कड़ियों से
प्रहरों का रिश्ता घड़ियों से
जो रिश्ता है सुखनवरी का उठते हुए कलाम से
पीड़ा ने ऐसा ही रिश्ता जोड़ा मेरे नाम से

पिघला हुआ ह्रदय रह रह कर उमड़ा करता है आँखों से
शाखों से पल छिन की टपकें पल पल पर बदरंग कुहासे
टिक टिक करते हुए समय के नेजे से प्रहार सीने पर
भग्न आस के अवशेषों के बाकी केवल चित्र धुंआसे

शब्दों से नाता अक्षर का
दहलीजों से नाता घर का
संझवाती के दीपक का ज्यों नाता होता शाम से
पीड़ा ने ऐसा ही नाता जोड़ा मेरे नाम से

अंधियारे की चादर हटती नहीं, भोर हो या दोपहरी
संकट वाली बदली मन के नभ से दूर नहीं जाती है
जितनी बार बीज बोये हैं धीरज के मन की क्यारी में
उतनी बार सुबकियों वाली चिड़िया उनको चुग जाती है

जो नयनों का है काजल से
मंदिर का है गंगाजल से
मरुथल का जो रिश्ता रहता है झुलसाती घाम से
पीड़ा ने जोड़ा ऐसा ही रिश्ता मेरे नाम से

हम गीतों के गलियारे में

हम गीतों के गलियारे में संध्या भोर दुपहरी भटके
कंठ न ऐसा मिला किन्तु जो गीतों को कोई स्वर देता

छंदों की टहनी पर हमने अलंकार के फूल उगाये
और लक्षणा की पांखुर पर, ओस व्यंजना बना सजाये
छंदों की छैनी से हमने शिल्प तराशे गज़ल-नज़्म के
वन्दनवारी अशआरों से द्वार द्वार पर चित्र बनाये

किन्तु न सरगम की क्यारी में फूट सके रागों के अंकुर
एक एक कर सब युग बीते, क्या सतयुग, क्या द्वापर त्रेता

सारंगी ने अलगोजे की बांह थाम कर जो कुछ गाया
जलतरंग पर बांसुरिया ने जो कदम्ब के तले बजाया
वह इक सुर जो भटक गया है चौराहों के चक्रव्यूह में
जिसे नाद की चन्द्र-वीथि में शंख-ध्वनि ने नित्य बजाया

उसी एक सुर की तलाश में अलख जगाया हर द्वारे पर
किन्तु न पट को खोल सका है वह इक सुर-संदेश प्रणेता

बार बार खोली है हमने अपनी स्मॄतियों की मंजूषा
संध्या की अँगनाई में हम करते हैं आमंत्रित ऊषा
विद्यापति के, वरदाई के पदचिन्हों का किया अनुसरण
किन्तु न बदली लेशमात्र भी, जो इक बार बन गई भूषा

एक इशारे से उंगली के जो दे देता सही दिशायें
नहीं हुआ संभव वह मांझी, हमको अनुगामी कर लेता

आपकी ओढ़नी का सिरा चूम

शाख के पत्र सब नॄत्य करने लगे
पांखुरी पांखुरी साज बन कर बजी
क्यारियों में उमड़ती हुई गंध आ
रुक गई एक दुल्हन सरीखी सजी
पर्वतों के शिखर से उतर कर घटा
वादियों में नये गीत गाने लगी
आपकी ओढ़नी का सिरा चूम जब

एक झोंका हवा का हुआ मलयजी.

अब नहीं संभव रहा है गीत कोई गुनगुनाना

कंठ में अवरुद्ध है स्वर होंठ पर आता नहीं है
अब नहीं संभव रहा है गीत कोई गुनगुनाना

कसमसाती उंगलियों से पूछती रह रह कलम है
किसलिये तुमने न चलने की उठा रक्खी कसम है
मानचित्रों में मिलेगी राह नूतन कोई तुमको
जान लो यह धुंध में डूबा हुआ केवल भरम है

कर समर्पण हो शिथिल जो रुक गये है मोड़ पर ही
शब्द को संभव नहीं है पॄष्ठ पर अब पग बढ़ाना

प्रश्न के उत्तर स्वयं ही प्रश्न बनने लग गये हैं
आईने अपने स्वयं के बिम्ब छलने लग गये हैं
झर रही केवल उदासी की झड़ी अब बादलों से
छोड़ कर नभ को अकेला, सब सितारे ढल गये हैं

पारदर्शी हो गये हैं आज वातायन निशा के
है नहीं संभव कोई परदा गिराना या उठाना

मौन की लंबी गली में और कितनी दूर चलना
और कितनी देर बन कर धूप का इक दीप जलना
एक अपने खोखले सिद्धांत के डमरू बजाते
और कितनी देर अपने अर्थ को है आप छलना

झुनझुने हम हो गये हैं आप अपनी ही नजर में
आपका क्या दोष, चाहें आप जो हमको बजाना

वर्त्तिका मैं बनूँ, तीलियाँ तुम बनो

चाँदनी के अधूरे सपन की कथा
वादियों में अकेले सुमन की व्यथा
आज भी शब्द में ढल न पाई अगर
लेखनी का जनम फिर रहेगा वॄथा
इसलिये आओ अभिव्यक्तियों के कलश, भाव के नीर से आज हम तुम भरें
वर्त्तिका मैं बनूँ, तीलियाँ तुम बनो, ज्योति बन दूर छाया अंधेरा करें

वाक्य में अक्षरों के छुपे मध्य में
भावनाओं के निर्झर उमड़ते हुए
एक के बाद इक स्वप्न की क्यारियाँ
और गुंचे हज़ारों चटकते हुए
अश्रु जो छू गये, सुख के दुख के नयन
शब्द के बीच में आते जाते रहे
हैं परे रह गये दॄष्टि के कोण से
किन्तु अस्तित्व अपना जताते रहे

आओ हम शब्द की तूलिकायें लिये, इनकी रातों में चित्रित सवेरा करें
वर्तिका मैं बनूँ, तूलिका तुम बनो, ज्योति बन दूर छाया अंधेरा करें

स्वप्न जो आँख में आ तड़पते रहे
स्वर, न छू पाये जो थरथराते अधर
एक पाथेय जो भोर में न सजा
एक पग के परस को तरसती डगर
एक आलाव दरवेश की राह में
नीड़ जिसकी टँगी मोड़ पर है नजर
एक हथेली, लकीरों भरी छाओ जो
छोड़ जाती रही घर की दीवार पर

इनकी बेचैनियाँ आओ हम जान लें और हल साथ मिल कर चितेरा करें
चाँद तुम बन सको, मैं सितारे बनूँ , रात को आओ हम तुम उजेरा करें

स्वप्न से नैन के मध्य की दूरियाँ
फूल से दूर जितना सुवासित पवन
पायलों और झंकार के मध्य में
शून्य का एक विस्तॄत उमड़ता गगन
पीर का गीत से एक अनुबन्ध है
प्यास का जो बरसते हुए नीर से
इक शपथ जो कई जन्म के साथ की
या कि धारा का हो साथ ज्यों तीर से

आओ मिल कर इन्हें हम नये नाम दें, नाम जो अर्थ नूतन उकेरा करें
रश्मियां मैं बनूँ त्रुम दिवाकर बनो, आओ मिल कर नया इक सवेरा करें

रहा एक सूखे निर्झर में

संकल्पों का आवारापन, दिशाहीन होकर भटका है
अनुशासन में उन्हें बाँध लूँ, होने लगा आज तत्पर मैं

मौन निशा अंधियारेपन को
ओढ़े बैठी रही रात भर
कोई सितारा नहीं ध्यान जो
देता उसकी कही बात पर
मैं सहभागी बन पीड़ा का
उसकी, जागा हाथ बँटा लूँ
गीत मिला कर उसके सुर में
अपना सुर , मैं कोई गा लूँ

मैने दी आवाज़ भोर की अँगनाई के प्रथम विहग को
लेकिन बात अनसुनी करके वो उड़ गया कहीं अंबर में

एकाकीपन बोझा होता
रही बताती संध्या पागल
दोपहरी ने भी समेट कर
रखे रखा सुधियों का आंचल
ढलता सूरज बोल गया कुछ
किन्तु हवा ने स्वर को रोका
और दे गया दिन हमराही
फिर से आधे पथ में धोखा

नदिया बन कर बह निकली वे गाथायें जो छुपी हुईं थीं
मैं उद्गम के स्रोत ढूँढ़ता रहा एक सूखे निर्झर में

भोर, शब्द दीवाने होते
थकी ओस से कहते कहते
भाव बदलते, एक समय की
धारा के संग बहते बहते
अलग कसौटी पर अर्थों के
अक्सर मूल्य बदल जाते हैं
संप्रेषित कुछ और हुआ जब
शब्द और कुछ कह जाते हैं

अनुवादों के बिन भी समझी जाती हैं मन की भाषायें
जाने था पर दे न सका हूँ उनको कोई भी अवसर मैं

अजनबियत की उम्र रही है
उतनी, जितना हमने चाहा
सम्बन्धों के धागे बुनने
तत्पर है परिचय का फ़ाहा
दूरी हर तय हो जाती है
एक कदम के उठ लेने से
अम्बर का विस्तार सिमटता
लगे फ़ैलने इक डैने से

जो लगती है बात अनर्गल, उसमें भी कुछ गूढ़ रहा है
शिल्पकार इक मध्य रहा है मंदिर की मूरत-पत्थर में

चन्दा का झूमर

शब्दों के झरने उंड़ेलती हैं कलमें
लेकिन कोई गीत नहीं बन पाता है

चन्दा का झूमर अम्बर के कानों में
घुली हुई सरगम कोयल के गानों में
चटक रही कलियों की पहली अंगड़ाई
टेर पपीहे की वंशी की तानों में
रश्मि ज्योत्सना की कंदीलों से लटकी
एक टोकरी धूप दुपहरी से अटकी
सन्ध्या की देहरी पर आकर सुस्ताती
एक नजर, पूरे दिन की भुली भटकी

लेकिन दीप न जल पाता संझवाती का
और अंधेरा पल पल घिरता आता है

खिंची हाथ पर आड़ी तिरछी रेखायें
और अर्थ जीवन के पल पल उलझायें
चौघड़ियों के फ़लादेश में बल खाते
नक्षत्रों से ताल मेल भी बिठलायें
लिखते विधि का लेख दुबारा, कर पूजा
मंदिर की चौखट पर शीश नवाते हैं
कल का सूरज रंगबिरंगी किरणों से
राह सजायेगा, यह आस लगाते हैं

लेकिन आधा लिखा पॄष्ठ इस किस्मत का
फिर से आधा लिखा हुआ रह जाता है

मन में पलतीं नित्य अधूरी आशायें
और बदलते नित्य, अर्थ, परिभाषायें
सूनेपन पर लगी टकटकी नजरों की
बनें दॄश्य, इससे पहल ही धुल जायें
खुले हाथ की मुट्ठी बँधती नहीं कभी
लेकिन संचय दिवास्वप्न बन रहता है
आज नहीं तो कल या फिर शायद परसों
पागल मन खुद को समझाता रहता है

लेकिन संवरा हुआ आंख का हर सपना
गिरे डाल से पत्ते सा उड़ जाता है

सबन्धों के चरणामॄत

वैसे गीत की भूमिका लिखना मैं कभी आवश्यक नहीं समझता परन्तु इस बार समीर भाई के आग्रह पर मात्र इतना लिख रहा हूँ कि इस गीत के आरंभिक छन्द के बाद के अंतरों में अनुप्रास का प्रयोग किया गया है.


सबन्धों के चरणामॄत का किया आचमन सांझ सवेरे
तुलसी पत्रों से अभिमंत्रित माना उनको शीश चढ़ाया
अंकुर फूटेंगे नव, बिखरेगा सौरभ मधुपूर्ण स्नेह का
आंखों के परदे पर सुधि ने बहुरंगी यह चित्र बनाया

लेकिन मरुथल की मरीचिका सा निकला नयनों का सपना
आस पिघलती रही कंठ में बन कर नागफ़नी के कांटे

अँगनाई के आशीषों से आल्हादित थी हर अरुणाई
संस्कॄतियों की सुरभि सांझ ने सुन्दरता के साथ पिरो ली
वहनशक्ति वसुधा की ओढ़े वक्ष विशाल रहा वॄक्षों सा
सहज समर्पैत हो संशोधित संकल्पों की साध समोली

लेकिन बंजर के सिंचन का तो प्रतिकार शून्य ही होता
नाम-जमा के समीकरण में हासिल हुए हाथ बस घाटे

समझौतों की सीमायें यों सन्दर्भों से सही नहीं थीं
आगत हो अनुकूल, आज का अर्घ्य दिया, अवगुण आराधे
पतझड़ के पीले पत्रों को पावन पुण्य प्रसादी माना
तॄप्त किय्र तप का तप लेकर तॄषित ताप के तप्त तकादे

लेकिन हर इक होम मंत्र का होता अंत सदा स्वाहा ही
चाह जहाँ थी ज्वार उमड़ते, आते रहे वहा< बस भाटे

पान किये पौराणिक पुस्तक के पॄष्ठों के प्रवचन पावन
धीरज धर्म धार्य होता है, हुई धारणा धूल धूसरित
शत सहस्र सौगंध समाहित सांस सांस में संबंधों की
अर्धसत्य हो गईं आदि से अंत आज तक जो थीं अंकित

भ्रम की धुंध सदा छँट जाती जब सूरज लेता अँगड़ाई
किन्तु आज जो घिरा कुहासा कटता नहीं किसी के काटे

मन को जो महकाता मेरे था माधुर्य महज मिथ्या था
दिन के दूध धुले दर्पण में दिखते हैं दैदीप्य दिलासे
आंखों के आंगन में जितने आमंत्रित अनुबन्ध हुए हैं
स्वार्थ संहिता से सिंचित वे सप्ताहों के सत्र सदा से

जिन्हें थोप देती है पीढ़ी, एक एतिहासिक ॠण कह कर
ढूँढ़ रहा हूँ कोई हो जो इसका अंश जरा सा बांटे

हर अधूरे प्रश्न का उत्तर

क्या कहां कब कौन किसने किसलिये क्यों
प्रश्न खुद उठते रहे हैं, बिन किसी के भी उठाये
आस दीपक बालते इक रोज तो आखिर थकेगी
ज़िन्दगी जब हर अधूरे प्रश्न का उत्तर बनेगी

खिल रहे हैं फूल से, रिश्ते, अगर वे झड़ गये तो ?
साये अपने और ज्यादा आज हम से बढ़ गये तो ?
और सोता रह गया यदि सांझ का दीपक अचानक
स्वप्न आंखों में उतरने से प्रथम ही मर गये तो ?

प्यास जो है प्रश्न की वह फिर अधूरी न रहेगी ?
ज़िन्दगी ही तब अधूरे प्रश्न का उत्तर बनेगी

चांदनी यदि चांद से आई नहीं नीचे उतर कर
बांसुरी के छिद्र में यदि रह गई सरगम सिमट कर
कोयलों ने काक से यदि कर लिया अनुबन्ध कोई
यामिनी का तम हँसा यदि भोर को साबुत निगल कर

कामना फिर और ज्यादा बाट न जोहा करेगी
ज़िन्दगी ही जब अधूरे प्रश्न का उत्तर बनेगी

शाख से आगे न आयें पत्तियों तक गर हवायें
या कली के द्वार पर भंवरे न आकर गुनगुनायें
बून्द बरखा की न छलके एक बादल के कलश से
और अपनी राह को जब भूल जायें सब दिशायें

उस घड़ी जब चेतना आ नींद से बाहर जगेगी
ज़िन्दगी तब हर अधूरे प्रश्न का उत्तर बनेगी

सूर्य प्राची में उभरने से प्रथम ही ढल गया यदि
भोर का पाथेय सजने से प्रथम ही जल गया यदि
पूर्व पग के स्पर्श से यदि देहरी पथ को निगल ले
और आईना स्वयं के बिम्ब को ही छल गया यदि

शून्य के अवशेष पर निर्माण की फिर धुन सजेगी
ज़िन्दगी तब ही अधूरे प्रश्न का उत्तर बनेगी

बस यूँ ही

रंग में गेरुओं के रँगे चौक ने चूम जब दो लिए पग अलक्तक रँगे
देहरी को सुनाने लगे राग वह, पायलों की बजी रुनाझुनों में पगे
खिड़कियों से रहा झाँकता चन्द्रमा, घूंघटों की सुनहरी किनारी पकड़
प्रीत का एक मौसम घिरा झूमता, रह गए हैं सभी बस ठगे के ठगे

देहरी शीश टीके लगाती रही

अपने अस्तित्व की पूर्णता के लिये
प्राण की ज्योत्स्ना छटपटाती रही

ओस की बून्द सी दो पहर धूप में
मन के आंगन में उगती हुई प्यास थी
रोज दीपित हुई भोर के साथ में
अर्थ के बिन भटकती हुई रात थी
चाह की चाह थी जान पाये कभी
चाहना है उसे एक किस चाह की
पांव ठिठके रहे बढ़ न पाये तनिक
गुत्थियों में उलझ रह गई राह थी

एक खाका मिले, रंग जिसमें भरे
तूलिका हाथ में कसमसाती रही

चिन्ह संकल्प के धुंध में मिल गये
सारे निर्णय हवायें उड़ा ले गईं
वक्त बाजीगरी का पिटारा बना
दॄष्टियां आईनों में उलझ रह गईं
दिन का पाखी उड़ा तो मुड़ा ही नहीं
रात बैठी रही आकलन के लिये
पॄष्ठ सारे बिना ही लिखे रह गये
शब्द से सिर्फ़ रंगते रहे हाशिये

ज़िन्दगी बनके पुस्तक बिना ज़िल्द की
भूमिका पर अटक फ़ड़फ़ड़ाती रही

देहरी शीश टीके लगाती रही

और अंगनाई की रज बिछौना बनी
स्वस्ति के मंत्र का जाप करती रहीं
हाथ की उंगलियां रोलियों में सनी
पत्थरों से विनय, फूल की पांखुरी
करके अस्तित्व को होम, करती रही
आँख की झील से पर फ़िसलती हुई
आस पिघली हुई रोज झरती रही

आस्था कंठ को चूम वाणी बनी
आई अधरों पे, आ कँपकँपती रही

संभव है सपना सच हो ले

पानी का बुलबुला बनाती, सारे स्वप्न भोर की थपकी
क्या संभव इस बार आंख का कोई तो सपना सच हो ले

पल्लव सभी उड़ा ले जाती बहती हुई हवा पल भर में
तट की सभी संपदा लहरें ले जातीं समेट कर, कर में
चक्रवात के पथ में बचते चिन्ह शेष न निर्माणों के
प्रत्यंचा से बन पाते हैं कब संबंध घने वाणों के

ये सच है. हाँ पर ये भी तो सच है थके हुए पाखी को
है उपलब्ध गग की पूरी सीमा, यदि अपने पर तोले

सीमा नहीं हुआ करती है, यों चाहत के विस्तारों की
रह जाती है एक कहानी बनकर अक्सर अखबारों की
सागर की हर इक सीपी में मोती नहीं मिला करता है
उपवन का हर इक पौधा तो चन्दन नहीं हुआ करता है

लेकिन फिर भी बून्द एक जो छिटकी हुइ किसी ज्योति की
आशान्वित होती है संभव है वह किरण नवेली होले

महका करते हैं गुलदस्ते, अभिलाषा के सांझ सकारे
आकांक्षाओं की चूनरिया लहराती है मन के द्वारे
सतरंगे अबीर सी झिलमिल झिलमिल होती मधुर कल्पना
अगली बार निराशा का हो शायद कोई भी विकल्प ना

कागज़ पर खींची जाती है जो रेखायें बना योजना
संभव है वह उतर पॄष्ठ से सचमुच ही कोई घर हो ले

और यह रही २००वीं पोस्ट

आज २०० वीं पोस्ट देते समय एक सुखद अनुभव हो रहा है. इस सफर में आप सबका स्नेह मिला, बेहतरीन साथी मिले. सभी का आभार. ऐसे ही स्नेह बनाये रखिये और गीतों की यह महफिल यूँ ही सदा सजती रहेगी.

एक बार पुनः आभार.

medal

आज फिर महका किसी की याद का चंदन

आज फिर महका किसी की याद का चन्दन सुलग कर
आज फिर बदली नयन में एक सावन बो गई है

आज फिर ज्योतित हुए वे दीप कल जो बुझ गये थे
पीर के वह बंध फिर से खुल गये जो बँध गये थे
फिर बहारों से मिले हैं फूल सूखे पुस्तकों के
फिर हुए गतिमान पल, पीपल तले जो थम गये थे

फिर लगा है लौट आई है पलों की पालकी वह
आज तक लौटी नहीं, इस राह पर से जो गई है

चेतना, अवचेतना के शब्द धूमिल, हो उजागर
भावना के सिन्धु तट पर भर रहे हैं भाव-गागर
चित्र पलकों के दरीचों में विगत की आ संवरकर
रँग रहे हैं मन वितानों को नई कूची सजा कर

चल रही कोमल पगों से जो हवा, के हाथ थामे
आज सुधि भी लग रहा है पंथ में ही सो गई है

आस पगली घूमती है, मुट्ठियों में स्वप्न बांधे
पर्वतों से भी कहीं ऊँचे किए अपने इरादे
किंतु है अदृश्य हाथों में थिरकती तकलियों सी
वह अजानी कौन उस पर किस तरह का सूत काते

चाव के रंगों बनाई आंगनों की बूटियों के
एक हल्की सी नमी आ रंग सारे धो गई है

कामना की क्यारियों में गंध के पौधे उगाती
शब्द होठों के लरजते छंद में बुनती सजाती
चित्र खींचे हैं क्षितिज पर एकरंगी भावना के
पांखुरी लेकर अपेक्षायें सहज पथ पर बिछाती

पर प्रतीक्षा की विरासत में मिली हैं जो धरोहर
आज लगता उम्र उसकी और लम्बी हो गई है

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...