इस नये वर्ष में

चाँदनी से बना अल्पना द्वार पर
इस नये वर्ष का आओ स्वागत करें

आस सपने नये आस के रच रही
कोई क्रम फिर न दुहराये गत वर्ष का
वो अनिश्चय, वो संशय की काली घटा
हर निमिष यों लगा युद्ध का पर्व था
अर्थ की नीतियों की जड़ें खोखली
फिर न रह पायें बीते दिनों की तरह
दीप विश्वास के प्रज्ज्वलित कर उगे
इस नये वर्ष की दीप्तिमय हो सुबह

आओ धुंधले पड़े जितने आकार हैं
रंग भर कर उन्हें इन्द्रधनुषी करे


कामना सज रही है ह्रदय में नई
इस नये वर्ष की भोर की रश्मियां
वॄष्टि बन कर सुधा की बरस जायें औ
शांत हों हर तरफ़ जल रही अग्नियाँश
कर रही है विभाजित ह्रदय की गली
चन्द रेखायें दीवार जो खींचकर
भोर उनका तिमिर पी उजेरा करे
स्नह के एक संकल्प से सींचकर

आओ गत वर्ष की याद के पल उठा
विस्मृति के कलश में संजो कर भरें

इस नये वर्ष में फूल जो भी खिले
गंध केवल लुटाता रहे प्रीत की
रागिनी सरगमें छेड़ती बस रहे
फ़ाग की और मल्हार की गीत की
शब्द ओढ़ें नई भूमिका फिर लिखें
इक कथानक नया, एक अध्याय का
पंक्तियों में झलकता रहे आ जहां
भाव अपनत्व के सिर्फ़ पर्याय का.

आओ हर नैन के कैनवस पर यही
चित्र रंगीन हम मिलके चित्रित करें.

क्या भूलूं क्या याद रहा है

दोछत्ती पर रखी हुई थी
एक टोकरी यादों वाली
आज सफ़ाई करते करत
झाडन उसको जरा छू गया
बीते हुए दिवस तितली ब
सजे कक्ष की दीवारों पर
कल का खर्च हुआ हर इक पल
फिर से संचित आज हो गया
और लगे नयनों में तिरने
बरगद,पीपल, वे चौपालें
वे बिसायती वे परचूनी
औ; लकड़ी कोयले की टालें
नानबाई वह चौबुर्जा का
वह नुक्कड़ वाला हलवाई
गरम जलेबी और इमरती
खुरचन रबड़ी दूध मलाई
फिर से उड़े याद के पंछी
मन अम्बर उड़ कर कनकौए
धोबी माली और जुलाह
कहते हुए कहानी नऊए
लड़िया,रिक्शे,बग्घी तांगे
टेम्पो ठेला और फ़टफ़टिया
ओझा,पीर,सयाने,पंडित
ईदगाह, बेगम का तकिया
माली मालिन, ग्वाले ग्वालिन
वे हकीमजी वह पंसारी
वो अफ़ीमची, वह भंगेड़ी
चौपड़ पर बैठा नसवारी
कुंए,पोखर,ताल, तलैय्या
भड़भूजा,भटियारी तेली
सीपी शंख जड़े दरवाज़े
हल्दी रंग में छपी हथेली
बनते हुए चाक पर अविरल
दिवले,कुल्लड़ और सकोरे
मनिहारी चूड़ियां लाख की
सर्राफ़ा, चान्दी के तोड़े

पर क्यों अब इनको अपनापन
देने से मन घबराता है
शाखा से बिछुड़ा पत्ता फिर
कब शाखा से जुड़ पाता है

इसीलिये फिर से समेट कर
एक नई चादर ओढ़ा दी
और दिलासा दिया स्वयं को
वे यादें सब सपना ही थीं

उठ आये हैं प्रश्न हज़ारों

तुमने मुझसे कहा लिखूं मैं गीत तोड़ कर सब सीमायें
मैं लिखने बैठा तो मन में उठ आये हैं प्रश्न हज़ारों

क्या मैं लिखूं न समझा जाये जिसे एक परिपाटी केव
आंसू क्रन्दन मुस्कानें या उपज रही पीड़ा की बातें
प्रीतम के भुजपाशों के पल, दृष्टि साधना के मोहक क्षण
या फिर आंखों के सावन में घिरी हुईं विरहा की रातें

नहीं नहीं ये सब कुछ जाने कितनी बार गया दोहराया
ढूँढ़ रहा हूँ भाव कभी जो सिमटा नहीं शब्द की धारों

हां ये विदित थकी हैं कलमें केवल एक बात दुहराते
फूल, पांखुरी, चन्दन, पुरबा, सावन झूले, गाता पनघट
ब्रज के रसिया, मादक सपरी, भोपा बाऊल की स्वर लहर
और वही इक थिरकी पायल, एक वही कालिन्दी का तट

एक धरोहर, लिखना जिसके आगे शायद कठिन बहुत है
या लकुटी और कांवरिया पर राज तिहुँ पुर कौ तज डारौं

संध्या निशा भोर दोपहरी यदि न लिखूं तो बाकी क्या है
आन्दोलन की चीख पुकारें, रोटी का रोजी का रोना
टुटे हुए स्वप्न के अवशेषों को रह रह कर बुहारना
और ज़िन्दगी की गठरी को बोझ समझ कर कांधे ढोना

तथाकथित इक प्रगतिवाद की सम्भव है ये बनें इकाई
बाँधा है सम्बोधन दे देकर संग परिवर्तन के नारों

सम्भव नहीं कल्पना को अब

संभव नहीं रहा लिख पाऊँ गीत नया कोई शतरूपे
क्योंकि कल्पना के पाखी के पंख किसी ने नोच लिये हैं

ये बहेलिया वक्त न जाने क्या मंतव्य लिये आया है
कैद कर रहा अरमानों के पल पल पंछी कई, जाल में
एक साध ज्यों करवट लेकर आतुर होकर पंख तौलती
उसे बांध कर रख लेता है ये अपने विस्तॄत रूमाल में

वैसे तो आंखों से बह कर आंसू शब्द बना करते थे
किन्तु आजकल बहते आंसू पलकों ने ही पोंछ लिये है

रचती है षड़यंत्र व्यस्तता नित्य घड़ी की सुईयों से मिल
दिन के सारे  प्रहर झपकती पलकों में ही खो जाते हैं
नीड़ छोड़ते पंछी के स्वर सरगम के झूले पर झूलें
इससे पहले, ढली सांझ के रंगों में घुल खो जाते हैं

वे जो पल मॄगशावक से अठखेली करते दिन-उपवन में
समय बाज ने फ़ैला अपने डैने सभी दबोच लिये हैं

भावों की पुस्तक का कोई पन्ना खुलता नहीं आजकल
शब्द लेखनी की गलियों से दूर भटकते हैं आवारा
संशोधित हो गये व्याकरण के सब नियम लगा है ऐसे
इसीलिये शायद कागज़ पर बनता नहीं छन्द दोबारा

हम वह नहीं प्रेरणा कोई जिन्हें कंठ स्वर दे जाती है
वे हैं और लेखनी के जो संदर्भों में  क्रोंच लिये हैं

गीत रागिनी आ गाती है

स्वप्न तुम्हारे हो जाते हैं जब आकर पलकों में बन्दी
तब संभव है कहाँ दूसरा चित्र नयन में बनने पाये
नाम तुम्हारा ढल जाता है जब हर अक्षर के सांचे में
तब फिर गीत दूसरा कैसे यह मेरा पागल मन गाये

ओ परिभाषित तुमसे ही तो सब सन्दर्भ जुड़े हैं मेरे
मेरे चेतन अवचेतन के हर पल में बस व्याप्त तुम्ही हो

आरोहित होती सरगम की सुरलहरी जब अँगड़ाई ले
उठती है तब बोल तुम्हारे पिरो रागिनी में जाती है
और तुम्हारे बिखरे कुन्तल से फ़िसली कजराई लेकर
आंखों में आंजा करती है सांझ, निशा में ढल जाती है

ओ प्रभावमय दिवस निशा का है गतिमान चक्र तुमसे ही
मानस के पट पर जो कुछ है ज्ञात और अज्ञात तुम्ही हो

पगतलियों के चुम्बन से यों मांग सजा लेती हैं राहें
लग जाती है खिलने चारों ओर स्वयं फूलों की क्यारी
पैंजनियों से बातें करने को लालायित हुई हवायें
अपने साथ भेंट में लेकर आती गंधों भरी पिटारी

ओ मधुशिल्पित ! स्पर्श तुम्हारा करता सुधापूर्ण जीवन को
जो अनाम वह तुमही तो हो और सर्व विख्यात तुम्ही हो

किसी ने कहा ओ पिया

रोशनी के चिबुक पे डिठौना लगा
रात जा छुप गई चाँदनी की गली
ओस की बून्द से बात करते हुए
मुस्कुराने लगी इक महकती कली
रश्मियां जाग जर नॄत्य करने लगीं
गीत गाने लगी गुनगुनाकर हवा
पूछने लग गईं क्यारियाँ बाग में
क्या हुआ क्या हुआ क्या हुआ क्या हुआ


नीम की शाख पर झूल झूला रही
एक कोयल बताने लगी भेद ये
प्रीत प्रतिमा बनी आ रही है इधर
था बुलाया किसी ने कहा ओ पिया
ओ पिया ओ पिया ओ पिया ओ पिया


मांग पगडंडियां अपनी भरने लगीं
पनघटों पे संवरने लगे रागिनी
कलसियों की किनारी लगी चूमने
इन्द्रधनुषी बनी थी चपल दामिनी
ईंडुरी के सिरों पर बँधे मोतियों मे
लगी जगमगाने नई आभ सी
बिन पते के लिखे पत्र सी हो गई
आज एकाकियत को मिली वापिसी


उठ खड़ी हो गई नींद से जागकर
आस ने अपना श्रंगार नूतन किया
वो है आने लगा टेर सुन " ओ पिया:
ओ पिया ओ पिया ओ पिया ओ पिया


सीपियों के संजोये हुए कोष की
एक माला गला चूमने को बढ़ी
धड़कनों ने कहा सांस से तीव्र हो
पास आने लगी है मिलन की घड़ी
दॄष्टि रह रह उचक एड़ियों को उठा
राह के मोड़ पे जा अटकबे लगी
वर्ष ने बो रखी कामना की कली
आस का नीर छूकर चटकने लगी

पल ये कहने लगा आ गई वो घड़ी
सारा जीवन है जिस एक पल को जिया
जो अभीप्सित रहा पूर्ण होने लगा
आ रहा है बुलाया जिसे वो पिया

मोगरा जूही चम्पा महकने लगे
लग गईं झूमने कलियाँ कचनार की
धार यमुना की फिर साक्षी बन गई
एक चिर यौवना बढ़ रहे प्यार की
दूरियों के दिवस हो गये संकुचित
और सहसा निमिष मात्र में ढल गये
प्रीत की बांसुरी फिर लगी गूँजने
क्षण विरह के सभी मोम से गल गये

देहरी ने बजाते हुए चंग को
फ़ागुन रंग ला जेठ में भर दिया
द्वार की साँकलें भर के उल्लास में
धुन बजाने लगीं ओ पिया ओ पिया


चढ़ गई भावना पालकी में सजी
सामने आये घट नीर के सौ भरे
स्वर की लहरी उमड़ आई अमराई से
इस गली में, लगा देह जैसे धरे
पांव चूमें ,बनी पथ में रांगोलियाँ
राह में फूल की पांखुरें बिछ गईं
पतझरी मौसमों के अंगूठा दिखा

नव बहारों से सब टहनियाँ सज गईं
बुझ गये जो प्रतीक्षा में दीपक जले
है बरसती सुधा ने उन्हें भर दिया
बादलों के दरीचे से बोली चम
शिंजिनी ओ पिया ओ पिया ओ पिया

लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे

परिभाषित जो हुआ नहीं है, शब्दों में ढल भाव ह्रदय का
मैं उसमे ही डूबा डूबा लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे

ढलती हुई निशा ने बन कर कुन्तल की इक अल्हड़ सी लट
जो कुछ् कहा अधर पर आकर छिटकी ऊषा की लाली से
अँगड़ाई ले उठीं हुई गंधें कपोल की पंखुड़ियों से
जो अनुबन्ध गईं तय कर कर थिरकी कानों की बाली से

मीत ! तुम्हारे चंचल नयनों के काजल की स्याही लेकर
ढाल रहा उनको गीतों में जितने छन्द हुए कजरारे

रही फ़िसलती एक ओढ़नी को जो उंगली ने समझाया
या फिर जो रंगीन हथेली करती गई हिनायें कोमल
नयनों के पाटल पर संवरे चित्र बता देते जो मन को
और संवारा है सपनों में, अभिलाषा ने बन कर कोंप


वे ही भेद छुपे जो मन में चेहरे पर प्रतिबिम्बित होते
उनको करता हुआ शब्द मैं, बिखरे हैं होकर रतनारे

अनायास करने लग जाती है चूड़ी कंगन से बातें
पायल को कर साज छेड़ता सरगम सहसा रँगा अलक्तक
असमंजस के गलियारे में भटके निश्चय और अनिश्चय
और पांव के नख की पड़ती द्वार धरा के रह रह दस्तक

गतिमय समय निरंतर करता परिवर्तित बनते दॄश्यों को
लेकिन यही चित्र बनते हैं मेरे मन पर सांझ सकारे

रच गई है स्वप्न मेंहदी से

जब तुम्हारे चित्र आकर छू गये हैं दॄष्टि का नभ
रच गई है स्वप्न मेंहदी से नयन की तब हथेली
चेतना की वीथियों में पांव रखती छवि तुम्हारी
देहरी को लांघती है जिस तरह दुल्हन नवेली

और रँग जाती कई रांगोलियाँ सहसा ह्रदय में
ड्यौढ़ियों पर दीप जलने लग गये दीवालियों के

कर नये अनुबन्ध बिन्दी जब नयन की रश्मियों से
इन्द्रधनुषी उंगलियों से गुदगुदाती नैन मेरे
हीरकनियां अनगिनत तब झिलमिलाती धमनियों में
कल्पना में नॄत्य करते हैं अगन के सात फ़ेरे

और सिन्दूरी क्षितिज की रेख के प्रतिबिम्ब अनगिन
आ सँवरने लग गये हैं कुन्तलों की डालियों पे

उंगलियों के पोर छूने के लिये पल पल फ़िसलरा
रेशमी आंचल, ठिठकता एक पल को जब करों पर
उस घड़ी बनते हजारों चित्र सतरंगे सुनहरे
कल्पना के पाखियों के चन्द चितकबरे परों पर

तब ह्रदय की वीथियों के एक कोने से उमड़ते
भाव आ लगते सिमटने भावना की थालियों पे

--

गीत कैसे लिखूं

तीलियां घिसते घिसते थकीं उंगलियां


वर्त्तिका नींद से जाग पाई नही

शब्द दस्तक लगाते रहे द्वार पर

सुर ने कोई गज़ल गुनगुनाई नहीं

आपका है तकाजा रचूँ गीत मैं

चांदनी की धुली रश्मियों से लिखे

गीत कैसे लिखूं आप ही अब कहें

जब कि पायल कोई झनझनाई नहीं





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कुछ नये चित्र बनने लगे आँख में

कुछ नई गंध बसने लगी साँस में

कुछ नई आ मिली और अनुभूतियाँ

कुछ नये पंथ सजने लगे पाँव में

सोचने मैं लगा क्या अचानक हुआ

एक पाखी ने आ कर ये मुझसे कहा

कल जो सन्देश थी प्रीत लेकर गई

उसका उत्तर लिये आ रही है हवा

अंधियारे के जितने भी थे संबन्धी

दहलीजों ने भेजा जिनको कभी नहीं कोई आमंत्र
अंधियारे के जितने भी थे संबन्धी बन अतिथि आ गये
नभ ने गलियारों के परदे हटा किरण को पास बुलाया
लेकिन क्षितिजों पर से उमड़े बादल गहरे घने छा गये

अभिलाषा की हर कोंपल को बीन बहारें साथ ले गईं
जीवन की फुलवारी केवल बंजर की पहचान हो गई

यौवन की पहली सीढ़ी पर पूजा की अभिशापित लौ ने
झुलसायी आँखों में सँवरे सपनों की हर इक अँगड़ाई
सन्ध्या ने करील के झुरमुट में जितने भी दीपक टाँगे
उनसे दिशा प्राप्त करने में असफ़ल हो रह गई जुन्हाई

रजनी के आँचल में सिमटे अभिलाषा के निशा-पुष्प सब
और एक यह घटना जैसे पतझर को वरदान हो गई

जितनी भी रेखायें खींची, बनी सभी बाधायें पथ की
खड़ी हो गईं आ मोड़ों पर अवरोधों के फन फ़ैलाय
जीवन की गति को विराम दे गई शपथ वह एक अधूरी
जो गंगा के तट हमने ली थी हाथों में नीर उठाये

होठों पर की हँसी दिशायें बदल बदल आँखों तक पहुंची
और बही बन धारायें जो गज़लों का उन्वान हो गईं

यह टेस्ट पोस्ट है!!

बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ

भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी

जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में

बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये

चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

सोच रहे हैं तुम कह दो

सोच रहे हैं तुम कह दो तो कोई गीत लिखें
और तुम्हें हम नहीं अपैरिचित, अपना मीत लिखें

लिखती नाम फूल की पांखुर पर रोजाना शबनम
जमना तट की रेती पर लिखता रहता है मधुबन
हम भी करते हुए अनुसरण ये ही रीत, लिखें

लिखता चन्दन पुरबाई के आँचल पर गन्धें
लहरें लिखतीं गंगा के तट पर आ सौगन्धें
तुम जो कह दो अनुबन्धों में लिपटी प्रीत लिखें

लिखती भोर धूप से लेकर किरणों की स्याही
कोयल स्वर की कूची लेकर रँगती अमराई
हम भी राधा की पायल से ले संगीत लिखें

सोच रहे हैं तुम कह दो तो...............................

पंख कटा कर रह जाते हैं

सांझ ढले घिरने लगती है आंखों में जब जब वीरानी
नैनीताली संदेशे जब खो जाते जाकर हल्द्वानी
संचित पत्रों के अक्षर जब धुंआ धुंआ हो रह जाते हैं
शेष न रहतीं गंधें उनमें जिन फूलों को किया निशानी

और टपकती है चन्दा से पीली सी बीमार रोशनी
आशाओं के पाखी अपने पंख कटा कर रह जाते हैं

दिन के पथ पर दिख पाता है कोई चिन्ह नहीं पांवों का
पगडंडी को विधवा करता है आभास तलक गांवों का
खत्म हो चुके पाथेयों की झोली भी छिनती हाथों से
जो चेहरा मिलता है, मिलता ओढ़े शून्यपत्र नामों का

छत को शीश ओढ़ लेने की अभिलाषाओं के सब जुगनू
उच्छवासों की गहरी आंधी में उड़ उड़ कर बह जाते हैं

जब संकल्प पूछने लगते प्रश्न स्वयं ही निष्ठाओं से
डांवाडोल आस्थाओं की जो विकल्प हों उन राहों से
पीढ़ी पीढ़ी मिली धरोहर भी जब बनती नहीं विरासत
लगता है कल्पों का बोझा जुड़ता है अशक्त कांधों से

असमंजस के पल सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ते
ढाढस के पल पवनपुत्र से बने सूक्ष्म ही रह जाते हैं

सूखी हुई नदी के तट का प्यास बुझाने का आश्वासन
सुधियों के दरवाजे को खड़काता है खोया अपनापन
आईने के बिम्ब धुंआसे, और धुंआसे हो जाते हैं
साथ निभाता नहीं संभल पाने का कोई भी संसाधन

तब हाथों से फ़िसल गये इक दर्पण की टूटी किरचों मे
सपने टुकड़े टुकड़े होकर अनायास ही ढह जाते हैं

स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को

स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को
निंदिया के आँगन में तब से महकी है क्यारी गुलाब की


संध्या ने समेट ली थी जब बिछी हुई किरणों की चादर
यायावरी दिवस के पल सब लौटे थके, नीड़ को अपने
अम्बर ने लटका दीं विधु की विभा कमन्दें बना बना कर
आये उन पर उतर रात की अमराई से चल कर सपने

जो छू आये चित्र तुम्हारे वे आये मेरी खिड़की पर
दुहराते गाथायें सारी परी कथा वाली किताब की

धवल कपोतों के पंखों पर अटके हुए हवा के झोंके
रुक कर लगे देखने जितने चित्र पाटलों पर बन पाये
सपनों के गलियारे में जो चहलकदमियाँ किये जा रहे
चित्र तुम्हरे, से ले लेकर गीत प्रीत में भिगो सुनाये

जागी हुई हवायें तंद्रित होकर लगीं साथ में बहने
गंगा की धारा में लहरें उलझीं हैं आकर चिनाव की

चादर की सिकुड़न से करवट के जो मध्य रही है दूरी
सिमट गये कुछ चंचल सपने उसमें चुपके चुपके आकर
सांसो की कोमल सरगम पर अपना रंग चढ़ा कर गहरा
अलगोजा लग गये छेड़ने जल तरंग के साथ बजा कर

सरगम की स्वर लहरी पकड़े रहे झूमते सकल निशा में
बने लहर नभ की गंगा के धीमे से ठिठके बहाव की

आधी रात रात रानी के साथ महकता है जब बेला
तब उनकी अवगुंठित गंधों में थे डूबे और नहाये
अंतिम प्रहर रात का बरसा पिघल ओस की बून्दों में जब
तब हो उसमें सराबोर ये पलकों की कोरों पर आये

अलसाई अँगड़ाई के आँचल को थामे खड़े रहे हैं
छोड़ी नहीं किनारी पकड़ी नयनों पर बिछ गये लिहाफ़ की

छलछला रह गया है जो, पानी लिखें

ज़िन्दगी के सफ़र में सपन बन गई पर अधूरी रही जो, कहानी लिखें
नैन के बाँध को तोड़ उमड़ा नहीं
छलछला रह गया है जो, पानी लिखें



पांव गतिमान थे साथ गति के सद
कोई मंज़िल नहीं, राह निस्सीम थ
एक पल को भी विश्राम दे न सकी
चाहना की उफ़नती रही थी नदी
उंगलियाँ तो बढ़ीं थीं क्षितिज थाम लें
किन्तु क्षमतायें बौनी हुई रह गईं
दी न स्वीकॄति कभी एक उस बात की
आईने की छवि जो कभी कह गई

जो छलावा बनी, बस लुभाती रही
पास आई नहीं, रुत सुहानी लिखें

आस के बीज बोये हुए, चुग गया
बन पखेरू समय, उम्र के मोड़ पर
कामना बन्धनों में बँधी रह गई
बढ़ नहीं पाई सीमाओं को तोड़कर
भाव मन के सभी थरथरा रह गये
शब्द में ढाल कर होठ कह न सके
आँधियाँ आ उड़ा ले गईं पास का
पल विफ़ल प्राप्ति के सिर्फ़ बह न सके

मान जिसको रखा अपनी परछाईं था
दुश्मनी उसने सीखी निभानी लिखें

पतझड़ी पत्र बन कर दिवस उड़ गये
नींद थी रात से वैर ठाने हुए
धूप के जितने टुकड़े गिरे गोद में
सावनी मेघ के थे वे छाने हुए
पंथ ने पी लिये थे दिशा बोध के
चिन्ह जो भी लगाये गये राह में
पथ खज़ूरों तले ही झुलसते रहे
छाँह का पल न आया तनिक बाँह में


पूरे दिन सुरमई रंग ओढ़े रहा
नभ हुआ ही नहीं आसमानी लिखें

दीपमालिका अब ऐसी हो

जो चषक हाथ धन्वन्तरि के थमा, नीर उसका सदा आप पाते रहें
शारदा के करों में जो वीणा बजी, तान उसकी सदा गुनगुनाते रहें
क्षीर के सिन्धु में रक्त शतदल कमल पर विराजी हुई विष्णु की है प्रिया
के करों से बिखरते हुए गीत का आप आशीष हर रोज पाते रहें
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दीप दीपावली के जलें इस बरस
यूँ जलें फिर न आकर अँधेरा घिरे
बूटियाँ बन टँगें रात की ओढ़नी
चाँद बन कर सदा जगमगाते रहें

तीलियाँ हाथ में आ मशालें बनें
औ तिमिर पाप का क्षीण होता रहे
होंठ पर शब्द जयघोष बन कर रहें
और ब्रह्मांड सातों गुँजाते रहें

 
दांव तो खेलती है अमावस सदा
राहु के केतु के साथ षड़यंत्र कर
और अदॄश्य से श्याम विवरों तले
है अँधेरा घना भर रही सींच कर
द्दॄष्टि के क्षेत्र से अपनी नजरें चुरा
करती घुसपैठ है दोपहर की गली
बाँध कर पट्टियां अपने नयनों खड़ी
सूर समझे सभी को हुई मनचली

 
उस अमावस की रग रग में नूतन दिया
इस दिवाली में आओ जला कर धरें
रश्मियां जिसकी रंग इसको पूनम करें
पांव से सर सभी झिलमिलाते रहें

 
रेख सीमाओं की युग रहा खींचत
आज की ये नहीं कुछ नई बात हैअ
और सीमायें, सीमाओं से बढ़ गईं
जानते हैं सभी, सबको आभास है
ये कुहासों में लिपट हुए दायरे
जाति के धर्म के देश के काल के
एक गहरा कलुष बन लगे हैं हुए
सभ्यता के चमकते हुए भाल पे

ज्योति की कूचियों से कुहासा मिटा
तोड़ दें बन्द यूँ सारे रेखाओं के
पीढ़ियों के सपन आँख में आँज कर
होंठ नव गीत बस गुनगुनाते रहें

 
भोजपत्रों पे लिक्खी हुई संस्कॄति
का नहीं मोल कौड़ी बराबर रहा
लोभ लिप्सा लिये स्वार्थ हो दैत्य सा
ज़िन्दगी भोर से सांझ तक डँस रहा
कामनायें न ले पाई सन्यास है
लालसा और ज्यादा बढ़ी जा रही
देव के होम की शुभ्र अँगनाई में
बस अराजकता होकर खड़ी गा रही

आओ नवदीप की ज्योति की चेतना
का लिये खड्ग इनका हनन हम करें
और बौरायें अमराईयाँ फिर नई
गंधमय हो मरुत सरसराते रहें

केवल तेरा नाम पुकारा

सरगम के पहले पहले सुर से जो जुड़ा, नाम तेरा है
इसीलिये प्रस्फ़ुटित स्वरों ने केवल तेरा नाम पुकारा

वीणा के कम्पित तारों से धुन जब जागे, तुझे पुकारे
प्राची के पट खोले ऊषा नित्य भोर में, तुझे निहारे
वनपाखी के स्वर में तू ही, तू हीन गुंजित मंत्र ध्वानि में
तेरा नाम गुनगुना कर ही लहरें तट के पांव पखारे

बही हवा की वल्लरियों में वंशी के पोरों को छूकर
तेरा ही बस एक नाम है तान तान ने जिसे उचारा


श्यामल घटा मधुप का गायन, जलतरंग की कोमल सिहरन
नयन दीर्घा से सम्प्रेषित, मौन तरंगों का आलोड़न
भावों का मॄदु स्पर्श, सुरीले अहसासों की फ़ैली चादर
और शिराओं में संवाहित होती हुई अजब सी झन झन

सन्देशों के आदिकाल से क्रमवत होती हुई प्रगति का
केवल तू ही उत्प्रेरक है, जिसने इनका रूप निखारा

मात्राओं ने सहयोगी हो शिल्प संवारा जब अक्षर का
ध्वनियों ने अनुशासित होकत, जब आकार लिया है स्वर का
भाषाओं की फुलवारी में महके फूल शब्द के जब जब
या कि व्याकरण की उंगली को पकड़े ह्रदय छंद का धड़का

तब तब उभरा है तेरा ही संबोधन, चित्रण औ’ गायन 
तेरा नाम सुवासित करता है गलियाँ, आँगन चौबारा

आवश्यक है क्या ?

पूजा दीप बना मंदिर में जल जाऊँ आवश्यक है क्या
तुमसे प्यार मुझे है सबको बतलाऊँ आवश्यक है क्या ?

किससे कहूँ तुम्हारा मेरा साथ- धार का है उद्गम से
तुमसे जुड़ा नाम रहता है ज्यों प्रयाग का जुड़ संगम से
चन्दन  के संग हो पानी का, हो प्रसाद का तुलसी दल से
वीणा के तारों की कंपन का रिश्ता होकर सरगम से

एक बात को सुबह शाम मैं दुहराऊँ आवश्यक है क्या ?
तुमसे प्यार मुझे है सबको बतलाऊँ आवश्यक है क्या ?

कहूँ ह्रदय हो तुम सीने में और तुम्हारी धड़कन हूँ मैं
तुम हो एक पैंजनी झंकॄत और तुम्हारी थिरकन हूँ मैं
तुम अज्ञात अबूझे हो तो मैं रहस्य हूँ कोई गहरा
हो तुम झोंका गंध भरा, तुमसे उपजी जो सिहरन हूँ मै

वर्णित करता तुम्हें गीत में, मैं जाऊँ आवश्यक है क्या ?
तुमसे प्यार मुझे है सबको बतलाऊँ आवश्यक है क्या ?

चढ़ते हुए दिवस की होती दोपहरी बनने की आशा
करूँ निकटता प्राप्त तुम्हारी पल पल पर बढ़ती अभिलाषा
आवारा हो गई हवाओं के सँग मचली हुई लहर सी
उड़ी उंमंगों का क्षितिजों का पार जानने की जिज्ञासा

लेकिन जो कुछ छुपा हुआ है,जान पाऊँ,आवश्यक है क्या ?
तुमसे प्यार मुझे है सबको बतलाऊँ आवश्यक है क्या ?

कपोल चूमे पिया तुम्हारे

ज्यों पूर्णिमा को घिरीं अचानक घटायें श्यामल आ चन्द्रमा पे
बिखरते कुन्तल ने आज वैसे कपोल चूमे पिया तुम्हारे

ज्यों दूध, केसर घुले हुए में पड़ी परत हो इलायची की
या राधिका के बदन पे पड़ती हो श्याम परछईं श्याम की ही
ज्यों पर्वतों के हिमाच्छादित  शिखर पे उमड़ें धुंये के बादल
दिवस के तीजे प्रहर में उतरे आ पालकी ढलती शाम की ही

ज्यों बाग में आ मधुप ने चुम्बित किये अधर कलियों के सुकोमल
कुछ वैसे चंचल चिकुर मचल कर अधर को चूमें पिया तुम्हारे

सुबह की पहली किरन ने झांका निशा की जैसे हटा के चादर
ज्यों चमके बिजली घनी घटाओं में जो कि उमड़ी हो सावनों में
हो चमकी यमुना नदी के तट पर थिरकती परछाईं ताजंमहली
या रास करती दिखे है गोपी नदी किनारे सघन वनों में


हटा के गहरा तना कुहासा हो खोलता पट उषा के दिनकर
सुबह की लाली आ केश छितरा अधर को चूमे पिया तुम्हारे


लिया दिशाओं ने आँज काजल हो जैसे चौदहवीं यामिनी को
या नभ की मंदाकिनी के तट पर घिरे हों आकर घने कुहासे
खिला हो नीरज अमावसी इक निशा के यौवन में मुस्कुराकर
या संगे मरमर को आबनूसी शिला में जड़कर कोई तराशे


अंधेरे मन की गहन गुफ़ा में छनी हो आकर के रश्मि कोई
हैं चित्र संवरे अजन्ता बन के, ह्रदय के पट पर पिया तुम्हारे

किसी भी गीत को गाते नहीं हैं

कसमसाते, छटपटाते स्वर गले के आ अधर पर
किन्तु जाने क्यों किसी भी गीत को गाते नहीं हैं

 
गीत बन गोविंद चढ़ते बाँसुरी पर जिन पलों में
वे सभी पल आज सहसा ही अपिरिचित हो गये है
प्रीत के पुंकेसरी कण जो उड़ाती थीं हवायें

आज वे चढ़ कर घटाओं के परों पर खो गये हैं
वादियों में शांत हो लेटी हुई पगडंडीयाँ अब
हैं गई कतरा, न देती पगतली पर दस्तकें भी
चिमनियों से उठ रहे अलसाये बल खाते धुँए में
गुंथ गई हैं हलचलों की सोई जागी करवटें भी

हाथ में लेकर कटोरा शब्द की लाठी संभाले
जो खड़ा है भाव उससे नैन मिल पाते नहीं हैं


थरथराती कल्पना की टूटती लेकर उड़ानें
फिर धराशायी हुई है भावना मन की अकेली
पंथ पनघट के विजन हैं हैं सभी चौपाल उजड़ी
शून्य में केवल खड़ी है देह की खेंडहर हवेली
उंगलियों के पोरुओं पर अक्षरों के चंद मनके
घूम फिर कर फिर उसी प्रारंभ पर आ रुक गये हैं
जो कभी तन कर खड़े थे देवदारों से बड़े बन
वे सभी संकल्प जाने क्यों अचानक झुक गये हैं

भेजती रहती निगाहें स्वप्न को अविरल निमंत्रण
पर क्षितिज पर धुंध में आकार बन पाते नहीं हैं

जल रही हैं नित अपेक्षायें दिये सी जगमगाती
आस के भ्रम को उगी किरणें सुबह की तोड़देतीं

साध करती है निरन्तर वैर सुधि के दर्पणों से
बिम्ब के आभास को परछाईं केवल ओढ़ लेती
खंड होते हैं खिलौने कांच के जब पत्थरों पर
तब ह्रदय के व्योम में सूरज हजारों फूट जाते
हाथ से फिसले हुए दिन, चाह होती थामने की
वह पहुँच से दूर होकर खिलखिलाकर मुँह चिढ़ाते


एक ही दिशि में चली हैं सामने फ़ैली डगर सब
और इन पर जो चले पग लौट फिर पाते नहीं हैं

देहरी पर दीपक जलते तो हैं पर सभी उधार के

कितनी बार आस के पंछी उड़े व्योम में वपिस लौटे

भरने को उड़ान लम्बी सी, पंख रहे हैं उनके छोटे
मुट्ठी में हो कैद रह गये स्वप्न सभी विस्तार के
मुरझा गये फूटने से पहले ही अंकुर प्यार के


जीवन की नौटंकी में था सूत्रधार अलसाया कोहरा
टँगा हुआ था मावस्या का अंधियारा होकर के दोहरा
नेपथ्यों में विलय हो गई कथा पटकथायें निर्देशन
मुख्य भूमिका चुरा ले गया पिटा वक्त से जो था मोहरा


दॄश्य दीर्घा में बैठे आ आलोचक व्यवहार के
मुरझा गये फूटने से पहले ही अंकुर प्यार के


टीका लगा तिमिर को कितनी बार विदा कर कर के भेजा
रंग वही लेकिन भर पाया पागल इस मन का रंगरेजा
शीशे के टुकड़ों से बिम्बित हुई न आकर किरणें, भटकीं
गंध बिखर उड़ गई हवा में कितना उसको रखा सहेजा


खिले नही अँगनाई में बोये पौधे कचनार के
मुरझा गये फूटने से पहले ही अंकुर प्यार के


आयातित होते प्रकाश पर रहा नहीं अधिकार हमारा
हुआ नहीं अपना पहले से ले आखिर तक कोई सितारा
फूटे हुए कुमकुमों में था शेष नहीं अवशेष ज्योति का
संचय की झोली में आकर रह नहीं पल भी उजियारा


देहरी पर दीपक जलते तो हैं पर सभी उधार के
मुरझा गये फूटने से पहले ही अंकुर प्यार के

स्वर में रँग कर गाते तो हैं

सम्बन्धों की छार छार हो चुकी चूनरी में हम अपने
समझौतों के टूटे टुकड़ों के पैबन्द लगाते तो हैं
शब्द नहीं हैं, शिल्प नहीं हैं भावहीन हों चाहे लेकिन
मन की आवाज़ों को अपने स्वर में रँग कर गाते तो हैं

जुड़ा नहीं परिचय का धागा, गुरुकुल वाले संस्कार से
रही ज्योति की चाह हमेशा निकल न पाये अंधकार से
आकांक्षा थी दीपित हों हम, इसीलिये दिन रात जले हैं
एकलव्य की निष्ठायें भी भरीं अंक में हर प्रकार से

द्रोणाचार्य भले ही अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे हैं
लेकिन अपना एक अँगूठा हम फिर भी कटवाते तो हैं

रहीं पूर्णिमा, पंचम, द्वितीया या एकादशियां पक्षों की
रखी सजा पूजा की थाली, रँग लीं दीवारें कक्षों की
धूप अगरु लोबान जला कर बुना धुँए का सेतु गगन तक
श्रुति की नई व्याख्या सुन लीं, उसके तथाकथित दक्षों की

ज्ञात रहा पत्थर ही तो है, जो नदिया के तल से निकला
श्रद्धा में पर डुब आस्था, उस पर नीर चढ़ाते तो हैं

चला नहीं है साथ पंथ पर, थाम हाथ हाथों में कोई
अभिलाषाओं की संस्मॄतियां, एकाकी हो वन में खोई
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये झंझाओं से लड़ते लड़ते
कॄत संकल्पों की सब घड़ियाँआखिर में थक कर के सोईं

थकी हुई आशाओं के बिखरे धागे एकत्रित कर के
बाती में बट, विश्वासों का फिर से दीप जलाते तो हैं

नहीं भीड़ में जगह पा सकीं जब पहचानों की रेखायें
जागी नहीं शीत परिवेशों में अपनेपन की उष्मायें
उमड़े हुए सिन्धु के तट पर सीपी शेष न कोई पाई
किये समर्पण झुकी धरा पर जब जीवन की सभी विधायें

संस्कॄतियों से मिली भेंट में , खंडित हुई आस्थाओं की
नये सिरे से अपने मन में प्रतिमा एक बनाते तो हैं

सोचता मै रहा पत्र तुमको लिखूँ

सोचता मै रहा पत्र तुमको लिखूँ
और लिख दूँ कि तुम हो बसे सांस में
हो चकोरी जिसे मन सजाता रहा
तुम बसे पूनमी उस मधुर आस में


गंध ने तितलियों के परों पर लिखी
बात मन की मेरे चित्र में खींचकर
एक बादल कली को बता कर गया
क्यारियों की गली में उसे सींच कर
दूब पर ओस की बून्द से लिख लिया
रश्मियों ने जिसे मुस्कुराते हुए
बात वह, मलयजी इक झकोरा हुआ
प्रीत के रंग में गुनगुनाते हुए


पत्र में फिर लिखूँ बात मैं इक वही
जो दिवस लिख रहा नित्य आकाश में


ये लिखूँ मैं, तुम्हारी है जादूगरी
जो मेरे तन पे, मन पे है छायी हुये
शब्द होठों पे मेरे संवरते वही
गीत में तुमने जो गुनगुनाये हुये
चित्र बन तुम दिवस साथ मेरे रहे
स्वप्न बन कर रहे तुम मेरी नींद के
नैन में तुम बसे चन्द्रमा की तरह
चौदहवीं रात के, दूज के, ईद के


सोचता हूँ लिखूँ दूर जो तुम वही
और तुम ही मेरे आस में पास में


जानता तुम कहोगे विदित है तुम्हें
एक तुम हो मेरी मंगला आरती
एक तुम भावनाओं की भागीरथी
हो प्रवाहित चरण जिसके प्रक्षालती
और तुम मेरे विश्वास का नीर हो
है भरी जिससे मेरी सदा आंजुरी
और तुम ही वही रंग की पूर्णता
जिससे है अल्पना ज़िन्दगी की पुरी


एक तुम हो मेरी बांसुरी की धुनें
और हो नॄत्य तुम मेरे हर रास में

बस इतना विश्वास बहुत है

तम की सत्ता से लड़ने को, हाथों में मशाल हो न हो
एक दीप है साथ हमारे बस इतना विश्वास बहुत है


अंधियारे ने किये हुए हैं घड़ियों से कितने गठबन्धन
आंखों की क्यारी में बोये हों ला लाकर कितने क्रन्दन
उलझ्हा दी हों गांठें रचकर सपनों के कोमल धागों में
सुलगा हुआ ह्रदय महका है, लेकिन फिर भी बन के चंदन


साथ हमारा दे या न दे, लम्बी एक उमर की डोरी
आशा के हिमगिरि रचने को एक अकेली सांस बहुत है


करने भ्रमित बनाये हो पथ, पग पग पर अनगिन चौराहे
पत्थर सभी मील के पी लें, पथचिन्हों के अक्षर चाहे
व्यूहों में घिर कर रुकते हैं लेकिन कहाँ हवा के झोंके
सब अवरोध छिन्न हो जाते पल में बने रुई के फ़ाहे


धाराओं के हर प्रवाह पर बाँध बने हों चाहे जितने
सावन नया बुला लाने को बस अधरों की प्यास बहुत है


बिखरे हों ठोकर खा खा कर कितने ही अक्षत हाथों के
पंखुड़ियों से बिखराये हों, सपने पूनम की रातों के
फिर भी बीज सॄजन के बोने का निश्चय तो अटल रहा है
जुड़ते आये विश्वासों से नित नूतन बंधन नातों के


छंद भेद के नियम भले ही कितने भी प्रपंच रच डालें
नई व्याकरण रच देने को केवल इक अनुप्रास बहुत है

अंकुरित कोई अब मुस्कान कभी हो पाये

परिणति, जलते हुए तवे पर गिरी हुई पानी की बूँदे
मन की आशा जब यथार्थ की धरती से आकर टकराये


अपने टूटे सपनों की अर्थी अपने कांधे पर ढोते
एकाकीपन के श्मशानों तक रोजाना ले जाते हैं
चुनते रहते हैं पंखुरियां मुरझा गिरे हुए फूलों की
जो डाली पर अंगड़ाई लेने से पहले झर जाते हैं

पथ की धूल निगल जाती है पदचिह्नों के अवशेषों को
सशोपंज में यायावर है, दिशाज्ञान अब कैसे पाये

सजी नहीं है पाथेयों की गठरी कब्से उगी भोर में
संध्या ने दर्वाजा खोला नहीं नीड़ जो कोई बनता
संकल्पों को लगीं ठोकरें देती नहीं दिलासा कोई
उमड़े हुए सिन्धु में बाकी नहीं कहीं पर कोई तिनका

बिखर गये मस्तूल, लहर ने हथिया लीं पतवारें सारी
टूटी हुई नाव सागर में, कब तक और थपेड़े खाये

शूल बीनते छिली हथेली में कोई भी रेख न बाकी
किस्मत के चौघड़िये मे से धुल बह गये लिखे सब अक्षर
बदल गई नक्षत्रों की गति, तारे सभी धुंध में लिपटे
सूरज निकला नहीं दुबारा गया सांझ जो अपने घर पर

अधरों के स्वर सोख लिये हैं विद्रोही शब्दों ने सारे
सन्नाटे की सरगम लेकर गीत कोई कैसे गा पाये

सपने अभ्यागत बनकर अब आते नहीं नयन के द्वारे
खामोशी का पर्वत बनकर बाधा खड़ा हुआ आंगन में
अभिलाषा का पथ बुहारते क्षत विक्षत होती हैं साधें
मन मरुथल है, बादल कोई उमड़ नहीं पाता सावन में

पतझर बन कर राज कुंवर, सता ले बैठा सिंहासन पर
संभव नहीं अंकुरित कोई अब मुस्कान कभी हो पाये

हो मीत तुम्हारा ही चौबारा

जब जब भी बहार का झोंका गुजरा उपवन की गलियों से
चूम कपोलों को कलियों के लिख कर जाता नाम तुम्हारा


शाखों पर कोमल पत्तों ने लेकर बासन्ती अँगड़ाई
जब जब अपनी पलकें खोलीं, तब तब स्वप्न हवा में बिखरे
और उमड़ती हुई गंध की एक टोकरी जब छितराई
तब तब धारे बही हवा के, डूब रंग में हुए सुनहरे


अलसाये पल भी उस पल में ऐसे ही प्रतीत होते हैं
जैसे ढली दुपहरी में हो मीत तुम्हारा ही चौबारा


नदिया की धारा से बतियाती हैं जब बरखा की बूंदें
या पनघट पर कलसी बोले कुछ चूड़ी वाले हाथों से
सप्त-स्रोत से संचित होकर अभिमंत्रित होता कहता है
अभिषेकों के पल में जो, जल चढ़ता प्रतिमा के माथों पे


उनके सब शब्दों में सुर में जो कुछ मिला समाहित होकर
उसे प्रीत डूबे अधरों ने ही तो है हर बार उचारा


पवन पालकी में बिठला कर विदा गंध को करता है जब
फूल नहीं कुछ भी कह पाता अधर थरथरा रह जाते हैं
विचलित हो पराग के कण भी जब चल देते पीछे पीछे
उस पल तितली भंवरे आकर जो कुछ उनको समझाते हैं


वे सब कही अनकही बातें और अवर्णित पल हैं जितने
इतिहासों की गाथाओं की उन पर छाप लगी दोबारा


यादों की बारिश में भीगे या सुधियों की धूप सेंकते
मन के आवारा पल आंखों में कुछ चित्र खींच देते हैं
एक विभोरित अनुभूति की चंचल सी अंगड़ाई के पल
दिवास्वप्न की उगती प्यासों को दे नीर सींच देते हैं


अपने हुए एक मुट्ठी भर उन निमिषों की संचित थाती
रहती है अंगनाई में बन, निर्देशन का एक सितारा

याद तुम्हारी ही बरसाये

फिर सावन की ॠतु आई है फिर अम्बर पर बादल छाये
केवल एक तुम्हारी यादें, हर उमड़ा बादल बरसाये


मल्हारों में घुल कर गाती हैं जो भीगी हुई हवायें
या रिमझिम झीलों की लहरों से जा जा कर जो बतियाये
संदलबदए ! नाम तुम्हारा है, जिसको चाँदी की रेखा
बनकर कलम श्याम पन्ने पर आ अंबर के लिखती जाये


मीठा सा अहसास उभर कर मुझे बाँह में भरता जाये
केवल एक तुम्हारी यादें, हर उमड़ा बादल बरसाये


खिड़की के शीशे पर नाचा करते इन्द्रधनुष अनगिनती
एक तुम्हारी छवि ही रँग कर निज रंगों में दिखलाते है
बून्दों की दस्तक खोला करती है द्वार नयन के फिर से
जोकि तुम्हारी छवि प्रवेश के बाद स्वयं ही भिड़ जाते हैं


उठी धरा से सौंधी खुश्बू गंध तुम्हारी बन छा जाये
केवल एक तुम्हारी यादें, हर उमड़ा बादल बरसाये


उमड़ी हुई घटायें देती हैं आवाज़ें, खुल जाते हैं
आधे लिखे हुए गीतों की पुस्तक के सारे ही पन्ने
और तुम्हारे चित्रण वाले गीत पूर्ण हौं इससे पहले
छलकी भावों की गागर से नये गीत लगते हैं बनने


लेकिन फिर भी जाने कैसे गीत अधूरा हर रह जाये
केवल एक तुम्हारी यादें हर उमड़ा बादल बरसाये

जाने क्यों ?

जाने क्यों हर गीत अचानक लगता है रह गया अधूरा
जाने क्यों लगता है कह कर भी कुछ तो कहना है बाकी
जाने क्यों लगता है मदिरा सुधि ने जितनी पी है कम है
जाने क्यों लगता है प्याला छोड़ रही है रीता साकी

जाने क्यों लगता है मुट्ठी बन्द, अभी भी खुली हुई है
जाने क्यों लगता है सपबा और एक बनना नयनों में
जाने क्यों लगता है अब भी है श्रंगार अधूरा मन का
जड़े कल्पनाओं में , बाकी शेष अभी है कुछ गहनों में

जाने क्यों लगता है बातें मेरी अभी अधूरी हैं सब
यद्यपि निशा लगी है ढलने तुमसे वे सब कहते कहते
जाने क्यों लगता है मन का पर्वत अब भी है वैसा ही
चाहे वर्षों बीत गये हैं एक पीर में उसे पिघलते

जाने क्यों लगता है परिचय के पश्चात अपिरिचित हो तुम
जाने क्यों लगता है मेरे होकर, नहीं हुए तुम मेरे
जाने क्यों लगता है हर एक रोज उषा आती है जब जब
सूरज के सँग ले आती है और उमड़ते घने अँधेरे

जाने क्यों लिखकर भी ऐसा लगता, लिखा नहीं है कुछ भी
जाने क्यों हर बार शब्द ये मेरे, अक्षम हो जाते हैं
तुम यदि समझ सको तो आकर मुझको भी बतलाते जाना
कहाँ छन्द बनने से पहले भाव ह्रदय के खो जाते हैं

बीन के पांखुर पांखुर

फूल उम्मीद के खिलते ही रहे हर सुबह
सांझ ले जाती रही बीन के पांखुर पांखुर
बात होठों पे मचलती तो रही शब्द बने
साथ देने को गले से न उठा लेकिन सुर

हमने गमलों में सदा चांद किरण बोई हैं
और चाहा है खिलें फूल सितारों के ही
हमने आशायें दिवाली के दियों में पोईं
और चाहा है रहें राह बहारों की ही
स्वप्न की झील में रातों को लगाते गोते
सूर्य से रोज सुबह मांगा है मोती हमने
ओस की बून्दों में ढूँढ़े हैं सदा हीरकनी
चाह का शैल नहीं पल भी दिया है गलने

पर दुपहरी में मरुस्थल के किसी पनघट सी
रिक्त रह जाती रही बांधी हुई हर आंजुर

कांच के टुकड़ों से छितरी हुई किरणें लेकर
हमने आशा की दुल्हन के हैं सजाये गहने
ज्ञात ये हो भी ग्या सूख रहे हैं उद्गम
एक निर्झर जो बहा उसको दिया है बहने
मानते आये निशा जब भी कदम रखती है
कुमकुमे आप ही जलते हैं रोशनी झरती
एक विधना की उंगलियों की थिरक है केवल
ज़िन्दगी जिसके इशारे पे रही है चलती

आज को भूल गये कल क्या लिये आयेगा
बस यही जान सकें होते रहे हैं आतुर

हम तमाशाई बने देख रहे हैं जीवन
पात्र बन पायें कभी, हो न सका है साहस
हम स्वयं राह बनायें न हुआ है चाहा
कोई निर्देश हमें देके दिखा जाये बस
अपनी बांहों में भरे एक कली की खुश्बू
हम रहे उलझे कथाओं में परी वाली जो
अपनी आशा के उजालों में पिरो कर रातें
अपने ही घेरे में रहते हैं सदा ही हम खो

साज के तार को उंगली न कभी छेड़ी है
किन्तु चाहे हैं खनकते ही रहेंगे नूपुर

शब्दों को गीतों में किस तरह सजाउँ

ओ सुलोचने छुआ नहीं है जिन्हें तेरे अधरों की स्मित ने
तू ही बतला उन शब्दों को गीतों में किस तरह सजाउँ

तेरे एक कंठ के स्वर से मिला जन्म है रागिनियों को
तेरी वाणी की थिरकन से सरगम ने आ आंखें खोलीं
तेरे दॄष्टि पात से उभरी भोर नई अँगड़ाई लेकर
तेरे कुन्तल लहराये तो रजनी की उतरी आ डोली

पलको के पीछे अब तक जो लेकिन सोई हुई सांझ है
नीरजनयने तू ही बतला कैसे उसका रूप दिखाऊँ

उठे हाथ अलसाये तेरे लहरें लगीं काँपने तट पर
पथरज ने पग चूमे तेरे, द्वारे पर बन गई अल्पना
आँचल की लहराती कूची ने रँग दिया क्षितिज रंगों में
त्रिवली की थिरकन से पाने लगती है विस्तार कल्पना

एक एक कण बँधा प्रकॄति का तेरे नयनों की चितवन से
कला साधिके ! सोच रहा हूँ उसको क्या दे नाम बुलाऊँ

तेरे अधर खुले तो पाया अर्थ नया कुछ गाथाओं ने
तेरी अर्ध निमीलित पलकें निशा दिवस को किये नियंत्रित
तेरे हाथों की मेंहदी के बूटों ने जब छेड़ा इनको
कंगन ने सारंगी बनकर नूतन राग किये अन्वेषित

लेकिन जो इक परछाईं के साये में घुल कर ही रह ली
ओ शतरूपे बतला कैसे उस प्रतिमा पर फूल चढ़ाऊँ

यह गीत आख़िर कौन गाता

मौन सरगम की अधूरी रागिनी का हाथ थामे
ज़िंदगी के तार पर यह गीत आख़िर कौन गाता

है अजानी सी किसी अनुभूति का यह स्पर्श कोमल
गंध की बदरी उमड़ कर कर आई कोई वाटिका से
पांखुरी को छु रही हो बूँद कोई ओस की ढल
दूब में सिहरन कोई जागी हुई चंचल हवा से

जानने की कोशिशें आती नहीं हैं हाथ मेरे
शिंजिनी में देह की है कौन आकर झनझनाता

सूर्य की पहली किरण की दुधमुँही अंगड़ाई जैसा
बालपन से रह रही मन में किसी परिचित कथा सा
है उतरता दॄष्टि की अँगनाई में बन कर दुपहरी
घेर कर जिसको खड़ा है भोर से जैसे कुहासा

बढ़ रही महसूसियत की खिड़कियों पर आ खड़ा हो
कौन है आकाश पर जो चित्र कोई खींच जाता

दर्पणों पर झील के लिक्खा हवा के चुम्बनों ने
जलतरंगों ने जिसे तट की गली में आ सुनाया
धूप का सन्देश उलझा शाख की परछाईयों में
मोगरे ने मुस्कुरा जो रात रानी को बताया

एक वह सन्देश जिसने केन्द्र मुझको कर लिया है
कौन है आ परिधि पर होकर खड़ा मुझको सुनाता

नया ही प्रश्न पत्र लेकर आती है

देते हैं हम नित्य परीक्षा, पीड़ाओं के अध्यायों की
और सांझ हर बार नया ही प्रश्न पत्र लेकर आती है

टूटे हुए स्वप्न की किरचें चुनते चुनते छिली हथेली
पंथ ढूँढ़ते हुए पथों का, पड़े पांव में अनगिन छाले
पथरा गई दृष्टि अम्बर के सूने पन को तकते तकते
दीप शिखा ने स्वयं पी लिये हैं दीपक के सभी उजाले

जब भी चाहा संकल्पों की काँवर को कांधे पर रख लें
शब्द भेद तीरों की यादें आकर दिल दहला जाती हैं

मुरझा गये पुष्प परिचय के, छुईमुई से छूकर उंगली
रिश्तों के धागे कच्चे थे, तने जरा तो पल में टूटे
घिसी हथेली तो सपाट थी एक कांच के टुकड़े जैसी
असफ़ल हुई हिना भी चिन्हित कर पाती जो कोई बूटे

चाहा तो था उगी भोर में नित हम कोई सूर्य जलायें
किन्तु उमड़ती बदली आकर फिर सावन बरसा जाती है

समझौतों के समीकरण को सुलझाने में समय निकलता
एकाकीपन हिमपर्वत सा एक बून्द भी नहीं पिघलता
स्थिर हो गये पेंडुलम से बस लटके असमंजस के साये
एक कदम आगे बढ़ने का हर प्रयास दो बार फ़िसलता

जब अनुकूल हवाओं के झोंकों को किया निमंत्रित, जाने
कैसे झंझा उमड़ उमड़ कर खुद द्वारे पर आ जाती है

वह अनलिखा पत्र लिख डालूँ

आंखों में फिर तिर आये वे यादों की पुस्तक के पन्ने
बुदकी फ़िसली सरकंडे की कलमों से बनती थी अक्षर
प से होता पत्र, जिसे था लिखना चाहा मैने तुमको
जीवन की तख्ती पर जिसके शब्द रह गये किन्तु बिखर कर

शायद कल इक किरण हाथ में आकर मेरे कलम बन सके
सपना है ये, और तुम्हें मैं वह अनलिखा पत्र लिख डालूँ

फिर उभरे स्मॄति के पाटल पर धुंधले रेखाचित्र अचानक
सौगंधों के धागे कि्तने जुड़ते जुड़ते थे बिखराये
पूजा की थाली का दीपक था रह गया बिना ज्योति के
और मंत्र वे जो अधरों तक आये लेकिन गूँज न पाये

शायद पथ में उड़ी धूल में लिपटा हो कोई सन्देसा
सपना है ये, और बुझा मैं दीपक फिर वह आज जला लूँ

फिर आकर महकी हैं मन में गंधों भरी हवाये वे सब
जो कि तुम्हारे रची हथेली से उनवान लिया करती थीं
सांसों की गलियों में आकर जो धीमी आवाज़ लगाती
और इत्र की फ़ुहियों बन कर मुझसे बात किया करती थीं

शायद फिर से बही हवा में लिपटे वे ही गंध सुगन्धी
सपना है ये, और उन्हें मैं फिर से अपने गले लगा लूँ

देती हैं दस्तक आ आकर सुधि पर सुघर पदों की चापें
जिनका करते हुए अनुसरण, निशि में ओस झरा करती थी
तय करते मन का गलियारा, बन जाती थी धड़कन की धुन
और उमंगों की क्यारी में नूतन आस भरा करती थी

खिली धूप की परछाईं में फिर से उभरें वे पदचापें
सपना है ये, और उमंगों को मैं फिर से नया बना लूँ

गीत बस दुहरा रहा हूँ

ज़िन्दगी ने एक दिन जो झूम कर था गुनगुनाया
आज भी मैं प्रीत का वह गीत बस दुहरा रहा हूँ

जब ह्रदय में आप ही उपजे निमंत्रण मंज़िलों के
थी डगर ने माँग अपनी पूर ली थी गंध लेकर
दीप आकर जल गये थे रात की अंगनाईयों में
फूल नभ में खिल गये थी रंग की सौगंध लेकर

चित्र जो इक खिंच गया था आप ही आकर नयन में
मैं उसी में रात दिन बस रंग भरता जा रहा हूँ

जब मरुस्थल सज गया था महकती फुलवारियों में
टांक दीं लाकर हवा ने झाड़ियों में सुगबुगाहट
केतकी जब खिल गई थी इक खुले दालान में आ
कोंपलों में भर गई जब इक अनूठी सरसराहट

उस घड़ी जो इक लहर ने कह दिया था तीर पर आ
मैं वही किस्सा तुम्हें आकर सुनाता जा रहा हूँ

जब सुकोमल रूप आकर ॠषि नयन में बस गया था
मुद्रिका खोई हुइ जिस पल अचानक मिल गई थी
शास्त्र सारे बह गये थे मंत्रमुग्धित हो जहां पर
सृष्टि जब भगवत कथा के पाठ से आ मिल गई थी

शंख सीपी लिख गये जो सिन्धु के तट पर कहानी
ढाल कर मैं कंठ में उसको सुनाता जा रहा हूँ

लेकिन कभी कभी जाने क्यों

असमंजस के धागों से हम यूं तो दूर रहे हैं अक्सर
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों

दिन व्यय किया रखा तब हमने निमिष निमिष का जोखा लेखा
हर रिश्ते को हर नाते को नापा और तोल कर देखा
परखा अपनी एक कसौटी पर जो मिला कहीं भी कुछ भी
और सदा अपनी सीमायें तय कर, खींचीं लक्ष्मण रेखा

निर्धारित है रही समय की गति ये हमको ज्ञात रहा है
चाहा कालचक्र रुक जाये, लेकिन कभी कभी जाने क्यों

बातें करते हैं अर्थात लिये हो ताकि नहीं कोई भ्रम
धारा से परिचय से पहले जान लिया है उसका उद्गम
डगमग पग हों नहीं इसलिये चले संतुलित कर कदमों को
मानचित्र पर राह बनाई, हो न सके कोई भी दिग्भ्रम

परिभाषा की व्याख्याओं में गहरे खूब लगाये गोते
शब्द अपैरिचित हो जाते हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों

दुविधा, संशय, संदेहों से परिचय कभी नहीं हम जोड़े
आशंका के धागे कत लें, इससे पहले ही सब तोड़े
अगवानी के लिये द्वार पर निश्चय की प्रतिमा रख दी थी
ऊहापोह भरे पल जितने भी थे वे सब पीछे छोड़े

हम हर बार चुनौती देकर बाधाओं को पास बुलाते
परछाई से डर जाते हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों

तुम न आये




परे हो खिड़कियों के झांकती थी शाख से बदली
लिये थी कामना रंगीन चित्रों की सजा पगली
उमंगों की हिलोरों में उठाती मदभरी लहरें
उतरती दूब पर पाने परस थी पांव का मचली

सजे ही रह गये अगवानियों के थाल,आरति कर न पाये
तुम न आये

सिमट कर रह गया मॄदुप्रीत का अरुणाभ आमंत्रण
निशा के अश्रुओं ने सींच कर महका दिया चन्दन
कसकती रह गईं भुजपाश की सूनी पड़ी साधें
शिथिल ही रह गया द्रुत हो न पाया ह्रदय का स्पंदन

खिड़कियों के पट खुले ही रह गये, फिर भिड़ न पाये
तुम न आये

भिखारिन सेज थी ले आस का रीता पड़ा प्याला
हवायें आतुरा थी चूम पायें गंध की माला
रही निस्तब्धता व्याकुल भरे वह माँग रुनझुन से
निखर कर चान्दनी में रूप की मदमाये मधुशाला

सांझे से सोये पखेरु जग गये फिर चहचहाये
तुम न आये

प्रतीक्षा के दिये का तेल सारा चुक गया जल कर
शमा का मोम विरह की अगन में बह गया गलकर
उबासी ले सितारों ने पलक भी मूँद लीं अपनी
उषा को साथ ले आने लगा रथ सूर्य का चलकर

नैन थे दहलीज पर पलकें बना पांखुर बिछाये
तुम न आये

पढ़ा नहीं है पत्र तुम्हारा

खुला नहीं है बन्द लिफ़ाफ़ा अभी हवा का वन से आकर
इसीलिये ही पत्र तुम्हारा पढ़ा नहीं कोयल ने गाकर

ये तो है अनुमान मुझे क्या तुमने लिखा पत्र में होगा
एकाकीपन घेरे रहता है यादों के दीप जलाये
और एक आवारा बदली ठहरी हुई नयन के नभ पर
नीर भरी कलसी ढुलकाती है जब भी उसका मन आये

और लिखा होगा असमंजस जो उतरा है मन में आकर
इसीलिये ही पत्र तुम्हारा पढ़ा नहीं कोयल ने गाकर

आग लगाता मन में,होगा लिखा,यहां जब बरसे सावन
और उमड़ती गंधें चुभती कांटा बन बन कर सीने में
क्रूर पपीहा जाने क्योंकर मुझको अपना राग सुनाये
और शिला जैसी है बोझिल सांस सांस लगता जीने में

शायद ये भी लिखा पीर ही रखती है मुझको बहलाकर
इसीलिये ही पत्र तुम्हारा पढ़ा नहीं बुलबुल ने गाकर

चन्दन की ले कलम शहद में डुबो लिखे होगे जब अक्षर
और शब्द में उभरा होगा नाम स्वत: ही मेरा आकर
चूमी होगी उस पल तुमने सौ सौ बार हथेली अपनी
और पत्र फिर खोला होगा बन्द हुआ फिर से अकुलाकर

भेजा शायद एक फूल भी तुमने उस के साथ लगाकर
अब तक लेकिन पत्र तुम्हारा पढ़ा नहीं मौसम ने गा कर

प्रीत का पहला निमंत्रण

याद आया है मुझे वह प्रीत का पहला निमंत्रण
जो हवा ने गुनगुना कर द्वार पर मेरे पढ़ा था

स्वप्न जो अंगनाईयों में आंख की पलते रहे थे
वो लगा सहसा मुझे, साकार सब होने लगे हैं
और जो असमंजसों के पल खड़े थे, चित्र बन कर
कामना के ज्वार में घिरते हुए खोने लगे हैं

पैंजनी का सुर खनकने लग गया है आज फिर वह
कॄष्ण की जो बासुरी पर राग में ढल कर चढ़ा था

याद फिर आया अधर का थरथराना, मौन वाणी
याद वह संदेश, आये जो हवाओं के परों पर
दॄष्टि की किरणें,पिरोती अक्षरों की गूँथ माला
और मन की बात को रचती हिनाई उंगलियों पर

एक बूटा वह लगा है आज गाने गीत फिर से
पांव के नख से धरा के शाल पर जो आ कढ़ा था

दंत-क्षत पल्लू सुनाने लग गये हैं फिर कहानी
उंगलियों के चिन्ह फिर से छोर पर बनने लगे हैं
फिर किताबों में सुगन्धित हो गये हैं फूल सूखे
और गुलमोहर पुन: अब शाख से झरने लगे हैं

बात करने लग गया है एक वह रूमाल मुझसे
एक दिन जिस पर अचानक होंठ का चुम्बन जड़ा था

फिर संवरने लग गये हैं पात पीपल के सुनहरे
फिर घटाओं ने लिखा है बूँद से सन्देश कोई
फिर पखेरू बन उड़ी है कामना जीवन्त होकर
कल्पना फिर गुनगुनाने लग गई है दूध धोई

आज फिर वह भाव करने लग गया है नॄत्य मन में
जो कभी भुजपाश के पथ पर सहज आगे बढ़ा था

तीन सौवीं प्रस्तुति---सांझ का दिया जला नहीं

सूरज आज भी अपने समय पर ही निकला है और प्राची से ही निकला है, मौसम में भी कोई परिवर्तन नहीं. सब कुछ वैसे का वैसा ही है केवल एक बात अलग है. आज गीत कलश पर यह तीन सौवीं प्रस्तुति है.आपके स्नेह ने प्रेरणा बन कर इस यात्रा में निरन्तर गतिमय रहने का प्रोत्साहन दिया है और वही स्नेह मेरा मार्गदर्शक रहा है. आप सभी को आभार देते हुए प्रस्तुत है

साँझ का दिया जला नहीं


भोर जब हुई तो पंछियों ने गीत गाये थे
रश्मियों के तार छू हवा ने गुनगुनाये थे
पर छली थी दोपहर, सो एक घात हो गई
सांझ का दिया जला नहीं कि रात हो गई

नीड़ ने बना रखी थी द्वार एक अल्पना
और हाथ में उंड़ेल रंग भर रही हिना
लौट कर कदम दिवस के जब इधर को आयेंगे
पल थके तिवारियों में आ के पसर जायेंगे
सिगड़ियों में आग जागने से मना कर गई
गुड़गुड़ी उठी न जाने किस घड़ी किधर गई
अलगनी पे जो अटक के रह गये थे तौलिये
एक पल में जाने कैसे पाग बन को सो लिये

पांव जो पखारती
आ थकन उतारती
गागरी बिखर के रिक्त इक परात हो गई
सांझ का दिया जला नहीं, कि रात हो गई

ज़िन्दगी बनी रही अधूरा इक समीकरण
एक संधि पे अटक गई समूची व्याकरण
प्रश्न पत्र में मिले जो प्रश्न थे सभी सरल
पर न जाने क्यों जटिल हुआ सभी का अंत हल
उत्तरों की माल हो गई किताब से पॄथा
लग रहा प्रयत्न जो थे वो सभी हुए वॄथा
देह बांसुरी बनी, न सांस रास कर सकी
और रिक्त झोलियों में आ न आस भर सकी

होंठ खुल सके नहीं
शब्द मिल सके नहीं
जो कही गई, वही अधूरी बात हो गई
सांझ का दिया जला नहीं कि रात हो गई

याद की किताब के पलटते पॄष्ठ रह गये
जो जले थे दीप साथ, धार में वे बह गये
रोशनी के पक्षपात यूँ हमारे सँग हुए
तीलियाँ उगल गईं जलीं तो पंथ में धुंये
दॄष्टि के वितान पर कुहासे घिर्ते आ रहे
मौन कंठ पाखियों के शून्य गुनगुना गये
उमड़ रही घटाओं में सिमट गया सभी गगन
शांत हो गई उठी अगन भरी हुई लगन

भाग्य रेख चुक गई
ज्योति हो विमुख गई
शह लगी न एक बार और मात हो गई
सांझ का दिया जला नहीं कि रात हो गई

प्यार था बढ़ा गगन में डोर बिन पतंग सा
सावनी मल्हार में घुली हुई उमंग सा
झालरी बसन्त की बहार की जहाँ उड़ी
आस रह गई ठिठक के मोड़ पे वहीं खड़ी
गंध् उड़ गई हवा में फूल के पराग सी
दोपहर में जेठ के उमगते हुए फ़ाग सी
पतझड़ी हवायें नॄत्य कर गईं घड़ी घड़ी
शाख से गिरी नहीं गगन से बूंद जो झरी

वक्त बीतता रहा
कोष रीतता रहा
ज़िन्दगी बिना दुल्हन की इक बरात हो गई
सांझ का दिया जला नहीं कि रात हो गई

अंधियारे के शब्द कोश में मिलता नहीं सूर्य का परिचय

चढ़ा नकाब व्यस्तताओं का निगल रहा है दिन दोपहरी
और समय के गलियारे में भटक गई कविता कल्याणी

थिरक रहे पांवों में पायल मौन रहे कब हो पाता है
अंधियारे के शब्द कोश में मिलता नहीं सूर्य का परिचय
काई जमे ताल के जल से प्रतिबिम्बित न किरन हो सकी
खुली हाथ की मुट्ठी में कब हो पाता है कुछ भी संचय

तो फिर उथली पोखर जैसे मन में उठे भाव की लहरें
संभव यह तो कभी कल्पना में भी नहीं हुआ पाषाणी

कमल पत्र के तुहिन कणों का हिम बन जाना सदा असम्भव
और मील के पत्थर कब कब तय कर पाते पथ की दूरी
दर्पण की मरमरी गोद में भरते कहां राई के दाने
कहो रंग क्या दोपहरी का कभी हो सका है सिन्दूरी

प्रतिपादित चाणक्य नियम से बंधी रही हो सारा जीवन
सरगम नहीं उंड़ेला करती विष से बुझी हुई वह वाणी

बदला करती नहीं उपेक्षा कभी अपेक्षाओं की चादर
अपना चेहरा ढक लेने से सत्य नहीं ढँक जाया करता
हर मौसम बासन्ती ही हो ये अभिलाषा अर्थहीन है
पतझर को आना ही है तो बिना नुलाये आया करता

गति का नाम निरन्तर चेतनता के संग में लिखा हुआ है
चाहे न चाहे वल्गायें स्वयं थाम लेती हैं पाणी

अपने गीत सुनाता हूं मैं

छन्दों का व्याकरण अपरिचित होकर रहा आज तक हमसे
और गज़ल का बहर काफ़िया, सब कुछ ही रह गया अजाना
काव्य सिन्धु का तीर परे है बहुत हमारी सीमाऒं के
सत्य यही है, क्षमतायें भी सीमित हैं हमने पहचाना
किन्तु ह्रदय की सुप्त भावना में गिर कंकर एक भाव का
शान्त लहर में कोई हलचल सहसा कभी जगा जाता है
तो निस्तब्ध ह्रदय का पाखी मुखरित कर अपनी उड़ान को
अपने स्वर की पीड़ित सरगम को झट से बिखरा जाता है
गूँथ रखे हूं सरगम के मैं वो ही स्वर अपने शब्दों मे
और उन्हीं को समो कंठ में अपने गीत सुनाता हूं मैं
मंदिर की चौखट पर बिखरे हुए फूल की क्षत पंखुड़ियां
रिसता हुआ उंगलियों में से बून्द बून्द कर अभिमंत्रित जल
आशंका से ग्रस्त दीप की थर थर होती कंपित इक लौ
डगमग होता हुआ धुंआसी हुई आस्थाओं का सम्बल
शीश तिलक के पीछे अंकित चुपे हुए अनबूझ सन्देसे
और आरती का स्वागत या विदा प्रश्न पर उलझे रहना
अगरु धूम्र में लिपटे लिपटे छितरा जाती हुई आस का
रह रह कर अपनी सीमा में छुपते हुए मौन हो रहना
ये जो भाव दूर ही रहते आये देव चरण से अक्सर
इन सबको समेट कर अपने संग में, अर्घ्य चढ़ाता हूँ मैं
पांवों की ठोकर से बिखरे हुए देहरी पर के अक्षत
पूजा की चौकी पर नव ग्रह के प्रतीक भी बन जाते हैं
रंग अलक्तक के लेते हैं करवट जब अंगड़ाई लेकर
रोली बन कर देव-भाल की सज्जा बन कर सज जाते हैं
खंड खंड जो कर देती है एक शिला को वह ही छैनी
डूब प्रीत में, सुघड़ शिल्प की प्रतिमा को निखार देती है
बिखरे हुए संतुलन से जो ढली शोर में, वे आवाज़ें
कभी कभी वंशी पर चढ़ कर सरगम को संवार देती हैं
सहज विरोधाभास ज़िन्दगी के जो कदम कदम पर बिखरे
उठा उन्हें भर कर बाँहों में अपने अंक लगाता हूँ मैं
उंगली एक छूट कर मुट्ठी से खो जाती है मेले में
और निगाहें वे जो लौटीं वापिस हर द्वारे से टकरा
स्वर वे उपजे हुए कंठ के जिन्हें न पथ में कोई रोके
और आस के फूल पांखुरी रह जाती हैं जिनकी छितरा
वह सांसों की डोर न थामें जिसको कभी हवा के झोंके
और धड़कने वे जिनकी गति अवरोधों से ग्रस्त हुई है
निशि के अंतिम एक सितारे कीज बिखराती हुई रश्मियाँ
सूरज की अगवानी होती देख स्वयं ही अस्त हुई हैं
रहे उपेक्षित इतिहासों की गाथाओं की नजरों से जो
आज उन्हीं को ढाल शब्द में गाथा एक सुनाता हूँ मैं

बिना तुम्हारे साथ न देते

शब्द नहीं ढलते गीतों में स्वर ने भी विद्रोह किया है
बिना तुम्हारे साथ नयन का देते नहीं स्वप्न रातों में

मेंहदी महावर काजल कुंकुम सब की ही हैं क्वारी साधें
चूड़ी कंगन तगड़ी पायल बिछुवा रह रह अश्रु बहाते
कानों की लटकन रह रह कर प्रश्न पूछती है नथनी से
देखा कोई मेघदूत क्या टीके ने सन्देसा लाते

बाजूबन्द मौन बैठे हैं जैसे किसी बात के दोषी
करते रहते निमिष याद वे, जब सज रहते थे हाथों में

रंगत हुई तीज की पीली, सावन के झूले उदास हैं
गौरी मन्दिर की पगडंडी पग की ध्वनि सुनने की आतुर
रजनी गंधा नहीं महकती एकाकी होकर उपवन में
और बिलख कर रह जाता है कालिन्दी तट वंशी का सुर

पल पल पर उद्विग्न ह्रदय की बढ़ती जाती है अधीरता
अर्थ नहीं कुछ शेष बचा है आश्वासन वाली बातों में

देहरी याद करे अक्षत से जब की थी अभिषेक पगतली
अँगनाई है स्पर्श संजोये उंगलियों का रांगोली में
दीप दिवाली के नजरों में साध लिये हैं सिर्फ़ तुम्हारी
और विलग हो तुमसे सारे रंग हुए फ़ीके होली में

सम्बन्धों के वटवृक्षों पर उग आती हैं अमर लतायें
और तुम्हारे बिन मन जुड़ता नहीं तनिक रिश्तों नातों में

शून्य पार्श्व में देख स्वयं ही मुरझा मुरझा रह जाती है
यज्ञ वेदियों की लपटों की वामांगी आहुति की आशा
पृष्ठ खोलती नहीं ॠचायें, पूर्ण नहीं हो पाती स्वाहा
और बदलने लग जाती है मंत्रों की मानक परिभाषा

प्रश्न चिन्ह बन गैं तुम्हारे बिन अब वे सारी सौगंधें
बुनी गईं थीं एक साथ जो चले कदम अपने सातों में

आ रहा है डाकिया सन्देस इक लेकर तुम्हारा

बढ़ गई सहसा हवा के नूपुरों की झनझनाहट
और गहरी हो गई कुछ पत्तियों की सरसराहट
दूब के कालीन के बूटे जरा कुछ और निखरे
और कलियों में हुई अनजान सी कुछ सुगबुगाहट

बात यह मुंडेर पर आ एक पंछी ने कहा है
आ रहा है डाकिया सन्देस इक लेकर तुम्हारा

गंध भेजी है गुलाबों ने बिछे जाये डगर पर
इन्द्रधनुषी हो रहीं देहलीज पर आ अल्पनायें
केसरी परिधान वन्दनवार बन कर सज गये हैं
आरती का थाल ले द्वारे खड़ी हैं कल्पनायें

फ़ुनगियों ने रख हथेली छाँह को, पथ को निहारा
आ रहा है डाकिया सन्देस इक लेकर तुम्हारा

ले रहीं अँगड़ाइयां अनजान सी मन में उमंगें
आस में डूबी फ़ड़कने लग गईं दोनों भुजायें
दॄष्टि आतुर, अर्घ्य ले जैसे खड़ी कोई सुहागन
बाट जोहे चौथ चन्दा की उभर आयें विभायें

दिन ढले से पूर्व ही आया उतर पहला सितारा
आ रहा है डाकिया सन्देस इक लेकर तुम्हारा

लग गई जैसे अजन्ता कक्ष में आकर संवरने
खिड़कियों बुनने लगी हैं धूप के रंगीन धागे
सज रहीं अंगनाई में कचनार की कलियां सुकोमल
जो निमिष भर को गये थे सो, सभी वे भाव जागे

धार ने मंदाकिनी की, पंथ को आकर पखारा
आ रहा है डाकिया सन्देस इक लेकर तुम्हारा

ज़िन्दगी के राजपथ पर लिख चुका हूँ

शब्द मैं चुन ला रहा अनुभूतियों की क्यारियों से
तुम इन्हें दो कंठ अपना और धुन में गुनगुनाओ

ज़िन्दगी के राजपथ पर तो लिखे हैं गीत अनगिन
आज मैं बिसरी हुई पगडंडियों पर लिख रहा हूं
जो धरोहर मान अपनी दर्पणों ने रख लिये थे
मैं उन्हीं धुंधले अधूरे बिम्ब जैसा दिख रहा हूँ
केतकी का रूप जो खिलता रहा वीरानियों में
आंजता हूँ मैं उसे लाकर नयन के आंगनों में
खींचता हूँ चित्र मैं अब वे क्षितिज के कैनवस पर
रात की स्याही निगल बैठी जिन्हें थी सावनों में

और ये छू लें अगर मन का कोई कोना तुम्हारा
तो मेरी आवाज़ में तुम आज अपना स्वर मिलाओ


दे रहा आवाज़ मैं उन स्वेद के खोये कणों को
स्याहियां बन कर हलों की खेत पर जो खत लिखे थे
शीश पर पगड़ी बना कर जेठ का सूरज रखा था
सावनी धारायें बन कर देह से फ़िसले गिरे थे
जो किये प्रतिमाओं को जीवन्त थे अपने परस से
बालियों को रंग दे धानी हरे पीले सुनहरे
और छूकर नीम की शीतल घनेरी छांह का जल
झिलमिलाते थे रजत कण बन सभी होकर रुपहरे

चिन्ह उनका कोई भी दिखता नहीं है इस नगर में
तुम बताना राह में चलते अगर पहचान पाऒ

बढ़ रही रफ़्तार, आपाधापियां, शंकायें मन में
छूटता विश्वास का हर छोर रह रह उंगलियों से
डर रहा परछाईं से भी आज हर अस्तित्व लगता
चोंकता है जो हवा की थाप पड़ती खिड़कियों पे
चाह तो है द्वार को आकर सजायें चन्द्रकिरणें
किन्तु आतीं तो तनिक विश्वास हो पाता नहीं है
मन मयूरा था प्रतीक्षित सावनी बादल घिरें आ
और घिरते तो कोई भी गीत गा पाता नहीं है

आऒ मेरे साथ मिल तुम चीर दो संशय घिरे जो
और बन क्र दीप उज्ज्वल रोशनी से जगमगाओ

और तुम्हारा एक तकाजा



बुझे बुझे सरगम के सुर हैं
थके थके सारे नूपुर हैं
शब्दों का पिट गया दिवाला
कलम वगावय को आतुर है
भावों की लुट हई पोटली अनुभूति के कोष रिक्त हैं
और तकाजा एक तुम्हारा मैं इक नया गीत लिख डालूँ

अक्षर अक्षर बिखर गई हैं गाथाय्रं कुछ याद नहीं हैं
शीरीं तो हैं बहुत एक भी लेकिन पर फ़रहाद नहीं है
बाजीराव नहीं मिल पाया थकी ढूँढते है मस्तानी
इतिहासों की प्रेम कथायें किसने समझी किसने जानी

राजमुकुट के प्रत्याशी तो खडे हुए हैं पंक्ति बनाकर
तुम्ही बताओ सिंहासन पर मैं इनमें से किसे बिठा लूँ

महके हुए फूल उपवन से रह रह कर आवाज़ लगाते
मल्हारों के रथ पनघट पर रूक जायेंगे आते जाते
फागुन के बासन्ती रंग में छुपी हुईं पतझडी हवायें
बार बार अपनी ही धुन में एक पुरानी कथा सुनायें

माना है अनजान डगरिया, लेकिन दिशाचिन्ह अनगिनती
असमंजस में पडा हुआ हूँ, किसको छोडूँ किसे उठा लूँ

अलगोजे तो नहीं छेड़ता गूँज रहा कोई बाऊल स्वर
रह जाता घुल कर सितार में सरगम के स्रोतों का निर्झर
लग जाते हैं अब शब्दों पर पहरे नये, व्याकरण वाले
छन्द संवरता तो होठों पर ढलता नहीं सुरों में ढाले

गज़ल नज़्म मुक्तक रुबाईयां, सब ही मुझसे संबोधित हैं
तुम बोलो इनमें से किसको अभिव्यक्ति का सिला बना लूँ
और तुम्हारा एक तकाजा, मैं इक और गीत रच डालूँ

कितना उसे ओस ने धोया

पता नहीं क्यों आज रोशनी छुप कर रही गगन के पीछे
पता नहीं क्यों चन्दा सूरज बैठे रहे पलक को मींचे
पता नहीं क्यों आज नीर की गगरी छलकी नहीं घटा की
पता नहीं क्यों रश्मि भोर की, उषा रही मुट्ठी में भींचे

सोच रहा था जब मैं ये सब, बता गया यह एक झकोरा
क्योंकि न तुमने पलकें खोलीं अपनी, रहा जगत भी सोया

ढका रहे जब ज्योतिपुंज तो कैसे छिटक सकेंगी किरणें
हो न प्रवाहित निर्झर, कैसे उमड़ेंगी नदिया में लहरें
कली न आंखें खोले अपनी तो कैसे सुगन्ध बिखरेगी
झरे नहीं नयनों से पूनम , कैसे चन्द्र विभा संवरेगी

ढांप लिया जब जगमग आनन, मावस की सी चिकुर राशि ने
तब ही तो नभ की पगडंडी पर चलता सूरज रथ खोया

उमड़ी नहीं घटा पश्चिम की क्योंकि न तुमने ली अंगड़ाई
बिखरा नहीं अलक्तक पग से, संध्या हो न सकी अरुणाई
बन्द रही काजल की कोरों में हो कैद रात की रानी
बंधी रही आंचल से पुरबा कर न सकी अपनी मनमानी

पा न सका था स्पर्श स्वरों का , तो गुलाब अधरों का कोमल
रहा तनिक मुरझाया सा ही, कितना उसे ओस ने धोया

छनकी नहीं पांव की पायल,सुर सितार के संवर न पाये
खनका कंगन नहीं, कोयलें चुप ही रहीं गीत न गाये
हिना न झांकी मुट्ठी में से, तो अमराई नहीं बौराई
शब्दों का विन्यास चला घुटनों पर, आई नहीं तरुणाई

हुआ अंकुरित नहीं एक भी गीत ह्रदय की फुलवारी में
बिना तुमहारे दॄष्टिपात के,अक्षर अक्षर कितना बोया

गीत भी हँस पड़े

भाव अभिव्यक्त हों इसलिये शब्द की उंगलियां थाम कर देखिये चल पड़े
सरगमों की कलाई पकड़ कंठ ने ली जो अँगड़ाई तो गीत भी हँस पड़े

प्रार्थना में जुड़े हाथ की उंगलियां पोर पर आरती को सजाती रहीं
वर्तिका की थिरकती हुई ज्योति पर पांव अनुभूतियां थीं टिकाये रहीं
शंख फिर गूँज कर पात्र में ढल गये और प्रक्षाल करने लगे मूर्त्ति का
घंटियों का निमंत्रन बुलाता रहा, मंत्र उठता हुआ वारिधि क्षीर का

शिल्प ने थाम लीं हाथ में छैनियाँ, ताकि वह शिल्प अपना स्वयं ही गढ़े
सरगमों की कलाई पकड़ कंठ ने ली जो अँगड़ाई तो गीत भी हँस पड़े

प्रीत के शब्द को पांखुरी पर लिखे मुस्कुराती रही अधखिली इक कली
गंध की डोर पकड़े हुए वावरा एक भंवरा भटकता रहा था गली
क्यारियों में उगीं चाहतों की नई कोंपलें, पर जरा कुनमुनाती हुई
बाड़ बन कर छिपी झाड़ियों में हिना आप ही हाथ अपने रचाती हुई

कर रही थी भ्रमण वाटिका में हवा, भाल उसके अचानक कई सल पड़े
सरगमों की कलाई पकड़ कंठ ने ली जो अँगड़ाई तो गीत भी हँस पड़े

दॄष्टि के पाटलों पर लगी छेड़ने एक झंकार को स्वप्न की पैंजनी
याद के नूपुरों से लिपटती रही छाँह पीपल की हो कर जरा गुनगुनी
स्नेह की बून्द से सिक्त हो भावना नाम अपने नय रख संवरने लगी
और शैथिल्य के आवरण की जकड़ बन्धनों को स्वयं मुक्त करने लगी

कुमकुमे फूट कर श्याम सी चादरेऒं पर नये रंग होकर अचानक चढ़े
सरगमों की कलाई पकड़ कंठ ने ली जो अँगड़ाई तो गीत भी हँस पड़े

फिर क्या शेष अभीप्सित जीवन का

नीलकंठ का नाम हमें जब तूने दे ही दिया ज़िन्दगी
फिर क्या शेष अभीप्सित जीवन का है जो तुझको बतलायें

चाहत से यथार्थ के अंतर की दूरी पर कदम बढ़ाकर
सोचा था हम चलते जायेंगे इस पथ पर हँस कर गाकर
लेकिन तूने दिशा बोध के जो उपकरण दिये हाथों में
वे दिखलाते पग पग पर हैं बने हुए शत शत रत्नाकर

नाविक कहकर तूने हमको दे तो दी पतवार हाथ में
लेकिन साथ साथ सौंपी हैं लहर लहर भीषण झंझायें

अभिलाषाओं के दीपक में बटी हुई सपनों की बाती
महज कल्पना के तेलों से संभव नहीं तनिक जल पाती
तीली की हर लौ पर तूने लगा दिये सीलन के पहरे
और कह दिया हमें, हमारी संस्कॄतियों की है यह थाती

जितने भी मोहरे बिसात पर रखे हुए हैं, हैं अभिमंत्रित
उनके बस में कहाँ स्वयं ही चालें निर्धारित कर पायें

बाधाओं के समाधान की उत्सुकता भर कर बाहोँ में
उगते हुए दिवस, रजनी में ढलते रहे बिछी राहों में
पगडंडी ने साथ न पग का दिया किसी भी एक मोड़ पर
मॄगतृष्णायें रहीं सँवरती, आँखों में पलती चाहों में

प्रश्न अधूरे होते अक्सर, ये तो हर कोई स्वीकारा
लेकिन तेरे आधे उत्तर की गाथायें किसे सुनायें

अब सम्बन्ध कलम से मेरा

सम्बन्धों के अनुबन्धों की लगता अवधि हो गई पूरी
करती हैं विच्छेद उंगलियां अब सम्बन्ध कलम से मेरा

बही भाव के निर्झर से नित, अविरल एक शब्द की धारा
होठों ने कर लिया आचमन और कंठ स्वर ने उच्चारा
अलंकरण आ गये सजाने, सांचे में शिल्पों ने ढाला
अनुप्रासों ने दर्पण अपना दिखा दिखा कर रूप संवारा

लेकिन इक विराम की बिन्दी लगता है अब रोके पथ को
लगा उमड़ने धीरे धीरे मन अम्बर पर घना अंधेरा

सन्दर्भों से उपमाओं के जो सम्बन्ध रहे वे टूटे
सर्ग व्याकरण के जितने थे, एक एक कर सारे रूठे
शब्दकोश ने अपनी संचित निधि से दी कुछ नहीं उधारी
और पात्र जिनमें हम अक्षर रख सकते थे, सारे फूटे

वाणी हुई निरक्षर, कोई वाक्य नहीं चढ़ता अधरों पर
मेरी गलियों में आकर अब मौन, लगाये बैठा डेरा

बजे भावना की शहनाई पर न सजे बारात छन्द की
खिले हुए फूलों को छूकर बदली उमड़े नहीं गन्ध की
तारों का कम्पन ढलता ही नहीं किसी सरगम के सुर में
कला हुई विस्मॄत जो सीखी, कभी अन्तरों के प्रबन्ध की

धब्बा एक बना स्याही की केवल कागज़ पर दिखता है
कूची लेकर आज शब्द का मैने जब भी चित्र चितेरा

बजी नहीं कोई शहनाई

काजल पहरेदार हो गया
सपने रोके आते आते
रंग बिखर रह गये हवा में
चित्र रहे बस बन कर खाके
होठों की लाली से डर कर
मन की बात न बाहर आई
कंगन करता रहा तकाजा
लेकिन चुप ही रही कलाई

सोचा तो था बांसुरिया के रागों पर सरगम मचलेगी
जाने क्या हो गया बांसुरी कोई गीत नहीं गा पाई

महावर की खींची रेखा को
लांघ नहीं पाया पग कोई
पायल की बेड़ी में बन्दी
घुंघरू की आवाज़ें खोईं
बिछुआ पिसता रहा बोझ से
कुछ कह पाने में अक्षम था
रहा बोरला गुमसुम बैठा
पता नहीं उसको क्या गम था

अटकी हुई तोड़िये की लहरों पर एक अकेली बोली
रह रह नजर झुका लेती थी जाने थी किससे शरमाई

तय तो करती रही अंगूठी
नथनी के मोती तक दूरी
उंगली रुकती रही होंठ पर
जाने थी कैसी मज़बूरी
आतुर बाजूबन्द रहा था
अपने एक बिम्ब को चूमे
लाल हुई कानों की लौ पर
बुन्दों का भी मन था झूमें

उत्कंठा कर रही वावली, जागी हुई भावना मन में
ध्यान लगाये सुना गूँज कर बजी नहीं कोई शहनाई

कोई गीत नहीं गा पाता

शब्द अटक रह गये अधर पर, वाणी साथ न देने पाती
हो विक्षुब्ध मन मौन पड़ा है, कोई गीत नहीं गा पाता

एक अनिश्चय निगल रहा है उगी भोर की अरुणाई को
और दिशायें छेड़ रही हैं असमंजस की शहनाई को
आशंका के घने कुहासे में लिपटा दिखता है हर पथ
हो जाता भयभीत ह्रदय अब देख स्वयं की ही परछाईं

विषम परिस्थितियां सुरसा सी खड़ी हुईं फ़ैलाये आनन
समाधान को बुद्धिमता का रूप नहीं लेकिन मिल पाता

दहला जाता है मन को अब दिखता रंग गुलाबों वाला
बुना भाग्य की रेखाओं पर एक गूढ़ मकड़ी का जाला
विश्वासों की नींव ढही जाती है बालू के महलों सी
पीता हुआ रोशनी हँसता केवल घिरा अँधेरा काला

दिशाबोध के चिन्ह घुल गये कुतुबनुमा भी भ्रमित हुई है
मुड़ने लगीं राह भी वापिस, उनको पंथ नहीं मिल पाता

बिखराता है तिनके तिनके पंछी स्वयं नीड़ को अपने
और विवश नजरों को लेकर बीना करता खंडित सपने
अभिमन्यु घिर चक्रव्यूह में, मदद मांगता है जयद्रथ से
ओझा कौड़ी फ़ेंक, नाग को करता है आमंत्रित डँसने

पासों के षड़यंत्र बढ़ गये, और समर्पित हुआ युधिष्ठिर
इतिहासों की गाथाओं से कोई सबक नहीं मिल पाता

धूप को वह पथ दिखाये

चाह तो है शब्द होठों पर स्वयं आ गीत गाये
स्वप्न आंखों में सजे तो हो मुदित वह गुनगुनाये

पॄष्ठ सुधियों के अधूरे, पुस्तकों में सज न पाते
उम्र बीती राग केवल एक, वंशी पर बजाते
हाथ जो ओढ़े हुए थे मांगने की एक मुद्रा
बांध कर मुट्ठी कहां संभव रहा कुछ भी उठाते

कर्ज का ले तेल बाती, एक मिट्टी का कटोरा
चाहता है गर्व से वह दीप बन कर जगमगाये

सावनों के बाद कब बहती नदी बरसात वाली
बिन तले की झोलियाँ, रहती रहीं हर बार खाली
मुद्रिकाओं से जुड़े संदेश गुम ही तो हुए हैं
प्रश्न अपने आप से मिलता नहीं होकर सवाली

ओस का कण धूप से मिलता गले तो सोचता है
है नियति उसकी, उमड़ती बन घटा नभ को सजाना

अर्थ तो अनुभूतियों के हैं रहे पल पल बदलते
इसलिये विश्वास अपने, आप को हैं आप छलते
मान्यताओं ने उगाये जिस दिशा में सूर्य अपने
हैं नहीं स्वीकारतीं उनमें दिवस के पत्र झरते

रात के फ़ंदे पिरोता, शाल तम का बुन रहा जो
उस प्रहर की कामना है धूप को वह पथ दिखाये

बोलने लग गये रंग

एक ही चित्र में रंग जब भर दिये, तूलिका ने ढली सांझ अरुणाई के
कालनिशि के तिमिर में नहाई हुई भाद्रपद की अमावस की अँगड़ाई के
फूल की गंध के प्रीत के छन्द के, तो लगा आपका चित्र वह बन गया
बोलने लग गये रंग सरगम बने ढल गये गूँज में एक शहनाई के

मेरा और तुम्हारा परिचय

चाहा तुम्हें लिखूं तुम हो नभ का विस्तार सितारा हूँ मैं
चाहा कहूँ तुम्हें सागर-जल का भंडार किनारा हूँ मैं
चाहा तुमको लिखदूं तुम निस्सीम, दायरे में मैं बन्दी
लिखूँ अक्षुण्य निरन्तर तुमको हो हरबार, दुबारा हूँ मैं

लिखने लगी कलम लिख डाला तुम तुम ही हो, तुम ही हो मैं
तुम्हें नहीं परिचय आवश्यक और तुम्ही हो मेरा परिचय

तुमने ही तो कहा समय हो तुम गतिमान, रुके हो पल छिन
तुम ही जड़ हो, तुम ही चेतन, तुम ही निशा और तुम ही दिन
एक अकेले तुम ही नश्वर, तुम ही क्षण तुम ही क्षण्भंगुर
तुम अनादि हो, आदि तुम्ही हो और एक तुम ही गूँजा सुर

ज्ञानदीप की ज्योति तुम्ही हो और तुम्ही हो उपजा संशय
तुम्हें नहीं परिचय आवश्यक और मेरा भी तुम ही परिचय

मैं क्या लिख पाऊंगा तुमको, तुम ही शब्द तुम्ही अक्षर हो
तुम ही एक दानकर्ता हो तुम ही तो याचक का कर हो
तुम ही कालनिशा का तम हो, तुम अंधियारा अज्ञानों का
तुम एकाकी ज्योतिपुंज हो, तुम प्रकाश नव विज्ञानों का

तुम ही तो पल पल पर विचलित, तुम्ही तो हो तन्मय चिन्मय
तुम्हें कहां परिचय आवश्यक , तुम परिचय का भी हो परिचय

उल्का भी तुम, धूमकेतु तुम, तुम अनदेखे श्याम विवर हो
तुम नभ की मंदाकिनियों में प्राण प्रवाहक इक निर्झर हो
तुम हो यहाँ, वहाँ भी तुम हो और जहाँ तक उड़े कल्पना
तुम्हीं ध्यान हो तुम्ही साधना, तुम्ही वन्दना तुम्ही अर्चना

एक तुम्हीं असमंजस के पल और तुम्ही तो हो दॄढ़ निश्चय
तुम्हें विदित है सबका परिचय और तुम्हारा सब को परिचय

सत्यापित करवाया प्रियतम

निशा तुम्हारेही सपनों को लाती है नित झोली में भर
तथ्य यही आंखों से मैने सत्यापित करवाया प्रियतम

पा कर जिनका स्पर्श सुवासित हो जाती है किरन दूधिया
और रातरानी आंगन में फूल खिलाने लग जाती है
आशाओं के जुगनू के पर आशा से होते चमकीले
और सितारों की छायायें सावन गाने लग जाती हैं

उनकी गलियों से जो आये हर झोंका मलयज का होवे
यह प्रस्ताव गंध से मैने प्रस्तावित कर पाया प्रियतम

भाव ह्रदय के व्यक्त न होकर रह जाते हैं जब अनचीन्हे
सम्बन्धों के पथ में उगते संशय के बदरंग कुहासे
अवगुंठित होने लगते हैं धागे बँधे हुए रिश्तों के
धुँधलाने लगती तस्वीरें, बनी हुई जो चन्द्र विभा से

भाव ह्रदय के तुम तक पहुँचें, इसीलिये शब्दों को मैने
सरगम के रंगों में रँग कर विज्ञापित करवाया प्रियतम

ढलती हुई सांझ ने भेजा जिन सपनों को नेह निमंत्रण
उन्हें यामिनी बिठा पालकी अपने संग में ले आती है
लेकिन ढलती हुई उमर की निंदिया की स्मॄति की मंजूषा
उगती हुई भोर की चुटकी सुन कर खाली हो जाती है

मैं जब देखूँ स्वप्न तुम्हारे, ऊषा पलक नहीं खड़काये
सूरज से कह आज नियम यह प्रतिपादित करवाया प्रियतम

मन की भाषा कह पाने में शब्द सदा हो जाते अक्षम
और शब्द के सोचों से होठों तक अर्थ बदल जाते हैं
जागी हुई भावना मन की, जब चाहे संप्रेषित होना
तब तब आशंकाओं में घिर अधर थरथरा रह जाते हैं

मेरे मन की बातें पहुँचें, बिन परिवर्तन ह्रदय तुम्हारे
उन्हें नयन की भाषाओं में अनुवादित करवाया प्रियतम

यही मैं जान पाना चाहता हूँ

कौन से सन्दर्भ की मैं आरती बोलो उतारूँ
कौन सी प्रतिमा पिरोकर शब्द में अपने पुकारूँ
कौन सा झोंका हवा का शब्द में अपने पिरोऊँ
तूलिका में रंग भर कर चित्र मैं किसके संवारूँ

हिचकिचाता नाम कोई चढ़ नहीं पाता अधर पर
नाम किसका है ? यही मैं जान पाना चाहता हूँ

उठ रही है लहर नदिया की किसे छूकर न जाने
लग रही पुरबाईयाँ जा द्वार अब किसका सजाने
देह के किसके परस से पुष्प सुरभित हो रहे हैं
ले रही है छांह किसकी बादलों के संग उड़ानें

एक पल लगता मुझे मैं हूँ नहीं उससे अपरिचित
किन्ब्तु परिचय क्या ? यही पहचान पाना चाहता हूँ

कर रहीं हैं बात किसकी पत्तियाँ ये सरसराती
गीत किसके कोयलें गा, बुलबुलों को सुनाती
है पिरोता कौन ला मुस्कान कलियों के अधर पर
दॄष्टि है किसकी, परस से रात को जो दिन बनाती

है पुराना पॄष्ठ कोई एक बीती डायरी का
कौन सा लेकिन बरस था, भान पाना चाहता हूँ

बन गई है जो गज़ल में प्रीत की सहसा रवानी
लिख गई है भोजपत्रों पर स्वयं जिसकी कहानी
भित्तिचित्रों में ढले जो रंग तो संवरी अजन्ता
नाम जिसका छू सुबासित हो रही है रातरानी

जानता हूँ हर गज़ल में गीत में वह ही समाहित
मैं उसी से गीत का उनवान पाना चाहता हूँ

सुन्दरता की परिभाषायें

सुनो! कहा है जबसे तुमने गीत लिखूं मैं सुन्दरता के
मैं तब ही से ढूँढ़ रहा हूँ सुन्दरता की परिभाषायें

कलियां,फूल,सेमली फ़ाहे या उड़ते बादल का टुकड़ा
परस रेशमी, छुअन भाव की किसको ज्यादा मानूं कोमल
पी के अधर, सुरभि का चुम्बन या पदचाप पवन झोंके की
या फिर गालों को सहलाते उंगली बन कर उड़ते कुन्तल

जितने भी अनुभव हैं उनकी विलग रहीं अनुभूति हमेशा
सोच रहा हूँ इनमें से मैं किसकी शुरू करूँ गाथायें

सुन्दर होता है गुलाब का फूल ! कहा तुमने, माना,पर
क्या सुन्दर है ? पाटल,पुंकेसर या गंध सुरुचिमय लगती
या विन्यास, संयोजन है या रंगभरी कुछ पंखुरियों का
या हैं सुन्दर नयन कि जिनमें है गुलाब की छवि सँवरती

एक शब्द की गहराई में कितने सागर की गहराई
यह मैं समझ सकूँ तो संभव भाव शिल्प में ढलने पायें

इतिहासों ने करवट लेकर कहा नहीं यह संभव होता
रंग और परिधान मात्र ही सुन्दरता के द्योतक हो लें
परे शिल्प के और बहुत है जो शब्दों में सिमट न पाता
और हुआ ये नहीं भेद ये शब्द आठ दस मिल कर खोलें

मन के बन्धन बांधे हैं जो भाव गूढ़ हैं सुमुखि सयानी
क्षमता नहीं स्वरों में इतनी, जो इन भावों को समझायें

दॄश्य, श्रव्य की गंध स्पर्श की सीमायें हैं अपनी अपनी
और परे क्या है परदे के जाता नहीं सदा पहचाना
मानक होते अलग, कसौटी सब की अलग अलग होती है
क्या सुन्दर, क्या नहीं असम्भव हो जाता यह भी कह पाना

सोच रहा हूँ रहूँ दूर ही, मैं ऐसे प्रश्नों के पथ से
और लिखूं वे भाव, लेखनी से जो स्वत: उभर कर आयें

एक दिवस वह डरा डरा सा

एक दिवस जब तुम मुझसे थे अनजाने ही दूर हो गये
वह इक दिवस आज भी मेरी आंखों में है भरा भरा सा

वह इक दिवस ज़िन्दगी की पुस्तक का पन्ना फ़टा हुआ सा
जोड़ गुणा के समीकरण में से केवल वह घटा हुआ सा
रंग बिरंगे कनकौओं की आसमान में लगी भीड़ से
एक वही है पड़ा धरा पर बिना डोर के कटा हुआ सा

वह दिन देखा रथ पर चढ़ कर जाती थी अरण्य वैदेही
और दग्ध मन लिये विजेता लंका का था डरा डरा सा

वह दिन जब कुन्ती ने अपना लाड़ बहाया था पानी में
वह दिन हुए अजनबी पासे, जब इक चौसर पहचानी में
वह दिन पांव बढ़े थे आगे, जब खींची सीमा रेखा से
वह दिन बिके भाव जब मन के और बिके केवल हानी में

वह दिन अटका हुआ याद के दरवाजे को पकड़े ऐसे
जैसे एक नीर का कण हो पत्ते पर, पर झरा झरा सा

वह दिन अगर इबारत होता लिखी, सुनिश्चित उसे मिटाता
वह दिन भाव मात्र यदि होता, तो मैं उसे शब्द कर जाता
वह दिन लेकिन एक फूल के साथ रहे कांटे के जैसा
जितना चाहूँ उसे भुलाना उतना सीने में गहराता

वह दिन, एक अकेला पत्ता ज्यों पतझर की अँगनाई में
अटका हुआ शाख पर सबसे विलग हुआ पर हरा हरा सा

यूँ ही

आपकी प्रीत की रंगमय तितलियां, आईं उड़ने लगी मेरी अँगनाई में
चन्द झोंके हवा के मचलते हुए, ढल गये गूँजती एक शहनाई में
सांझ की काजरी चूनरी पे जड़े, आ सितारे कई पूनमी रात के
और फिर घुल गई अरुणिमा भोर की उग रही रात की श्याम परछाईं में

उस पल यादों के पाखी

पनघट के पथ से आवाज़ें देती है पायल मतवाली
जुगनू बरसाने लगती है, उलटी हुई गगन की थाली
कंदीलों से बँध उड़ते हैं आंखों के रतनारे सपने
बिना वज़ह छाने लगती है चेहरे पर रह रह कर लाली

और अधर बिन बात छुये ही पल पल लगे थरथराते हैं
उस पल यादों के पाखी मन अम्बर पर उड़ आ जाते हैं

सन्नाटे का राजमुकुट जब संध्या रख लेती मस्तक पर
अटके रहते कान नहीं जो होती द्वारे पर, दस्तक पर
माँग नहीं सूनी राहों की कोई भी पदरज सँवारती
और चाँदनी रह जाती है दर्पण में खुद को निहारती

एक दीप की कंपित लौ पर अनगिन साये मँडराते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

रोशनदानों की झिरियों से झांका करे सितारा कोई
सेज बाँह की नहीं छोड़ती अलसाई अँगड़ाई सोई
खिड़की के पल्ले को पकड़े रहती है बीमार रोशनी
रुठी हुई हवा रहती है होकर गुमसुम और अनमनी

और देवता के घर के भी दरवाजे जब भिड़ जाते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

बादल के सायों के झुरमुट बन जाते हैं दीवारों पर
मोटा एक आवरण चढ़ जाता छितराये उजियारों पर
करवट से चादर की दूरी सहसा लम्बी हो जाती है
भागीरथी उमड़ नयनों से आ कपोल को धो जाती है

सिरहाने वाले तकिये में अनगिन सिन्धु समा जाते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

कहो पढ़ा क्या प्रियतम तुमने

गिरिश्रंगों के श्वेत पत्र पर सूरज की किरणों ने आकर
जो सन्देश उभारा उसको कहो पढ़ा क्या प्रियतम तुमने

सागर की गहराई में से निकले मोती अक्षर बन कर
और चले अंगड़ाई लेकर मेघदूत के रथ पर चढ़ कर
पवन डाकिये की झोली में बैठे हुए शिखर तक आये
फिर झोली से बाहर निकले और वादियों में छितराये

जो अनुराग होंठ पर आया नहीं और न आंखों में ही
अकस्मात हो गया समाहित वह शब्दों में आज सुनयने

शिखरों से वादी के पथ पर खड़े हुए तरु देवदार के
रखते हुए शाख के गुलदानों में कुछ अनुभव निखार के
श्वेत शुभ्र हिम की फ़ुहियों में बंधे प्रीत के कुछ सन्देसे
पत्तों के प्याले में कण कण एक एक कर रख सहेजे

ढांपे हुए पांव के चिन्हों को सौगंधों वाली चादर
याद दिला पाई क्या तुमको बीते कल की चन्दन बदने

चंचल बादल का इक टुकड़ा अठखेली करता वितान में
गुपचुप पास क्षितज के जाकर, हौले से कुछ कहे कान में
नये अर्थ देता सा मन के सम्बन्धों की परिभाषा को
बांहों में भरता धरती को छू लेने की अभिलाषा को

जो प्रतीक वह बिना शब्द के समझाने में लगा हुआ है
क्या तुम उसको समझ सको हो, यह बतलाओ कला निमग्ने

वादी की इक शांत झील में खिले कमल की पंखुड़ियों पर
शबनम ने जो पाठ पढ़ाये मधुपों को, गिन उंगलियों पर
ढाई अक्षर में सिमटीं वे शत शत कोटि कोटि गाथायें
जिनको मधुर स्वरों में गातीं नभ के झूले चढ़ीं हवायें

उन गाथाओं का तुमने क्या कोई अक्षर जीकर देखा
या फिर किसी कथानक का तुम पात्र बने हो ! देखे सपने ?

असलियत बस अँगूठा दिखाती रही

घुँघरुओं से बिछुड़ पैंजनी रह गई
मौन की रागिनी झनझनाती रही
-
अव्यवस्थित सपन की सुई हाथ ले
करते तुरपाई हम थे रहे रात भर
चीथड़ों में फ़टे वस्त्र सा पर दिवस
हमको देता अंधेरा रहा कात कर
ज़िन्दगी थी सिरा तकलियों का रही
पूनियां दूर होती गईं वक्त की
सेमली फ़ाहे ओढ़े हुए थे निमिष
असलियत पत्थरों सी मगर सख्त थी

और पग की तली से विमुख राह हो
मोड़ पर ही नजर को चुराती रही

ग्रीष्म की एक ढलती हुई दोपहर
तोड़ती अपनी अंगड़ाईयाँ रह गई
जो बनीं ताल पर चन्द परछाईयां
ज़िन्दगी है वही, ये हवा कह गई
आस का रिक्त गुलदान ले हाथ में
कामना बाग में थी भटकती फ़िरी
ताकती रह गई चातकी प्यास नभ
बूंद झर कर नहीं स्वाति की इक गिरी

कंठ की गठरियाँ राह में लुट गईं
शब्द की आत्मा छटपटाती रही

दॄष्टि की उंगलियाँ खटखटाती रहीं
द्वार चेहरों के खुल न सके अजनबी
कोई आगे बढ़ा ही नहीं थामने
डोरियां नाम की थीं पतंगें कटी
एक पहचान संचित नहीं पास में
आईना हाथ फ़ैलाये कहता रहा
कल्पना का किला था गगन तक बना
बालुओं का महल होके ढहता रहा

और असमंजसों को लपेटे खड़ी
असलियत बस अँगूठा दिखाती रही

कल जब सजे गीत की महफ़िल,

कल जब सजे गीत की महफ़िल, पता नहीं हम हौं या न हौं
यही सोच कर आज यहां पर रचना एक सुना जाते हैं

जितना तय हो गया सफ़र यह गीतों का अद्भुत ही तो है
प्रतिध्वनियाँ हमने तलाश कर कितनी चुनी क्षितिज के पीछे
कितने आयामों में लेने दिया कल्पना को परवाजें
कितने सपने खुली आंख से देखे, कितने आँखें मीचे

पता नहीं निस्सीम गिनतियां कब अंकों में सिमट कैद हों
यही सोच कर आज यहाँ यह गिनती एक गिना जाते हैं

जीवन की पुस्तक के पन्ने जितने पढ़े, सभी थे कोरे
दीप वर्तिका के बिन जैसे, हर अध्याय अधूरी ही था
चले पंथ में दिशाहीन हो लक्ष्य हीन हो रहे भटकते
भक्ति गीत का अर्थ बताने न मीरा न सूरा ही था

क्या मालूम कहीं कल होकर मौन न इकतारा रह जाये
यही सोच कर आज यहाँ पर धुन बस एक बजा जाते हैं

पुष्प गंध में शह्द घोलकर, रँगे प्रीत के गीत अकल्पित
आँसू बनकर बही वेदना को चुनकर शिल्पों में ढाला
बहती हुई हवा की टहनी पर आशा की जड़ी उमंगें
और भरा मावस की सूनी रातों में रंगीन उजाला

कल जब टँगे फ़्रेम ईजिल पर, रंग पास में हौं या न हौं
यही सोच कर आज चित्र में सारे रंग भरे जाते हैं

सिन्दूरी संध्या, अरुणाई भोर और कजरारी रातें
अमराई, पनघट चौपालें, पगडंडी, सारंगी के स्वर
मौसम, रिश्ते, पूजा, वन्दन, मांझी गीत, शीश का टीका
घिर आते घनश्याम, और इठला बतियाता कोई निर्झर

निश्चित नहीं दिखाये कल भी दर्पण चित्र आंख को ये सब
यही सोचकर ढाल शब्द में आज चित्र दिखला जाते हैं

तो करते अनुसरण तुम्हारा

गीत खड़े रहते स्तुतियों में शब्द शीश पर तिलक लगाते
जितनी सुन्दर भाषा होता वैसा यदि व्याकरण तुम्हारा

उंगली थामे हुए उमर की साथ नहीं चल पाता है मन
सम्बन्धों की बन जाती है हर इक बार नई परिभाषा
अपने खींचे हुए दायरे बन जाते हैं चक्रव्यूह जब
सुधियों के पनघट पर रहता प्राणों का हर इक पल प्यासा

जितना ज्ञान लुटाते उसके अंशों से मन दीपित करते
तो युग का इतिहास सुनिश्चित कर लेता अनुकरण तुम्हारा

आवश्यक ये कहाँ एक ही भाव बिकें माणिक व पत्थर
ये तो निर्भर है जौहरी की कितनी रहीं पारखी नजरें
दोष नहीं होता दर्पण का, वह तो वही दिखाता है बस
जैसे चित्र देखने वाले के नयनों में आकर सँवरें

जो पूनम की अँगनाई में शुभ्र वस्त्र जैसे बिखराई
मिलती शांति, उसी के जैसा होता अन्त:करण तुम्हारा

तस्वीरों के जितना सम्मुख, होता उससे अधिक पार्श्व में
जो यह समझ सका उसने ही सत्य छुपा हर इक पहचाना
और अर्थ के अर्थों मे भी अनगिन अर्थ छुपे होते हैं
जिसको ज्ञात हुआ उसने ही अर्थ ज़िन्दगी का है जाना

मन के न्यायिक भावों ने यदि प्रश्न उठाये होते साथी
स्वयं प्रश्न उत्तर बन जाते , आकर करते वरण तुम्हारा

जितने मिले धूप के टुकड़े

समय आ गया एक बार फिर स्वप्न संवारूँ वे, पलकों पर
बीते हुए बरस की, शामिल जो अब भी हैं, परछाईं में

जिधर निगाहें उठें उधर ही दिखें उमड़ते हुए अँधेरे
दोपहरी वाले वितान पर लगे हुए हैं तम के डेरे
सूरज चन्दा और सितारे, लगा हुआ है ग्रहण सभी पर
राहू केतु से गठबन्धन में निगले है दिशा सवेरे

इस अँधियारे की मनमानी गये बरस के साथ खतम हो
भरता हूँ मैं गुलमोहर के रंग भोर की अरुणाई में

जो पथ चूमें कदम वहां पर घिरें न आकर कभी कुहासे
पथ की धूल स्वयं ही आकर करती रहे राह उजियारी
कांटों का विस्तार सिमट कर हो जाये पांखुर गुलाब की
चन्दन की महकों से संवरे खिलती हुई ह्रदय की क्यारी

जितने मिले धूप के टुकड़े, सब को ले आया बटोर कर
ताकि ज्योति के दीप बो सकूँ, नये वर्ष की अँगनाई में

देता हूँ आवाज़ बहारों को मैं नगर चौक में आकर
लौट सकें वे प्रतिध्वनियों के सँग में अम्बर से टकरा कर
और जलाये आंधी आकर दीपक फिर से अभिलाषा का
सीपी तट पर लाकर सौंपे एक बार फिर से रत्नाकर

नव पाथेय स्वयं ही देता रहे बुलावा संकल्पों को
और नीड़ का आमंत्रन हो नित ही संध्या घिर आई में

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...