जितने मिले धूप के टुकड़े

समय आ गया एक बार फिर स्वप्न संवारूँ वे, पलकों पर
बीते हुए बरस की, शामिल जो अब भी हैं, परछाईं में

जिधर निगाहें उठें उधर ही दिखें उमड़ते हुए अँधेरे
दोपहरी वाले वितान पर लगे हुए हैं तम के डेरे
सूरज चन्दा और सितारे, लगा हुआ है ग्रहण सभी पर
राहू केतु से गठबन्धन में निगले है दिशा सवेरे

इस अँधियारे की मनमानी गये बरस के साथ खतम हो
भरता हूँ मैं गुलमोहर के रंग भोर की अरुणाई में

जो पथ चूमें कदम वहां पर घिरें न आकर कभी कुहासे
पथ की धूल स्वयं ही आकर करती रहे राह उजियारी
कांटों का विस्तार सिमट कर हो जाये पांखुर गुलाब की
चन्दन की महकों से संवरे खिलती हुई ह्रदय की क्यारी

जितने मिले धूप के टुकड़े, सब को ले आया बटोर कर
ताकि ज्योति के दीप बो सकूँ, नये वर्ष की अँगनाई में

देता हूँ आवाज़ बहारों को मैं नगर चौक में आकर
लौट सकें वे प्रतिध्वनियों के सँग में अम्बर से टकरा कर
और जलाये आंधी आकर दीपक फिर से अभिलाषा का
सीपी तट पर लाकर सौंपे एक बार फिर से रत्नाकर

नव पाथेय स्वयं ही देता रहे बुलावा संकल्पों को
और नीड़ का आमंत्रन हो नित ही संध्या घिर आई में

6 comments:

Shar said...

:)

पंकज सुबीर said...

राकेश जी बहुत ही अच्‍छी बात कही है नये साल में नये विचारों के साथ । आपके गीत तो वैसे भी किसी प्रशंसा के मोहताज नहीं होते ।

Udan Tashtari said...

इस अँधियारे की मनमानी गये बरस के साथ खतम हो
भरता हूँ मैं गुलमोहर के रंग भोर की अरुणाई में


--बहुत सुन्दर संदेश और उम्दा गीत. आनन्द आ गया, भाई जी.

Shardula said...

गुरुजी,
अति सुन्दर !
==========
"..भरता हूँ मैं गुलमोहर के रंग भोर की अरुणाई में
...देता हूँ आवाज़ बहारों को मैं नगर चौक में आकर
लौट सकें वे प्रतिध्वनियों के सँग में अम्बर से टकरा कर
================
गीत गुलमोहर गंठित गुनगुना
पदचाप लगा पेडों ने था सुना
तभी आज भोर से ही वो
पगडी लाल बाँध ठारे थे ।
दीप जले थे ऊषा संग ही
आशीष सुमन सज्जित द्वारे थे ।
जाने किसको भेजीं आशीषें
हमने अपने शीश हैं धारी
गुरुदेवजी, धन्यवाद अति
पदचिन्हों ने गलियाँ संवारीं ।

रंजना said...

जिधर निगाहें उठें उधर ही दिखें उमड़ते हुए अँधेरे
दोपहरी वाले वितान पर लगे हुए हैं तम के डेरे
सूरज चन्दा और सितारे, लगा हुआ है ग्रहण सभी पर
राहू केतु से गठबन्धन में निगले है दिशा सवेरे

एकदम सटीक चित्रण किया है आपने इन पंक्तियों में.


बुझे मन पर आशा का फुहार बरसाती इस अतिसुंदर रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

गौतम राजऋषि said...

इस अँधियारे की मनमानी गये बरस के साथ खतम हो
भरता हूँ मैं गुलमोहर के रंग भोर की अरुणाई में

...मैं नत-मस्तक हमेशा की तरह इन शब्दों के समक्ष

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