तो करते अनुसरण तुम्हारा

गीत खड़े रहते स्तुतियों में शब्द शीश पर तिलक लगाते
जितनी सुन्दर भाषा होता वैसा यदि व्याकरण तुम्हारा

उंगली थामे हुए उमर की साथ नहीं चल पाता है मन
सम्बन्धों की बन जाती है हर इक बार नई परिभाषा
अपने खींचे हुए दायरे बन जाते हैं चक्रव्यूह जब
सुधियों के पनघट पर रहता प्राणों का हर इक पल प्यासा

जितना ज्ञान लुटाते उसके अंशों से मन दीपित करते
तो युग का इतिहास सुनिश्चित कर लेता अनुकरण तुम्हारा

आवश्यक ये कहाँ एक ही भाव बिकें माणिक व पत्थर
ये तो निर्भर है जौहरी की कितनी रहीं पारखी नजरें
दोष नहीं होता दर्पण का, वह तो वही दिखाता है बस
जैसे चित्र देखने वाले के नयनों में आकर सँवरें

जो पूनम की अँगनाई में शुभ्र वस्त्र जैसे बिखराई
मिलती शांति, उसी के जैसा होता अन्त:करण तुम्हारा

तस्वीरों के जितना सम्मुख, होता उससे अधिक पार्श्व में
जो यह समझ सका उसने ही सत्य छुपा हर इक पहचाना
और अर्थ के अर्थों मे भी अनगिन अर्थ छुपे होते हैं
जिसको ज्ञात हुआ उसने ही अर्थ ज़िन्दगी का है जाना

मन के न्यायिक भावों ने यदि प्रश्न उठाये होते साथी
स्वयं प्रश्न उत्तर बन जाते , आकर करते वरण तुम्हारा

6 comments:

Shar said...

:)

विवेक सिंह said...

मैंने जब इसे लय में गाना चाहा तो पहली पंक्ति में 'स्तुतियों' की जगह 'स्तुति' करने पर ही लय बन सकी . शानदार कविता हमेशा की तरह ! आदाब !

Shardula said...

"अपने खींचे हुए दायरे बन जाते हैं चक्रव्यूह जब
सुधियों के पनघट पर रहता प्राणों का हर इक पल प्यासा
जितना ज्ञान लुटाते उसके अंशों से मन दीपित करते
तो युग का इतिहास सुनिश्चित कर लेता अनुकरण तुम्हारा"
वाह !!वाह !!
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"दोष नहीं होता दर्पण का, वह तो वही दिखाता है बस
जैसे चित्र देखने वाले के नयनों में आकर सँवरें"
"तस्वीरों के जितना सम्मुख, होता उससे अधिक पार्श्व में"
"और अर्थ के अर्थों मे भी अनगिन अर्थ छुपे होते हैं"
"मन के न्यायिक भावों ने यदि प्रश्न उठाये होते साथी
स्वयं प्रश्न उत्तर बन जाते , आकर करते वरण तुम्हारा"

जब भी पढती हूँ, नतमस्तक हो जाती हूँ! शिल्प ही नहीं, आप ज्ञान के भी धनी हैं गुरुदेव ! सादर ।।

Udan Tashtari said...

आवश्यक ये कहाँ एक ही भाव बिकें माणिक व पत्थर
ये तो निर्भर है जौहरी की कितनी रहीं पारखी नजरें
दोष नहीं होता दर्पण का, वह तो वही दिखाता है बस
जैसे चित्र देखने वाले के नयनों में आकर सँवरें

जो पूनम की अँगनाई में शुभ्र वस्त्र जैसे बिखराई
मिलती शांति, उसी के जैसा होता अन्त:करण तुम्हारा


-अह्ह!!वाह!!

अद्भुत संयोजन..आनन्द आ गया.

क्या तारीफ करें..शब्द ही नहीं हैं.

Shar said...

naya geet kab?

Rakesh Pandey said...

आदरणीया शर्दुला जी ने जब आपकी वेबसाईट भेजी तो मै क्षण भर को तो जैसे विस्मित सा हो गया, इतनी सुन्दर रचना, पन्क्तियो के हर शब्द मे सुन्दर समायोजन, अति सुन्दर गूढ भावार्थो के साथ सुन्दर शब्द चयन, मै आपके हिन्दी शब्दकोश से सचमुच अभिभूत हू , वैसे तो मै आदरणीया कवियत्री शर्दुला जी की रचना पढकर ही प्रसन्न हो जाता था परन्तु यदि उन्होने आपके प्रति जो आदर के भाव व्यक्त किये है सचमुच आप उसके काबिल है,

अपने खींचे हुए दायरे बन जाते हैं चक्रव्यूह जब
सुधियों के पनघट पर रहता प्राणों का हर इक पल प्यासा

सचमुच बहुत सुन्दर पन्क्ति
आवश्यक ये कहाँ एक ही भाव बिकें माणिक व पत्थर
ये तो निर्भर है जौहरी की कितनी रहीं पारखी नजरें
दोष नहीं होता दर्पण का, वह तो वही दिखाता है बस
जैसे चित्र देखने वाले के नयनों में आकर सँवरें


आपकी यह पन्क्ति तो सचमुच कविता का जैसे निचोड है
मन के न्यायिक भावों ने यदि प्रश्न उठाये होते साथी
स्वयं प्रश्न उत्तर बन जाते , आकर करते वरण तुम्हारा

आदरणीया शर्दुला जी के प्रति क्रितग्यता व्यक्त करते हुये इतनी ही कह सकून्गा कि इस सुन्दर रचना के लिये आप बधाई के पात्र है, यद्यपि यह कहना शायद बहुत अच्छा नही होगा क्योकि हर शब्द स्वर्णिम आभा बिखेरते हुये भावो के अनुपम सयोजन है.

सादर
राकेश पाण्डेय
बिलासपुर (छत्तीसगढ)

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