कहो पढ़ा क्या प्रियतम तुमने

गिरिश्रंगों के श्वेत पत्र पर सूरज की किरणों ने आकर
जो सन्देश उभारा उसको कहो पढ़ा क्या प्रियतम तुमने

सागर की गहराई में से निकले मोती अक्षर बन कर
और चले अंगड़ाई लेकर मेघदूत के रथ पर चढ़ कर
पवन डाकिये की झोली में बैठे हुए शिखर तक आये
फिर झोली से बाहर निकले और वादियों में छितराये

जो अनुराग होंठ पर आया नहीं और न आंखों में ही
अकस्मात हो गया समाहित वह शब्दों में आज सुनयने

शिखरों से वादी के पथ पर खड़े हुए तरु देवदार के
रखते हुए शाख के गुलदानों में कुछ अनुभव निखार के
श्वेत शुभ्र हिम की फ़ुहियों में बंधे प्रीत के कुछ सन्देसे
पत्तों के प्याले में कण कण एक एक कर रख सहेजे

ढांपे हुए पांव के चिन्हों को सौगंधों वाली चादर
याद दिला पाई क्या तुमको बीते कल की चन्दन बदने

चंचल बादल का इक टुकड़ा अठखेली करता वितान में
गुपचुप पास क्षितज के जाकर, हौले से कुछ कहे कान में
नये अर्थ देता सा मन के सम्बन्धों की परिभाषा को
बांहों में भरता धरती को छू लेने की अभिलाषा को

जो प्रतीक वह बिना शब्द के समझाने में लगा हुआ है
क्या तुम उसको समझ सको हो, यह बतलाओ कला निमग्ने

वादी की इक शांत झील में खिले कमल की पंखुड़ियों पर
शबनम ने जो पाठ पढ़ाये मधुपों को, गिन उंगलियों पर
ढाई अक्षर में सिमटीं वे शत शत कोटि कोटि गाथायें
जिनको मधुर स्वरों में गातीं नभ के झूले चढ़ीं हवायें

उन गाथाओं का तुमने क्या कोई अक्षर जीकर देखा
या फिर किसी कथानक का तुम पात्र बने हो ! देखे सपने ?

5 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर......गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Udan Tashtari said...

बहुत सही..

आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

Shardula said...

अति सुन्दर! अति सुन्दर!
प्रेम और प्रकृति का इतना अद्भुत मिश्रण !
नमन स्वीकारें !
"गिरिश्रंगों के श्वेत पत्र,पवन डाकिये की झोली ,शाख के गुलदान,पत्तों के प्याले ,क्षितज के कान"
कहाँ से ढूँढ लाते हैं आप ये उपमायें , यह बतलायें कला निमग्ने :)

कंचन सिंह चौहान said...

जो अनुराग होंठ पर आया नहीं और न आंखों में ही
अकस्मात हो गया समाहित वह शब्दों में आज सुनयने

aap ki prashansha ke liye hamesha Shabda chhote pad jaate hai.n

गौतम राजऋषि said...

अद्‍भुत गीत राकेश जी...इतने सुंदर काफ़िये...सुनयने,कला निमग्ने,चंदन बदने...
कि दिल से बस उफ़्फ़्फ़्फ़ निकलता रहा

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