कितना उसे ओस ने धोया

पता नहीं क्यों आज रोशनी छुप कर रही गगन के पीछे
पता नहीं क्यों चन्दा सूरज बैठे रहे पलक को मींचे
पता नहीं क्यों आज नीर की गगरी छलकी नहीं घटा की
पता नहीं क्यों रश्मि भोर की, उषा रही मुट्ठी में भींचे

सोच रहा था जब मैं ये सब, बता गया यह एक झकोरा
क्योंकि न तुमने पलकें खोलीं अपनी, रहा जगत भी सोया

ढका रहे जब ज्योतिपुंज तो कैसे छिटक सकेंगी किरणें
हो न प्रवाहित निर्झर, कैसे उमड़ेंगी नदिया में लहरें
कली न आंखें खोले अपनी तो कैसे सुगन्ध बिखरेगी
झरे नहीं नयनों से पूनम , कैसे चन्द्र विभा संवरेगी

ढांप लिया जब जगमग आनन, मावस की सी चिकुर राशि ने
तब ही तो नभ की पगडंडी पर चलता सूरज रथ खोया

उमड़ी नहीं घटा पश्चिम की क्योंकि न तुमने ली अंगड़ाई
बिखरा नहीं अलक्तक पग से, संध्या हो न सकी अरुणाई
बन्द रही काजल की कोरों में हो कैद रात की रानी
बंधी रही आंचल से पुरबा कर न सकी अपनी मनमानी

पा न सका था स्पर्श स्वरों का , तो गुलाब अधरों का कोमल
रहा तनिक मुरझाया सा ही, कितना उसे ओस ने धोया

छनकी नहीं पांव की पायल,सुर सितार के संवर न पाये
खनका कंगन नहीं, कोयलें चुप ही रहीं गीत न गाये
हिना न झांकी मुट्ठी में से, तो अमराई नहीं बौराई
शब्दों का विन्यास चला घुटनों पर, आई नहीं तरुणाई

हुआ अंकुरित नहीं एक भी गीत ह्रदय की फुलवारी में
बिना तुमहारे दॄष्टिपात के,अक्षर अक्षर कितना बोया

9 comments:

mehek said...

ढांप लिया जब जगमग आनन, मावस की सी चिकुर राशि ने
तब ही तो नभ की पगडंडी पर चलता सूरज रथ खोया

behad khubsurat

Unknown said...

पता नहीं क्यों आज रोशनी छुप कर रही गगन के पीछे
पता नहीं क्यों चन्दा सूरज बैठे रहे पलक को मींचे
पता नहीं क्यों आज नीर की गगरी छलकी नहीं घटा की
पता नहीं क्यों रश्मि भोर की, उषा रही मुट्ठी में भींचे
kalpanabhav behad sunder .accha chitra ukera hai aap ne.

निर्मला कपिला said...

hua nahi ankurit ek bhi geet is fulvari me bina tumhare drishti pat ke akshar akshar kitna khoya
bahut sundar abhivyakti hai

दिगम्बर नासवा said...

पता नहीं क्यों आज रोशनी छुप कर रही गगन के पीछे
पता नहीं क्यों चन्दा सूरज बैठे रहे पलक को मींचे

राकेश जी
बहुत ही मधुर गीत है..............मैंने तो इसे पहली बार पढ़ते हुवे भी गाने के अंदाज़ में पढ़ा और धाराप्रवाह पढता गया ..........
सारे छंद लाजवाब है

ढका रहे जब ज्योतिपुंज तो कैसे छिटक सकेंगी किरणें
हो न प्रवाहित निर्झर, कैसे उमड़ेंगी नदिया में लहरें

Shardula said...

"पता नहीं क्यों आज नीर ...मुट्ठी में भींचे"
"झरे नहीं नयनों ....विभा संवरेगी"
"तब ही तो नभ की पगडंडी ...सूरज रथ खोया"
"पा न सका था स्पर्श ..कितना उसे ओस ने धोया"
"हुआ अंकुरित नहीं ...अक्षर अक्षर कितना बोया"

अति सुन्दर !!
----------
पूरा गीत ही सुन्दर!
सोच रही हूँ एक Random Number Generator जैसा कोई Random Praise Generator वाला subroutine बना लूँ जो आपकी हर रचना पे नयी-नयी टिप्पणी दे सके!:)
अब तो मेरे बस की बात नहीं रोज़-रोज़ नयी बात लिख के आपकी प्रशंसा करना. अब समझ आया कि क्यों इस चिठ्ठा जगत के अधिकतर बाशिंदे आपके गीतों को पढ़ कर बिना कुछ लिखे ही, नमन कर के चले जाते हैं!:)
लिखते रहिये ! हम भाग्यवान हैं कि आपका सानिध्य मिल रहा है !
सादर . . .

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छी लगी आपकी यह कविता मुझे।

मोहन वशिष्‍ठ said...

पा न सका था स्पर्श स्वरों का , तो गुलाब अधरों का कोमल
रहा तनिक मुरझाया सा ही, कितना उसे ओस ने धोया

वाह जी वाह बेहतरीन रचना आभार

अनिल कान्त said...

एकदम मस्त ...मज़ेदार ...मोहब्बत से भरी हुई

Udan Tashtari said...

क्या कहें भाई जी- झकोरे का आभार ही कहे देते हैं. ऐसी ऐसी बेमिसाल रचनाऐं लाते हैं और उसमें जब विरोधाभासी बातें होती हैं जैसे:

हुआ अंकुरित नहीं एक भी गीत ह्रदय की फुलवारी में
बिना तुमहारे दॄष्टिपात के,अक्षर अक्षर कितना बोया

-बस निःशब्द से देखते रहते हैं. सोचते हैं कि यह कहने को भी ऐसी सुन्दर रचना-ऐसा अद्भुत गीत!!

जय हो माँ शारदा की ...आप पर यूँ ही उनके आशीषों की वर्षा होती रहे. हम आसपास छीटों में भीग कर आपको भीगता देख लुत्फ लेते रहेंगे.

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...