अपने गीत सुनाता हूं मैं

छन्दों का व्याकरण अपरिचित होकर रहा आज तक हमसे
और गज़ल का बहर काफ़िया, सब कुछ ही रह गया अजाना
काव्य सिन्धु का तीर परे है बहुत हमारी सीमाऒं के
सत्य यही है, क्षमतायें भी सीमित हैं हमने पहचाना
किन्तु ह्रदय की सुप्त भावना में गिर कंकर एक भाव का
शान्त लहर में कोई हलचल सहसा कभी जगा जाता है
तो निस्तब्ध ह्रदय का पाखी मुखरित कर अपनी उड़ान को
अपने स्वर की पीड़ित सरगम को झट से बिखरा जाता है
गूँथ रखे हूं सरगम के मैं वो ही स्वर अपने शब्दों मे
और उन्हीं को समो कंठ में अपने गीत सुनाता हूं मैं
मंदिर की चौखट पर बिखरे हुए फूल की क्षत पंखुड़ियां
रिसता हुआ उंगलियों में से बून्द बून्द कर अभिमंत्रित जल
आशंका से ग्रस्त दीप की थर थर होती कंपित इक लौ
डगमग होता हुआ धुंआसी हुई आस्थाओं का सम्बल
शीश तिलक के पीछे अंकित चुपे हुए अनबूझ सन्देसे
और आरती का स्वागत या विदा प्रश्न पर उलझे रहना
अगरु धूम्र में लिपटे लिपटे छितरा जाती हुई आस का
रह रह कर अपनी सीमा में छुपते हुए मौन हो रहना
ये जो भाव दूर ही रहते आये देव चरण से अक्सर
इन सबको समेट कर अपने संग में, अर्घ्य चढ़ाता हूँ मैं
पांवों की ठोकर से बिखरे हुए देहरी पर के अक्षत
पूजा की चौकी पर नव ग्रह के प्रतीक भी बन जाते हैं
रंग अलक्तक के लेते हैं करवट जब अंगड़ाई लेकर
रोली बन कर देव-भाल की सज्जा बन कर सज जाते हैं
खंड खंड जो कर देती है एक शिला को वह ही छैनी
डूब प्रीत में, सुघड़ शिल्प की प्रतिमा को निखार देती है
बिखरे हुए संतुलन से जो ढली शोर में, वे आवाज़ें
कभी कभी वंशी पर चढ़ कर सरगम को संवार देती हैं
सहज विरोधाभास ज़िन्दगी के जो कदम कदम पर बिखरे
उठा उन्हें भर कर बाँहों में अपने अंक लगाता हूँ मैं
उंगली एक छूट कर मुट्ठी से खो जाती है मेले में
और निगाहें वे जो लौटीं वापिस हर द्वारे से टकरा
स्वर वे उपजे हुए कंठ के जिन्हें न पथ में कोई रोके
और आस के फूल पांखुरी रह जाती हैं जिनकी छितरा
वह सांसों की डोर न थामें जिसको कभी हवा के झोंके
और धड़कने वे जिनकी गति अवरोधों से ग्रस्त हुई है
निशि के अंतिम एक सितारे कीज बिखराती हुई रश्मियाँ
सूरज की अगवानी होती देख स्वयं ही अस्त हुई हैं
रहे उपेक्षित इतिहासों की गाथाओं की नजरों से जो
आज उन्हीं को ढाल शब्द में गाथा एक सुनाता हूँ मैं

8 comments:

श्यामल सुमन said...

क्या बात है राकेश भाई?

शब्द कलम से जो भी निकले बन जाते हैं गीत।
गीत सुनाने आये हैं जो उससे मुझको प्रीत।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Shardula said...

"फूल की क्षत पंखुड़ियां,रिसता अभिमंत्रित जल,डगमग होता आस्थाओं का सम्बल,
आरती का स्वागत या विदा प्रश्न पर उलझे रहना,
देव चरण से दूर ही रहते भाव!!"

क्या कह के सराहा जाए इन बिम्बों को!

सादर नमन!

Shardula said...

"सहज विरोधाभास ज़िन्दगी के जो कदम कदम पर बिखरे
उठा उन्हें भर कर बाँहों में अपने अंक लगाता हूँ मैं
उंगली एक छूट कर मुट्ठी से खो जाती है मेले में"
"और निगाहें वे जो लौटीं वापिस हर द्वारे से टकरा"
--
"रहे उपेक्षित इतिहासों की गाथाओं की नजरों से जो
आज उन्हीं को ढाल शब्द में गाथा एक सुनाता हूँ मैं"
--
बहुत ही सुन्दर ! सीधे मन तक पहुँचने वाली पंक्तियाँ !

सतपाल ख़याल said...

खंड खंड जो कर देती है एक शिला को वह ही छैनी
डूब प्रीत में, सुघड़ शिल्प की प्रतिमा को निखार देती है

hamesha ki tarah umda!

दिगम्बर नासवा said...

रहे उपेक्षित इतिहासों की गाथाओं की नजरों से जो
आज उन्हीं को ढाल शब्द में गाथा एक सुनाता हूँ मैं

राकेश जी
आपका हर शब्द कोई गाथा सुनाता हुवा ही लगता है............गीत की माला में पिरो कर सुन्दर रचनाएं मन को मोह लेती हैं..........लाजवाब गीत आपके गीत कलश से

हरकीरत ' हीर' said...

मंदिर की चौखट पर बिखरे हुए फूल की क्षत पंखुड़ियां
रिसता हुआ उंगलियों में से बून्द बून्द कर अभिमंत्रित जल
आशंका से ग्रस्त दीप की थर थर होती कंपित इक लौ
डगमग होता हुआ धुंआसी हुई आस्थाओं का सम्बल
शीश तिलक के पीछे अंकित चुपे हुए अनबूझ सन्देसे
और आरती का स्वागत या विदा प्रश्न पर उलझे रहना
अगरु धूम्र में लिपटे लिपटे छितरा जाती हुई आस का
रह रह कर अपनी सीमा में छुपते हुए मौन हो रहना
ये जो भाव दूर ही रहते आये देव चरण से अक्सर
इन सबको समेट कर अपने संग में, अर्घ्य चढ़ाता हूँ मैं

छंदबद्ध सुन्दर रचना ....आपके ब्लॉग पे पहली बार आई....अच्छा लगा ...और भी बेहतर रचनाओं की उम्मीद रहेगी आपसे ......!!

नीरज गोस्वामी said...

काव्य सिन्धु का तीर परे है बहुत हमारी सीमाऒं के
सत्य यही है, क्षमतायें भी सीमित हैं हमने पहचाना
ये आपका बड़प्पन है जो ऐसा कह रहे हैं....राकेश जी आप की सीमाओं से काव्य सिन्धु का तीर परे नहीं है...आप की सीमायें ही असीमित हैं...और क्षमताएं भी असीमित...आप ने सही नहीं पहचाना...हमें आपकी इस पंक्ति पर आपत्ति है...
अद्भुत रचना है...झरने की तरह कल कल करते शब्द जब आपकी रचना में बहते हैं तो मन शीतल हो जाता है...वाह...नमन...बारम्बार नमन आपकी लेखनी को...
नीरज

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह बहुत सुंदर गीत आपको बहुत बधाई बड़े भाई

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नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...