स्वर में रँग कर गाते तो हैं

सम्बन्धों की छार छार हो चुकी चूनरी में हम अपने
समझौतों के टूटे टुकड़ों के पैबन्द लगाते तो हैं
शब्द नहीं हैं, शिल्प नहीं हैं भावहीन हों चाहे लेकिन
मन की आवाज़ों को अपने स्वर में रँग कर गाते तो हैं

जुड़ा नहीं परिचय का धागा, गुरुकुल वाले संस्कार से
रही ज्योति की चाह हमेशा निकल न पाये अंधकार से
आकांक्षा थी दीपित हों हम, इसीलिये दिन रात जले हैं
एकलव्य की निष्ठायें भी भरीं अंक में हर प्रकार से

द्रोणाचार्य भले ही अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे हैं
लेकिन अपना एक अँगूठा हम फिर भी कटवाते तो हैं

रहीं पूर्णिमा, पंचम, द्वितीया या एकादशियां पक्षों की
रखी सजा पूजा की थाली, रँग लीं दीवारें कक्षों की
धूप अगरु लोबान जला कर बुना धुँए का सेतु गगन तक
श्रुति की नई व्याख्या सुन लीं, उसके तथाकथित दक्षों की

ज्ञात रहा पत्थर ही तो है, जो नदिया के तल से निकला
श्रद्धा में पर डुब आस्था, उस पर नीर चढ़ाते तो हैं

चला नहीं है साथ पंथ पर, थाम हाथ हाथों में कोई
अभिलाषाओं की संस्मॄतियां, एकाकी हो वन में खोई
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये झंझाओं से लड़ते लड़ते
कॄत संकल्पों की सब घड़ियाँआखिर में थक कर के सोईं

थकी हुई आशाओं के बिखरे धागे एकत्रित कर के
बाती में बट, विश्वासों का फिर से दीप जलाते तो हैं

नहीं भीड़ में जगह पा सकीं जब पहचानों की रेखायें
जागी नहीं शीत परिवेशों में अपनेपन की उष्मायें
उमड़े हुए सिन्धु के तट पर सीपी शेष न कोई पाई
किये समर्पण झुकी धरा पर जब जीवन की सभी विधायें

संस्कॄतियों से मिली भेंट में , खंडित हुई आस्थाओं की
नये सिरे से अपने मन में प्रतिमा एक बनाते तो हैं

11 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मन की आवाज़ों को अपने स्वर में रँग कर गाते तो हैं
सर्वश्रेष्ठ, बस 'तो' खटक रहा है।

Udan Tashtari said...

Ek aur adbhut Geet..bahut umda!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"संस्कॄतियों से मिली भेंट में ,
खंडित हुई आस्थाओं की
नये सिरे से अपने मन में
प्रतिमा एक बनाते तो हैं"

महकते हुए शब्द पुषपों से गुंथित इस कविता के लिए बहुतक्-बहुत बधाई।

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर गीत
द्रोणाचार्य भले ही अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे हैं
लेकिन अपना एक अँगूठा हम फिर भी कटवाते तो हैं
लाजवाब बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये

Shardula said...

अतिसुन्दर कविता!
बहुत ही प्रभावशाली और विचारोत्तेजक! हर बात जैसे विचारों के मंथन से निकला कनक-घट! अब उसमें हलाहल है या अमृत ये पीने वाले की श्रद्धा पर निर्भर है.
ऎसी कविता जो प्रश्नों और बिम्बों में स्वयं ही उत्तर समेटे बैठी है: घोर कालिमा से ग्रसित हो क्यों जलाते हैं हम एक क्षुद्र सा दीप . . . क्योंकि यही आस्था तो जीवन का ज्योति-पर्व है!

शब्द शिल्प ही यदि गुरुवर अनुपम गीत बना लेता तो
खेतों की मेड़ों पे चलता नन्हा बालक क्या गा पाता
और यदि ना द्रोण माँगते एकलव्य से अंगूठे को
किंचित कथा महाभारत में उसका नाम नहीं आ पाता
श्रद्धा से ही माधव हैं और भूतनाथ आधीन भाव के
विश्वासों के दीप जले तब झंझा क्या तम भी है हारा
लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है, भाव शिल्प सब टूटाफूटा
एक मिली आशीष गुरु से "हो प्रशस्त पथ सदा तुम्हारा!"

सादर

Dr. Amar Jyoti said...

'थकी हुई आशाओं के…'
बहुत सुन्दर!पर 'तो' पूरे हौसले को किसी मजबूरी का रूप देता सा लगता है।

Vinay said...

अत्यंत सुन्दर
--->
गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम

नीरज गोस्वामी said...

अद्भुत रचना...अद्वितीय ...आपके लेखन पर टिपण्णी करने की ताब नहीं है हम में...आप जो लिखते हैं वहां तक की सोच ही नहीं है हम में...आपकी विलक्षण प्रतिभा को नमन है...
नीरज

रंजना said...

नहीं भीड़ में जगह पा सकीं जब पहचानों की रेखायें
जागी नहीं शीत परिवेशों में अपनेपन की उष्मायें
उमड़े हुए सिन्धु के तट पर सीपी शेष न कोई पाई
किये समर्पण झुकी धरा पर जब जीवन की सभी विधायें

संस्कॄतियों से मिली भेंट में , खंडित हुई आस्थाओं की
नये सिरे से अपने मन में प्रतिमा एक बनाते तो हैं


वाह ! वाह ! वाह !!! इसके आगे कुछ भी कहने को शब्द संधान कर पाना असंभव हो जाया करता है....

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ said...

आपकी वाणी का कोई प्रतिस्पर्द्धी नहीं दिखता मुझे।
अन्यन्त सुंदर!
पूरा गीत ही अद्भुत है लेकिन ये पंक्तियाँ विशेष अच्छी लगीं।
द्रोणाचार्य भले ही अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे हैं
लेकिन अपना एक अँगूठा हम फिर भी कटवाते तो हैं
थकी हुई आशाओं के बिखरे धागे एकत्रित कर के
बाती में बट, विश्वासों का फिर से दीप जलाते तो हैं
संस्कॄतियों से मिली भेंट में , खंडित हुई आस्थाओं की
नये सिरे से अपने मन में प्रतिमा एक बनाते तो हैं

Shar said...

सम्बन्धों की छार छार हो चुकी चूनरी में हम अपने
समझौतों के टूटे टुकड़ों के पैबन्द लगाते तो हैं
शब्द नहीं हैं, शिल्प नहीं हैं भावहीन हों चाहे लेकिन
मन की आवाज़ों को अपने स्वर में रँग कर गाते तो हैं

जुड़ा नहीं परिचय का धागा, गुरुकुल वाले संस्कार से
रही ज्योति की चाह हमेशा निकल न पाये अंधकार से
आकांक्षा थी दीपित हों हम, इसीलिये दिन रात जले हैं
एकलव्य की निष्ठायें भी भरीं अंक में हर प्रकार से

द्रोणाचार्य भले ही अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे हैं
लेकिन अपना एक अँगूठा हम फिर भी कटवाते तो हैं

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...