उठ आये हैं प्रश्न हज़ारों

तुमने मुझसे कहा लिखूं मैं गीत तोड़ कर सब सीमायें
मैं लिखने बैठा तो मन में उठ आये हैं प्रश्न हज़ारों

क्या मैं लिखूं न समझा जाये जिसे एक परिपाटी केव
आंसू क्रन्दन मुस्कानें या उपज रही पीड़ा की बातें
प्रीतम के भुजपाशों के पल, दृष्टि साधना के मोहक क्षण
या फिर आंखों के सावन में घिरी हुईं विरहा की रातें

नहीं नहीं ये सब कुछ जाने कितनी बार गया दोहराया
ढूँढ़ रहा हूँ भाव कभी जो सिमटा नहीं शब्द की धारों

हां ये विदित थकी हैं कलमें केवल एक बात दुहराते
फूल, पांखुरी, चन्दन, पुरबा, सावन झूले, गाता पनघट
ब्रज के रसिया, मादक सपरी, भोपा बाऊल की स्वर लहर
और वही इक थिरकी पायल, एक वही कालिन्दी का तट

एक धरोहर, लिखना जिसके आगे शायद कठिन बहुत है
या लकुटी और कांवरिया पर राज तिहुँ पुर कौ तज डारौं

संध्या निशा भोर दोपहरी यदि न लिखूं तो बाकी क्या है
आन्दोलन की चीख पुकारें, रोटी का रोजी का रोना
टुटे हुए स्वप्न के अवशेषों को रह रह कर बुहारना
और ज़िन्दगी की गठरी को बोझ समझ कर कांधे ढोना

तथाकथित इक प्रगतिवाद की सम्भव है ये बनें इकाई
बाँधा है सम्बोधन दे देकर संग परिवर्तन के नारों

8 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हां ये विदित थकी हैं कलमें केवल एक बात दुहराते
फूल, पांखुरी, चन्दन, पुरबा, सावन झूले, गाता पनघट
ब्रज के रसिया, मादक सपरी, भोपा बाऊल की स्वर लहर
और वही इक थिरकी पायल, एक वही कालिन्दी का तट

बेहतरीन!

Udan Tashtari said...

तुमने मुझसे कहा लिखूं मैं गीत तोड़ कर सब सीमायें
मैं लिखने बैठा तो मन में उठ आये हैं प्रश्न हज़ारों


-बहुत सटीक बात कही है आपने भाई जी..प्रभावशाली गीत.

Udan Tashtari said...

अरे हाँ, मेरे ब्लॉग का पता अभी भी:

http://udantashtari.blogspot.com/

यही तो है. :)

निर्मला कपिला said...

तुमने मुझसे कहा लिखूं मैं गीत तोड़ कर सब सीमायें
मैं लिखने बैठा तो मन में उठ आये हैं प्रश्न हज़ारों
बहुत सुन्दर रचना है शुभकामनायें

विनोद कुमार पांडेय said...

पहले की तरह ही बार बार गुनगुनाती गीत..थोड़ा देर से पहुँच पाया परंतु शब्दों और भावों का खजाना पाया आपके इस गीतों के ब्लॉग गीत कलश पर..धन्यवाद राकेश जी गीत बहुत बढ़िया लगे...

Shardula said...

गुरुजी,
श्री रामचरितमानस का कुछ याद आ गया, सो पहले वह सुनिए :
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥
============
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥

Shardula said...

अब आपकी इस कविता पे अपनी एक अकविता का छंद याद आया :
" एक गीत जो जड़ चेतन में ढल जाता है जीवन बन कर
मन से मन को छूता छूता जो अनंत में छा जाता है
रक्त बना जो गाँव शहर की धमनी - धमनी दौड़ा करता
और समय पड़ने पर बन कर क्रोध नयन में उतराता है
उसी गीत में ढलो सखे तुम!"
17 Dec09

योगेन्द्र मौदगिल said...

wah...wahwa..

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...