सब सितारों की चौसर की हैं गोटियाँ

खोजता है कोई रौशनी धूप में
कोई परछाइयों से गले मिल रहा
कोई जलता है पा मलायजों का परस
कोई पी अग्नि को फूल सा खिल रहा
तीर नदिया के ले प्यास आया कोई
और लेकर गया साथ में प्यास ही
रत्न मणियाँ किसी को मिलीं चाहे बिन
कोई कर न सका आस की आस भी

कोई मर्जी से अपनी न कुछ कर सके
सब सितारों की चौसर की हैं गोटियाँ

शैल के खंड , कोई पड़ा रराह में
शिल्प को चूम कोइ  बने देवता
कोई कोणार्क बन कर कथाएं कहे
कोई नेपथ्य में हो खड़ा देखता
कोई हो भूमिगत बनता आधार है
नभ की उंचाइयां कर रहा है सुगम
कोई अनगिन प्रहारों से छलनी हुआ
हर घड़ी झेलता छैनियों की चुभन

ज्ञात होता नहीं है उसे ये तनिक
वो बने कोई प्रतिमा कि या सीढियां

फूल पूजा की थाली में कोई सजे
कोई माला बने प्रीत अनुबंध की
कोई शूलों के पहरे में बैठा हुआ
तान छेड़ा करे रस भरी गंध की
कोई आहत पलों को सुकोमल कर
कोई चूमे किसी देवता के चरण
शीश चढ़ता कोई वेणियों में सिमट
है किसी की नियति बस धरा का वरण

कल्पना की पतंगें उड़ें व्योम में
खींच लेती धरा पर मगर डोरियाँ

किन्तु सुधि के आँगनों में हैं प्रतीक्षायें अधूरी

सिन्धु में लहरें उमड़तीं, भाव यों उमड़े ह्रदय में
किन्तु तट पर शब्द के वह रह गये सारे बिखर कर

छू लिया था जब नयन की चाँदनी ने मन सरोवर
उस घड़ी आलोड़ना होने लगी थी तीव्र मन में
और इंगित एक वह अदॄश्य सा अनुभूत होकर
भर गया दावाग्नियां अनगिन अचानक स्वास वन में

दॄष्टि के आकाश पर बादल उमड़ते कल्पना के
यष्टि में लेकिन तुम्हारी एक न आता सँवर कर

देह को छूकर तुम्हारी मलयजी होती हवा ने
भर लिया है बाँह में आकर मुझे संध्या सकारे
और पहली रश्मि ने चलकर उषा की देहरी स
पॄष्ठ पर नभ के तुम्हारे चित्र ही केवल उभारे

किन्तु चाहा जब कभी मैं आँज लू इनको नयन मे
रंग आये सामने सहसा हजारों ही उमड़ कर

चेतना की दुन्दुभी अवचेतना का मौन गहरा
है तुम्हारी छाप सब पर हैं तुम्ही से सब प्रभावित
ज़िन्दगी में दोपहर हो याकि संध्या हो, निशा हो
हर घड़ी हर प्रहर, पल में एक तुम ही हो समाहित

किन्तु सुधि के आँगनों में हैं प्रतीक्षायें अधूरी
सामने आओ निकलकर कल्पना से, देह धर कर

वा रेशमी किसे चूम कर आइ है

पता नहीं है इस मौसम पर किसकी ये परछाई है
आज रेशमी हवा यहाँ पर किसे चूम कर आई है

झोंका एक सुरमई लगता और दूसरा सिंदूरी
एक गले से आ लिपटा है एक बढाता है दूरी
एक लड़खडाता दूजे पर नई रंगतें छाई है

छेड़ रहा है कोई गाते नये सुरों में नई ग़ज़ल
कोई मौन रहा है दिखता केवल होता भाव विह्वल
झोंका सरगम एक सँवारे,दूजे ने बिखराई है

बहकी हवा छोड़ती छापें मेंहदी वाले हाथों की
किस्से कोई दुहराती है चन्दा वाली रातों की
एक हवा है मुंहफट दूजी बिना बात शरमाई है

महका करते चन्दन वन

निशा झरे तेरे कुंतल से ,मुस्कानों से संवरे भोर
गंध देह की तेरे लेकर महका करते चन्दन वन

तेरी पायल जब जब खनक
अम्बर में उग आयें सितार
तेरी चूनर को छू छू कर
संध्या अपनी मांग संवारे

तू गाये तो वंसी की धुन से गूंजे सारा वृन्दाव
गंध देह की तेरे लेकर महका करते चन्दन वन

जब भी तेरा रूप निहार
आँखें बंद उर्वशी कर ले
और मेनका परछाईं क
ले तेरी आभूषण कर ले

तेरे लिए देव भी करते अनुष्ठान जप और हवंन
गंध देह की तेरे लेकर महका करते चन्दन

नयनों से परिभाषित होतीं
महाकाव्य की भाषाए
तुझ से प्राप्त प्रेरणा करतीं
मन की सब अभिलाषाएं

तेरे अधरों पर रामायण,वेद और गीता पाव
गंध देह की तेरे लेकर महका करते चन्दन वन

समय शिला पर तेरे कारण
चित्रित हुई अजंता है
मीनाक्षी के शिल्पों क
आकार तुझी से बनता  है

एलोरा कोणार्क सभी में अंकित है तेरे चितवन
गंध   देह की तेरे लेकर महका करते चन्दन वन

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...