पावस के जाने पर प्राची में ज्यों किरण भोर की निखरे
जैसे गंगा की लहरों पर संध्याओं में सोना बिखरे
आवाज़ें उठ रहे शोर की ढल जायें ज्यों जलतरंग में
विधना कहे द्वार पर आकर,अपना भाग्य स्वयं तू लिख रे
कुछ ऐसी अनुभूति संचयित होने लगी मेरी निधियों में
मेरे नयनों के आँगन में आ जब सँवरे चित्र तुम्हारे
पारिजात की कोमल गंधों ने गुलाब की रंगत लेकर
शहदीली भाषाओं ने रससिक्त व्याकरण में सज धज कर
देहरी पर अगवानी में आ,सात रंग से रँगी अल्पना
धोने लगे पंथ अम्बर से घड़े नीर के छलक छलक कर
संध्या ले सिन्दूर,भोर ले कंकुम आतुर हुईं प्रतीक्षित
पहले कौन तुम्हारा पाकर परस स्वयं का रूप सँवारे
चन्दा ने पिघली चाँदी से रँगी निशा की कजरी चूनर
मंगल दीप जला मंदिर ने खोले स्वत: बन्द अपने पट
शहनाई ने गीत सुनाये,अलगोजे से तान मिलाकर
भाव सिक्त बह रही हवा के कँपने लगे अधर रह रह कर
रहे ताकते ध्यान केन्द्र कर,फूल पत्तियां,सुरभि वाटिका
मुस्कानों से भीगी वाणी,किसे तुम्हारी प्रथम पुकारे
आशा ने छू पाजेबों की रुनझुन को फिर ली अंगड़ाई
पथ गुलाब का पाटल होने लगा तुम्हारी छू परछाईं
चिकुरों पर से फिसल थिरकती किरणों ने कर दिया उजाला
लिखने लगा शब्द ही नूतन गीत स्वयं को कर वरदाई
खिड़की के पट थामे आकर पुरबाई ने सरगम के सँग
आँचल लहराकर दोनों में पहले किसको और निखारे