जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया और दरवाजे के एक ओर होकर अक्तूबर को अन्दर आने का निमंत्रण देते हुये बाहर निकल गया. ऊहापोह में डूबा मैं उसके इस व्यवहार को समझने की कोशिश कर ही रहा था तभी अक्तूबर ने अपनी एक उंगली उठा कर याद दिलाया कि गीत कलश पर माँ शारदा के आशीष के शब्द सुमन प्रस्तुत करने हैं और यह पंखुरियाँ इस क्रम में पाँचसौवीं होंगी. कुछ विशेष नहीं है. वही शब्दों के फूल जो सदा माँ सरस्वती के चरणोंमें चढ़ते है. वही शब्द सुमन एक बार फिर सादर समर्पित माँ भारती के श्री चरणों में :-
निखरी है कोई परछाई जब जब भी धरती पर पड़कर
मृतिका सहज बना देती है प्रतिमा उसकी पल में गढ़ कर
अनायास वो सज जाती है छवियाँ लेकर मीत तुम्हारी
रख लेता है भावसिक्त मन उसको दीवारों पर जड़कर
परछाईं तो परछाईं है, बोध कहे कितना भी चाहे
दृष्टि ढूँढती हर परछाईं में केवल आभास तुम्हारे
जिन सोचों में डूबा हूँ मैं, शायद तुम भी उनमें खोये
जो सपने देखे हैं मैंने,तुमने भी आँखों में बोये
यादों के जिन मणिपुष्पों की माला तुमने पहन रखी है
मैंने भी तो उस माला में एक एक कर मोती पोये
दूर क्षितिज के पार कहीं तुम ज्ञात मुझे है ये अनुरागी
लेकिन मन का पाखी रह रह उड़ जाता है पास तुम्हारे
प्राची की शाखा पर बुनते चादर बही हवा के धागे
उनसे छनती हुई धूप को पी पी कर के उषा जागे
उसकीअँगड़ाई नदिया की लहरों पर जो चित्र उकेरे
उनमें पाकर छाँव तुम्हारी लगन तुम्हीं से फिर फिर लागे
यायावरी पगों की भटकन जब जब भी पाथेय सजाती
पते नीड़ के तब तब होकर आते हैं बस दास तुम्हारे
अस्ताचल के पथ में आकर गाता है जब कोई पाखी
यादों की मदिरा छलकाती रह रह कर सुधियों की साकी
नाम तुम्हारा गूंजा करता, स्वप्न तुम्हारे बनें नयन में
रंगमयी होने लग जाती है मेरी संध्या एकाकी
जब भी कोई गीत सजाया है मैने अपने अधरों पर
बस बनते हैं छन्द सँजोकर अलंकार अनुप्रास तुम्हारे