प्राण प्रतिष्ठित हुये न उनमें

कितनी बार कल्पनाओं ने गुंधी हुई मिट्टी को लेकर
गढ़ीं नई प्रतिमायें लेकिन प्राण प्रतिष्ठित हुये न उनमें
 
उड़ती रहीं निशा के वातायन से नित्य पतंगें बन कर
रहीं खींचती चित्र नयन के, विस्तृत फ़ैले नील गगन पर
तारों की छाया में रक्खे हुये झिलमिले रंग पट्ट से
लेकर भरती रहीं रंग जो गिरे चाँदनी से छन छन कर
 
क्षमता तो थी नहीं कर सकें न्याय अकल्पित एक चित्र से
फिर भी रही तूलिका चलती बार बार डूबी इक धुन में
 
दिशा दिशा की चूनरिया में चित्रों को कर बूटे  टाँके 
छोरों पर सपनों के फूलों के गिन गिन कर फुंदने बांधे 
बुनती रही सलाई अपनी पर रह रह कर इन्द्रधनुष को
यद्यपि उसकी झोली में थे केवल श्याम श्वेत ही धागे
 
बन्द प्रतीची के पट होते ही आ जाती पास बैठ कर
बतियाती है, लेकिन कुछ भी पाता नहीं जरा भी सुन मैं
 
उगी भोर की चपल रश्मियाँ धो देती हैं पट अम्बर का
सँवरा चित्र बिखर जाता है हो हो करके तिनका तिनका
जाती हुई निशा की गठरी में सहेज कर रख देती है
उनको, जिनसे बना सके फ़िर शिल्प कोई नूतन निज मन का
 
सहज समर्पण करके मैं भी सहयोगी बन रह जाता हूँ
नियति नहीं है कहीं दूसरा चित्र कोई भी पाऊँ चुन मैं
 

तो गीत बन के सँवर गया है

तुम्हारी सांसों के झुरमुटों से चला जो मलयज का एक झोंका
अधर की मेरे छुई जो देहरी तो गीत बन के सँवर गया है
 
जो वाटिका की लगी थीक्यारी में राम तुलसी औ’ श्याम तुलसी
रुका था उनकी गली में जाकर न जाने क्या बात करते करते
बढ़ा के बाँहे समेटता था उड़नखटोले वे गन्ध वाले
जो पांखुरी से हवा की झालर चढ़े थे शाखों से झरते झरते
 
कली कली पलकें मिचमिचाकर इधर को देखे उधर को देखे
ना प्रश्न कोई ये बूझ पाये वो इस तरफ़ से किधर गया है
 
नदी के तट जा लहर को छू के है छेड़ता नव तरंगें जल में
झुके हुये बादलों की सिहरन को अपने भुजपाश में बांध कर के
मयूर पंखों की रंगतों के क्षितिज पे टाँके है चित्र कोई
दिशाओं की ओढ़नी है लपेटे उधार संध्या से माँग कर के
 
उतरती रजनी का सुरमईपन परस का पारस बटोर कर के
उषा में प्राची की अल्पना बन अकस्मात ही निखर गया है
 
पहन के उंगली में मुद्रिका कर चमक नथनियां के मोतियों की
अधर की लाली का कल्पनामय दुशाला लेकर सजाये कांधे
सुरों की नटखट सी चहलकदमी से अपनी गति कर समानुपाती
ये भोर संध्या में दोपहर में नित रागिनी इक नई अलापे
 
भरी सभा में तुम्हारा लेकर के नाम बोई सी सरगमो को 
प्रथम से सप्तम तक टांक कर के नए सुरों में बिखर  गया है 

मुझको याद तुम्हारी आई

रश्मि भोर की खोल खिड़कियां जब भी मेरे कक्ष में आई
कोयल ने सरगम के सुर से गुण्जित की जब जब अमराई
हरी दूब पर पड़ी बूँद से होते प्रतिबिम्बित रंगों ने
जब जब दीवारों पर जड़ दी कोई धुंधली सी परछाईं
 
जब बहार का चुम्बन पाकर कोई कली कभी मुस्काई
मुझको याद तुम्हारी आई
 
पगडंडी पर बैठ गये जब दोपहरी के पल अलसाये
जब पनघट को पैंजनियों ने मद्दम स्वर में गीत सुनाये
जब जब छुई हिनाई आभा ने पूजा की सज्जित थाली
अनायास ही बेमौसम के बादल जब नभ पर घिर आये
 
छेड़ गई आ अलगोजे को जब कोई महकी पुरबाई
मुझको याद तुम्हारी आई
 
शतधन्वा के शर से बिंध कर जब भी मौसम बहका बहका
सुमन वाटिका में वनपाखी जब भी कोई आकर चहका
दोपहरी में बेला फूला  , महकी निशिगंधा सन्ध्या में
और देहरी के गमले में जब पलाश कोई भी दहका
 
लगी तोड़ने जेठ छोड कर नींद एक अलसी  अंगड़ाई
मुझको याद तुम्हारी आई

मातृ दिवस पर

अपने आरम्भ से आज तक यह समय नित्य रचता रहा है महाकाव्य नव
शब्द के कोश में शब्द नूतन रचे जा रहा हर निमिष और हर इक घड़ी
किन्तु असमर्थ है तेरी स्तुति कर सके या कि महिमा तेरी माँ बखाने तनिक
इक सहस्रांश भी तो सिमट न सका अनवरत अक्षरों की लगा कर झड़ी.

गीतों में खुद ढल जाते हैं

 
द्वार अंगनाईयों के खुले ही रहे
स्वप्न लाई नहीं नैन की पालकी
मौन होकर प्रतीक्षित हवायें रहीं
होंगी अनुगामिनी आपकी चाल की
आपके कुन्तलों की बँधें डोर से
आस लेकर  घटायें खड़ीं रह गईं
चांदनी थी बुलाती रही चाद को
रोशनी जो बना आपके भाल की
 
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द्वार वातायनों के नहीं खोलते, जितने प्रासाद हैं कल्पना की गली
खटखटाते हुए दॄष्टि की रश्मियाँ थक गईं, उंगलियां आज फिर से जलीं
मौन, आवाज़ पीता रहा हर उठीअंश अनुगूँज के शेष दिख न सके
फिर बिखरती हुई आस को बीनती , एक संध्या निराशा में डूबी  ढली
 
 
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परिवर्तन के  आवाहन में उलझे हुए सांझ के दीपक
जब रजनी की चूनरिया में तारे बन कर जड़ जाते हैं
रजनीगंधा के पत्रों से फ़िसले अक्षर तब आ आकर 
 मेरे होठों को छू  छूकर गीतों में  खुद ढल जाते हैं
 
भावों के बिन शब्द तड़पते जल से निकली मीनों जैसे
धुन्धलाये आईनों में रह रह प्रतिबिम्ब निहारा करते
सूखी हुई पांखुरी को करके हाथों   में कोई प्याला  
अभिव्यक्ति के दरवाज़े पर दस्तक एक लगाया करते
 
मैने अपनी गलियों में आ भटके  उन को गले लगाया
झिड़की खा खार कर आंखों के जिनके ससपने  जल जाते हैं
 
कट जाते जो नाम सफ़लता की सूची से अनायास ही
उनके अर्थ न बदला करती बदले हुए समय की करवट
नियति बादलों की कर बन्दी रखते सदा हवा के झोंके
किस द्वारे से नजर बचायें और कहाँ ढुलकायें मधुघट
 
मैं उन निचुड़े हुए बादलों में बोता हूँ बीज सावनी
जिन्हें हवा के गर्म थपेड़े आ मरुथल पर झल जाते हैं
 
नही न्यायसंगत करना संदेह सीपियों  की क्षमता पर
बूँद स्वाति की जिन्हें न देती अवसर मोती कोई ढालें
और उठाना सिर्फ़ उंगलियां पारस के अद्भुत कौशल पर
अगर न मिट्टी में से कोई वह रसकंचन ढूँढ़ निकाले
 
मैं कट चुके अपेक्षाओं के उन पल को ले बुनता चादर
जो सपनों के अवशेषों की गर्मी पाकर गल जाते हैं

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...