प्रीत तुम्हारी यूँ तो बन कर रही सदा आंखों का काजल
उमड़ी आज अचनक मन में बन कर चन्दनगंधी बादल
सांसों के उपवन में आये उग गुलाब के अनगिन पौधे
धड़कन लगी नाचने सहसा, बन कर के झंकृत पैंजनिया
मेंहदी के बूटे आ उतरे नई अल्पना में देहरी पर
उजली पथ की धूल हो गई बन चमकी हीरे की कनियां
लगीं भावनायें खड़काने नूतन अभिलाषा की साँकल
तट की सिकता सुरभित होकर बिखरी बन जमनाजी की रज
प्रीत तुम्हारी छू पुरबाई लगी बांसुरी एक बजाने
मौसम को ठेंगा दिखलाकर पांखुरियों में बदले पत्ते
पुलकितहो कर प्रमुदित मन यह लगा निरन्तर रास रचाने
पनघत पी परछाईं तुम्हारी सहज बन गया गंगा का जल
लिखे स्वयं ही कोरे पृष्ठों ने अपने पर गीत प्रणय के
फ़ागुन आकर लगा द्वार पर सावन की मल्हारें गाने
उत्तर से दक्षिण तक सूने पड़े क्षितिज की चादरिया को
इन्द्रधनुष में परिवर्तित कर दिया उमड़ कर घिरी घटा ने
लगी दिशाओं को दिखलाने पथ पगडंडी भटकी पागल
प्रीत तुम्हारी ने फ़ैलाया मन पर ऐसे अपना आँचल