प्रीत तुम्हारी यूँ तो


प्रीत तुम्हारी यूँ तो बन कर रही सदा आंखों का काजल
उमड़ी आज अचनक मन में बन कर चन्दनगंधी बादल
 
सांसों के उपवन में आये उग गुलाब के अनगिन पौधे
धड़कन लगी नाचने सहसा, बन कर के झंकृत पैंजनिया
मेंहदी के बूटे आ उतरे नई अल्पना में देहरी पर
उजली पथ की धूल हो गई बन चमकी  हीरे की कनियां
 
लगीं भावनायें खड़काने नूतन अभिलाषा की साँकल
 
तट की सिकता सुरभित होकर बिखरी बन जमनाजी की रज
प्रीत तुम्हारी छू पुरबाई लगी बांसुरी एक बजाने
मौसम को ठेंगा दिखलाकर पांखुरियों में बदले पत्ते
पुलकितहो कर प्रमुदित मन यह लगा निरन्तर रास रचाने
 
पनघत पी परछाईं तुम्हारी सहज बन गया गंगा का जल
 
लिखे स्वयं ही कोरे पृष्ठों ने अपने पर गीत प्रणय के
फ़ागुन आकर लगा द्वार पर सावन की मल्हारें गाने
उत्तर से दक्षिण तक सूने पड़े क्षितिज की चादरिया को
इन्द्रधनुष में परिवर्तित कर दिया उमड़ कर घिरी घटा ने
 
लगी दिशाओं को दिखलाने पथ पगडंडी भटकी पागल
प्रीत तुम्हारी ने फ़ैलाया मन पर ऐसे अपना आँचल

पंख कटा कर रह जाते हैं

सांझ ढले घिरने लगती है आंखों में जब जब वीरानी
नैनीताली संदेशे जब खो जाते जाकर हल्द्वानी
संचित पत्रों के अक्षर जब धुंआ धुंआ हो रह जाते हैं
शेष नहीं रहती हैं गंधें,जिन पूलों को किया निशानी
 
और टपकती है चन्दा से पीली सी बीमार रोशनी
आशाओं के पाखी अपने पंख कटा कर रह जाते हैं
 
दिन के पथ पर दिख पाता है कोई चिह्न  नहीं पांवों का
पगडंडी को विधवा करता है आभास तलक गांवों का
खत्म हो चुके पाथेयों की झोली भी छिनती हाथों से
जो चेहरा मिलता है, मिलता ओढ़े शून्यपत्र नामों का 
 
छत को शीश ओढ़ लेने की अभिलाषाओं के सब जुगनू
उच्छवासों की गहरी आंधी में उड़ उड़ कर बह जाते हैं
 
जब संकल्प पूछने लगते प्रश्न स्वयं ही निष्ठाओं से
डांवाडोल आस्थाओं की जो विकल्प हों उन राहों से
पीढ़ी पीढ़ी मिली धरोहर भी जब बनती नहीं विरासत
लगता है कल्पों का बोझा जुड़ता है अशक्त कांधों से
 
असमंजस के पल सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ते
ढाढस के पल पवनपुत्र से बने सूक्ष्म ही रह जाते हैं
 
सूखी हुई नदी के तट का प्यास बुझाने का आश्वासन
सुधियों के दरवाजे को खड़काता है खोया अपनापन
आईने के बिम्ब धुंआसे, और धुंआसे हो जाते हैं
साथ निभाता नहीं संभल पाने का कोई भी संसाधन
 
तब हाथों से फ़िसल गये इक दर्पण की टूटी किरचों में
सपने टुकड़े टुकड़े होकर अनायास ही ढह जाते हैं

है न संभव गीत कोई

शब्द से होता नहीं है अब समन्वय भावना का
रागिनी फिर गुनगुनाये, है न संभव गीत कोई
 
खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का
नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं
कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने
पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है
 
टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर
बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई
 
हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो
लौट क आईं वहीं पर थीं चलीं इक दिन जहाँ से
ज़िन्दगी के पंथ की सारी दिशायें दिग्भ्रमित हैं
है अनिश्चित जायेंगी किस ओर आईं हैं कहाँ से
 
दीप सब अनुभूतियों के टिमटिमा कर बुझ रहे हैं
आस सूनी, इक शलभ को कर सकेगी मीत, खोई
 
डँस गया है स्वप्न के वटवॄक्ष, फ़न फैलाये पतझर
दॄष्टि के नभ पर उगे हैं सैंकड़ों वन कीकरों के
बुझ गईं सुलगी प्रतीक्षा की सभी चिंगारियाँ भी
चिन्ह पांवों के न बनते पंथ बिखरे ठीकरों पे
 
धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है
और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई

अर्चना का दीप ये जलता रहेगा

पंथ में बाधायें बन लें चाहे झंझा के झकोरे
अर्चना का  दीप मेरा जल रहा जलता रहेगा
 
जानता हूँ आसुरी हैं शक्तियां सत्ता संभाले
जानता हूँ तिमिर आतुर है निगलने को उजाले
किन्तु जो संकल्प का मेरे, उगा सूरज गगन में
चीरता है संशयों के हैं घिरे जब वहम काले
 
उम्र तम की, रात से होती नहीं लम्बी जरा भी
एक यह विश्वास मन में पल रहा पलता रहेगा
 
मानता पूजाओं में हर बार बिखरे फूल मेरे
मानता हूँ मुंह छुपाते हैं रहे मुझसे सवेरे
किन्तु मेरी आस्था की ज्योति तो जलती रही है
दूर वह करती रही छाते निराशा के अंधेरे
 
आस की पुरबाई के कोमल परस से आज छाया
यह कुहासा एक पल में छँट रहा, छँटता रहेगा
 
है विदित देवासनों पर आज जो आसीन सारे
वे कहाँ वरदान देंगे, चल रहे लेकर सहारे
किन्तु जो संतुष्टि मेरी इक विरासत बन गई है
कह रही , संभव, खिलेंगे एक दिन उपवन हमारे
 
ठोकरें खा लड़खड़ाया पंथ के हर मोड़ पर पग
किन्तु फिर निर्णय लिये संभला, सदा संभला रहेगा.

याचक के लिये आराध्य हर पत्थर नहीं है



देवता के दर्शनों की आस मैं लेकर खड़ा हूँ
द्वार मंदिर के नहीं पर खोलता है अब पुजारी
 
टोकरी में फूल भर कर साध की फुलवारियॊं के
थाल पूजा का सजाया प्राण का दीपक जला कर
साँस को कर धूप अपने स्वत्व का नैवेद्य रखकर
धड़कनों में घोलता हूँ आरती का मंत्र गाकर
 
एक निष्ठा ले तपस्यारत हुआ अविचल  खड़ा हूँ
जानता हूँ साधना की यह डगर होती दुधारी
 
साध्य से बढ़कर नहीं हैएक साधक के लिये कुछ 
किन्तु याचक के लिये आराध्य हर पत्थर नहीं है
दर्शनों पर है सदा अधिकार ही आराधकों का
किन्तु यह उपयोग में होता रहा अक्सर नहीं है
 
यदि नहीं हो देव कोई भी उपासक से उपासित
व्यर्थ होगी वह छवि जो नित्य ही जाती संवारी
 
सर्जना मन की सभी ही कल्पनाओं से उपजती 
और फिर विश्वास करता प्राण का संचार उनमें
ठीकरे का मोल तो  है कौड़ियों से भी कहीं कम
भावना का स्पर्श जड देता हजारों रत्न उनमें 
 
रिस ना जाएँ आंजुरी में जो सहेजे द्वार पर हूँ 
और धुंधली हो न जाएँ नैन में छवियाँ संवारी  

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...