सोचा रहा था गीत लिखूँ इक

सोचा रहा था गीत लिखूँ इक,मीत तुम्हारी सुन्दरता पर
चित्र नयन तक पर आते ही, आँखें रह जाती पथराई
 
लिखूं तुम्हारी सांसों से ले गंध महकते हैं चन्दन वन
लिखूं तुम्हारे केशों से ले छन्द गान करता है सावन
लिखूं तुम्हारी कटि की थिरकन से लेती हैं गति शिजिनियाँ
लिखूँ कथकली कुचीपुड़ी का उद्गम एक तुम्हारी चितवन
 
लेकिन जब यह कलम उठी तो हुई स्व्यं में ही सम्मोहित
रूप तुम्हारे में यों उलझी शब्द नहीं कोई लिख पाई
 
उड़े कल्पनाओं के पाखी ध्यान तुम्हारा मन में आते
अनायास सरगमी हो गये स्वर होठों तक आते आते
बन्द पलक ने छवि की खींची जैसे ही आकृतियां धुंधली
रंग पंक्ति में खड़े हो गये, अपनी बारी को ललचाते
कलम हाथ की बनी तूलिका पर छूते ही तनिक कैनवस
चित्रलिखित हो खड़ी रह गई अपनी सब सुध बिध बिसराई
 
कदली खंभे, गगन अषाढ़ी सिहरी सी गुलाब की पाँखुर
इकतारे से कानाफ़ूसी करता सा बांसुरिया का सुर
पनघट का कंगन से पैंजनियों से रह रह कर बतियाना
नयनों के दर्पण का रहना आठ प्रहर होकर के आतुर
 
कारण सबका सिर्फ़ तुम्हारी ही चर्चायें सुनो अवर्णित
भाषा अक्षम रही बांधने में विस्तार, रही सकुचाई

रचे तोरण और बन्दनवार तेरे आगमन को

पर्वतों के ये शिखर उत्तुंग मधुरिम घाटियाँ ये
हिम चरण से जन्म लेते निर्झरों का गीत अनुपम
सिन्धु की आकाश से बतिया रही अविरल तरंगें
रच रहे हैं शंख सीपी, बालुऒ पर एक सरगम


इस प्रकृति ने मुग्धमन हो कर सजाया दृश्य अद्भुत
रूपशिल्पे ! आज यह सब एक तेरे ही स्तवन को


उपवनों में फूल की सजती कतारें रंग लेकर
और भंवरों का कली से बात कुछ चुपचाप कहना
पल्लवों का ओस पीकर घोलना उल्लास पल में
और फिर छूकर सुबह की रश्मियों को रंग भरना
प्रेरणे ! वातावरण ने आप ही यह सब सजाया
एक तेरी अर्चना को एक तेरे ही नमन को


नील नभ पर तैरते ये पाखियों से श्वेत बादल
आँजना काजल प्रतीची के नयन में आ निशा का
ओढ़ कर सिन्दूर प्राची का लजाते मुस्कुराना
भेज कर झोंके सुहावन मुस्कुरा उठना दिशा का
कल्पने ! हर दृश्य निखरा है मनोहर चित्र बन कर
एक तेरी दृष्टि की पारस परस वाली छुअन को
मलयजों की गंध लेकर केसरी पुंकेसरों ने
मार्ग में आकर सजाई हैं हजारों अल्पनायें
थाल ले अगवानियों के बाट को जोहे निरन्तर
देवपुर की खिड़कियों पर आ खड़ी हो अप्सरायें
पुष्पधन्वा ने मुदित हो पाँच शर संधान कर के
रचे तोरण और वन्दनवार तेरे आगमन को

रही ज़िंदगी की इकलौती यही कथा

चाहे या अनचाहे हर पल मिली व्यथा
रही ज़िंदगी की इकलौती यही कथा
कितनी बार कोशिशें कीं कुछ नया लिखें
किन्तु परिश्रम सारा ही रह गया वृथा
 
जो लिख गया हथेली की रेखाओं में
उसमें परिवर्तन कुछ संभव नहीं  हुआ
सुनते थे रेखाएँ बदला करतीं हैं
किन्तु दृश्य वो कभी प्रकाशित नहीं हुआ
हाथों  में फैले मकडी के जालों सी
रेखाओं का ओर छोर था दिखा नहीं
बारह बरस बीतते कितनी बार गए
किन्तु न हिलना था इक पत्ता,हिला नहीं  
 
राहें कभी भूल होठों की गलियों तक
नहीं आ सकीं मुस्कानें भी यदा कदा
 
लगीं गुलाबों की कलमें जिस क्यारी में
उसको रहे सींचते बस अभाव आकर
आवाहन हर बार भोर का करते थे
कुछ कागा मेरी बस्ती में आ गाकर
जिन कलशों को भरा शगुन का बनना था
उनको कुम्भकार ने अब तक गढ़ा नहीं
लाभ और शुभ के मन्त्रों को बोल सकें
मेरे पंडित ने इतना था  पढ़ा नहीं
 
मंदिर में लटके हर घंटे की दूरी
हाथों से फ़ुट भर ही ऊंची रही सदा
 
जिन राहों ने पग आ आ कर चूमे थे
दिशाहीन थीं रही घूमती वृत्तों सी
कहीं एक पल का भी नहीं ठिकाना था
नियति हमारी रही पतझरी पत्तों सी
पानी के बुलबुलों सरीखी उमर रही
हर सपने की, नयनों की अँगनाई में
मिलती रहीं अपरिचय की परिभाषायें
हमको,सदा स्वयं की ही परछाई में
 
चर्चायें थीं सुनी बहुत सम्बन्धों की
हमसे जुड़ता लेकिन ऐसा कोई न था
 

अभिव्यक्त करने के लिए भाषा नहीं है.

पंथ सारे सामने के धुंध में डूबे हुए हैं
मार्ग का हर चिह्न पीकर हंस रहे घिरते अँधेरे
नीड़ ने पाथेय की हर आस को ठोकर लगा दी
छोड़ कर देहरी निशा की उग नहीं पाते सवेरे
 
इस तरह की ज़िंदगी के मोड़ पर, असमंजसों से
कुछ उबर कर आ सकें ऐसी कोई आशा नहीं है
 
नित सजाते तो रहे हम थालियाँ पूजाओं की पर
अक्षतों ने रोलियों के साथ में मिल व्यूह खींचे
उड़ गया कर्पूर ले नैवेद्य का संचय समूचा
प्राण के घृत दीप   की बाती छुपी जा दीप नीचे
 
मन युधिष्ठिर हारता है ज़िंदगी की चौसरों पर
शकुनी जैसा मंत्रपूरित हाथ में पासा नहीं है
 
भाव उमड़े तो ह्रदय में, तीर तक लेकिन न पहुंचे
बात मन की शब्द में ढल कर नहीं आई अधर पर
फागुनी सतरंगिया होती उमंगें किस तरह से
मुट्ठियों से हर संजोया स्वप्न रह जाता बिखर कर
 
घुट गईं अनुभूतियाँ मन की घनी गहराइयों में
ज्ञान में अभिव्यक्त करने के लिए भाषा नहीं है.
 
भीड़ में चेहरा नहीं कोई कहीं जो द्रष्टि सोखे
लौट कर आती न मन राडार की भेजी तरंगें
अनमनी है साध अपुशी धूप के बीमार जैसी
मोरपंखी हो न पाती रंग खो बैठी उमंगें.
 
लुट चुके हैं कामना के शेष भी अवशेष होकर
एक रत्ती एक तोला एक भी माशा नहीं है

दृष्टि के पत्र लौटा गया सब क्षितिज


एक अरसा हुआ जूही देखे हुये
चित्र चम्पाकली के भी धुंधले हुये
हरसिंगारों से दूरी बढ़ी सिन्धुभर
कोई पांखुर न आ मोतिये की छुये
 
हाथ नभ तक किये पत्थरों का शहर
मुट्ठियों में हवा की जकड़ चूनरी
देता निर्देश बहना उसे किस डगर
और रखनी कहां पर बना डूंगरी
 
पग को जैसे धरोहर मिली नारदी
देने विश्रान्ति को ठौर है ही नहीं
एक पल जो कभी परिचयों में बँधा
दूसरी ही घड़ी खो गया वो कहीं
 
पतझरी मौसमों के असर में शहर
झर रहे पत्र बन कर दिवस शाख से
और ले जा रहे साथ वे मोड़ चुन
थी बहस की जहां पर गई रात से
 
दृष्टि के पत्र लौटा गया सब क्षितिज
कोई स्वीकारता था कहीं भी नहीं
एक गति है रही पांव थामे हुये
पर सफ़र था जहां,हैं अभी भी वहीं 
 
बादलों ने गगन पे जो दी दस्तकें
भीड़ के शोर में वे सभी खो गईं
राह बिखरी हुई चीथड़ों की तरह
एक झूठे भरम की सुई सी गई
 
दृष्टि अनभिज्ञ  रहती  कहां केन्द्र हैं
डोर थामे रहीं कौन सी उंगलियां
दे रहा है इशारे भला कौन है
कर रहे नृत्य बन काठ की पुतलियाँ
 
मुट्ठियों की पकड़ में नहीं आ सके
सूर्य तो हाथ अपने बढ़ाता रहा
बदलियों ने उलीचे तिमिर के घड़े
रंग पीते दिवस गीत गाता रहा
 
एक गति बेड़ियों में जकड़ है रखे
छूट देती नहीं अंश भर के लिये
देख पाती नहीं है स्वयं को नजर
आईने पास के धुंध ने पी लिये
 
हो गई ज़िन्दगी अनलिखी इक गज़ल
कट रदीफ़ों से, खोकर सभी काफ़िये
हाथ में चन्द टूटी रहीं पंक्तियाँ
लड़खड़ाते स्वरों में जिन्हें गा लिये.

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...