मौसमों के पाँव नर्तित-गीत कलश पर छहसौवीं प्रस्तुति

शब्दकोशों में समन्वित सब विशेषण रह गए कम 
रूप को सौंदर्य को नव अर्थ तुम दे जा रहे हो 
 
चेतना के पल हुए सब देख कर तुमको अचंभित
भावना के उडुग भटके जो अभी तक थे नियंत्रित 
आस की रंगीन कोंपल लग गई उगने ह्रदय में
कल्पना छूने  लगी विस्तार वे जो हैं अकल्पित
 
और विस्मय लग गया रह रह चिकोटी काटता सा
स्वप्न  है या सत्य मेरे सामने तुम आ गए हो 
 
ढल गया है शिल्प में ज्यों  एक सपना भोर वाला
भर गया अँगनाई में  शत चंद्रमाओं का उजाला 
पांव चिह्नों से गगन पर बन गई हैं अल्पनाएं 
हर्ष के अतिरेक से ना हर्ष भी जाए संभाला 
 
चाहता हूँ गीत लिख कर मैं नये अर्पण करूँ  कुछ
शब्द के हर रूप में पर सिर्फ तुम ही छा रहे हो
कौन सी उपमा तुम्हें दूं, हैं सभी तुमसे ही वर्णित
जो हुआ परिभाष्य तुमसे  हो गया है वह समर्पित
अक्षरों को भाव को तुम रूप देती रागिनी को 
छवि तुम्हारी देख होते मौसमों के पाँव नर्तित
 
देवलोकों से धरा तक ओढनी  फ़ैली तुम्हारी  
जन्म लेती हैं हवाएं तुम इसे लहरा रहे हो
 

1 comment:

Shardula said...

ये छ सौवां गीत कलश का,आपके हर गीत की तरह सुन्दर और हृदयग्राही! हार्दिक शुभकामनाएं आपको भी और हमें भी- आपको गीत लिखने के लिए और हमें कि हम और भी हज़ारों गीत पढ़ सकें आपके! सादर प्रणाम आपके ही देश से :)

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