अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

कक्ष में बैठी हुई पसरी उदासी जम कर 
शून्य सा  भर गया है  आन कर निगाहों में
और निगले है  छागलों को प्यास उगती हुई
तृप्ति को बून्द नहीं है  गगन की राहों में
फ़्रेम ईजिल पे टँगा है  क्षितिज की सूना सा
रंग कूची की कोई उँगली भी न छू पाते हैं
इन सभी को नये आयाम मिला करते हैं

अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

लेके अँगड़ाई नई पाँव उठे मौसम के
सांझ ने पहनी नई साड़ी नये रंगों की
फिर थिरकने लगी पायल गगन के गंगातट
चटखने लग गई है धूप नव उमंगों की
दिन की आवारगी में भटके हुये यायावर
लौट दहलीज पे आ अल्पना सजाते हैं
इक नई आभ नया रूप निखर आता है

अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं



पंचवटियां हुई हैं आज सुहागन  फिर से 
अब ना मारीच का भ्रम जाल फ़ैल पायेगा 
रेख खींचेगा नहीं कोई बंदिशों की अब 
कोई न भूमिसुता को नजर लगाएगा 
शक्ति का पुञ्ज पूज्य होता रहा हर युग में
बात भूली हुई ये आज फिर बताते हैं 
हमें ये भूली धरोहर का ज्ञान देते हैं

अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं  

रिश्ता क्या है तुमसे मेरा

तुमने मुझसे प्रश्न किया है रिश्ता क्या है तुमसे मेरा
सच पूछो तो इसी प्रश्न ने मुझको भी आ आ कर घेरा
 
तुम अपनी वैयक्तिक सीमा के खींचे घेरे में बन्दी
मैं गतिमान निरन्तर, पहिया अन्तरिक्ष तक जाते रथ का
तुम हो सहज व्याख्य निर्देशन बिन्दु बिन्दु के दिशाबोध का
लक्ष्यहीन दिग्भ्रमित हुआ मैं यायावर हूँ भूला भटका
 
तुम अंबर की शुभ्र ज्योत्सना, मैं कोटर में बन्द अँधेरा
सोच रहा हूँ मैं भी जाने तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
तुम प्रवाहमय रस में डूबी, मधुशाला की एक रुबाई
मैं अतुकान्त काव्य की पंक्ति, जो रह गई बिना अनुशासन
मैं कीकर के तले ऊँघता जेठ मास का दिन अलसाया
तुम अम्बर की हो वह बदली, जो लाकर बरसाती सावन
 
तुम संध्या का नीड़, और मैं जगी भोर का उजड़ा डेरा
प्रश्न तुम्हारा कायम ही है तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
लेकिन फिर भी कोई धागा, जोड़े हुए मुझे है तुमसे
हम वे पथिक पंथ टकराये हैं जिनके आ एक मोड़ पर
एक अजाना सा आकर्षण हमें परस्पर खींच रहा है
समझा नहीं, कोशिशें की हैं गुणा भाग कर घटा जोड़ कर
 
प्रश्न यही दोहराता आकर हर दिन मुझसे नया सवेरा
जो तुमने पूछा है रिश्ता क्या है तुमसे बोलो मेरा

जब मैं गीत नया जाता हूँ.

ऋषि वशिष्ठ का विशद ज्ञान ले
 विश्वानित्री स्वाभिमान से 
जिसने समदर्शी कर जोड़ा 
गीता बाइबिल और कुरान से 
जो मेरा संस्कार बन गई  वही ऋचाएं दोहराता हूँ 
जब मैं गीत नया गाता हूँ.

सूरा  मीरा  के  इकतारे  में  आल्हाद  पिरोती सरगम
एक अलौकिक मधुर प्रीत में डूबा महक रहा वृन्दावन
कालिन्दी की, चरण कमल को छूकर पुलकित होती लहरें
गोकुल से मथुरा के पथ पर नित्य बिखरता दधि औ’ माखन

मुरली की मादक धुन वाली
बरसाने की रुनझुन वाली
पुष्प सेज पर चँवर डुलाते
बलखती कदम्ब की डाली
आँखो में जो आन बस गई, वही चित्र में रंग जाता हूँ
जो मेरा संस्कार बन गई, वही ऋचायें दुहराता हूँ
जब मैं गीत नया गाता हूँ

सन्दीपन के आश्रम में जो कृष्ण सुदामा में थी जोड़ी
जिसने धधक रहे इक शर से सागर की सारी ज़िद तोड़ी
जिसके लक्ष्य भेद होकर अंगुष्ठहीन भी रहे अचूके
जिसके तप ने उलझी उलझी शिव शंकर की जटा निचोड़ी

मुनि अगस्त्य के सिन्धु पान पर
भागीरथ के अनुष्ठान पर
जिसकी गाथायें विस्तृत हैं
पुष्पक की मनगति उड़ान पर
जो नस नस में आन बस गईं, वही कथायें पढ़ पाता हूँ
जो मेरा संस्कार बन गई , वही ऋचाएं दोहराता हूँ 
फिर मैं गीत नया गाता हूँ

जो करती इतिहास सुगन्धित तानसेन की मृदु तानों से
जिसके पृष्ठ हुये सतरंगी, राजा शिवि के बलिदानों से
स्वर्णरत्न मंडित शब्दों में हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता
जिसकी ज्योति सदा ही गर्वित रही कर्ण के अनुदानों से

कामधेनु जैसी गायों पर
पन्ना के जैसी धायों पर
जहांगीर के नाम ढल गये
न्याय प्रेम के पर्यायों पर
संस्कृति का आधार बनी जो, उसी शिला पर चढ़ पाता हूँ
जो मेरा संस्कार बन गई , वही ऋचाएं दोहराता हूँ 
जब भी गीत नया गाता हूँ

कोई भी अनुबन्ध नहीं है

कहने को तो लगा कहीं पर कोई भी प्रतिबन्ध नहीं है
फिर भी जाने क्यों लगता है हम बिल्कुल स्वच्छन्द नहीं हैं
 
घेरे हुए अदेखी जाने कितनी ही लक्षमण रेखायें
पसरी हुई पड़ीं हैं पथ में न जाने कितनी झंझायें
पंखुरियों की कोरों पर से फ़िसली हुई ओस की बूँदें
अकस्मात ही बन जाती हैं उमड़ उमड़ उफ़नी धारायें
 
हँस देता है देख विवशता, मनमानी करता ये मौसम
कहता सुखद पलों का तुमसे कोई भी अनुबन्ध नहीं है
 
बोये बीज निरंतर नभ में,सूरज चाँद नहीं उग पाते
यह तिमिराँचल अब बंजर है, रहे सितारे आ समझाते
मुट्ठी की झिरियों से सब कुछ रिस रिस कर के बह जाता है
भग्न हुई प्रतिमा के सम्मुख व्यर्थ रहे हैं शीश नवाते
 
जो पल रहे सफ़लताओं के, खड़े दूर से कह देते हैं
पास तुम्हारे आयें क्यों जब तुमसे कुछ सम्बन्ध नहीं है
 
परिभाषित शब्दों ने जोड़े नहीं तनिक परिचय के धागे
जो था विगत बदल कर चेहरा हुआ खड़ा  है आकर आगे
विद्रोही हो गये खिंचे थे आयत में जो बारह खाने
दरवाजे पर आकर पल पल साँस साँस  मज़दूरी मांगे
 
सोंपे गए मलय के हमको मीलों फैले गहन सघन वन
कितनी बार गुजर कर देखा कहीं  तनिक भी गंध नहीं है

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...