होगी किस घड़ी फिर रुत सुहानी

रश्मियाँ साथ ले जब दिवाकर का रथ चल दिया था इधर मुस्कुराता हुआ
रंग प्राची के चहरे का रक्तिम हुआ उस घड़ी जाने कैसे लजाते हुए
ओस ने रोशनी चूम कर छेड़ दी एक अंगडाई  लेती हुई कुछ धुनें
मंदिरों  में हुई  आरती  में   घुले कंठ के बोल फिर   गुनगुनाते  हुए
 
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हो अधीरा आस उत्सुक दृष्टि  से पथ जोहती हैं 
औ' प्रतीक्षा की घड़ी इक ढल गई लगता अयन में 
 
कोर पर आ होंठ के अँगड़ाईयाँ लेती कहानी
मुस्कुराहट की गली में खिलखिलाती रात रानी
और ठोड़ी से उचक कर पूछता तिल बात नथ से
ओढ़ कर सिन्दूर होगी किस घड़ी फिर रुत सुहानी
 
तब नयन के स्वप्न रँग देते कपोलों को पिघल कर
स्वर्ण अरुणिम आभ वाली बदलियाँ घिरतीं गगन में
 
भावना की कशमकश से जूझता मन वावरा सा
चित्र उजले पॄष्ठ पर सहसा उभरता सांवरा सा
झनझनाती हैं हवा की पैंजनी अंगनाईयों में
कोई परिचय एक पल में पास आता बांकुरा सा
 
उड़ परीवाली कथाओं का कोई अध्याय अन्तिम
आ अचानक रंग अनगिनती भरे जाता सपन में
 
दृष्टि जाकर के परे सीमाओं के रह रह अटकती
टिक नहीं पाती किसी भी बिन्दु पर फिर फिर भटकती
गंध बिखराती प्रतीक्षा की अगरबत्ती हजारों
गुनगुनी परछाइयों की ढेर सी कलियां चटखतीं 
 
आस के उमड़े हुए बादल बरसते हैं निरन्तर
और बोते हैं नई आकाक्षा पथ के विजन में

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