सिकता छूने में असमर्थ रह गई

झाड़े लगवाये,मजार पर चादर नित्य चढ़ाईं जाकर
गंडॆ मंतर ताबीजों से सारे देवी देव साध कर
तुलसी चौरे दीप जलाये, बरगद की देकर परिक्रमा
दरगाहों की जाली पर रेशम के डोरे कई बाँध कर

थे निश्चिन्त मंज़िलें पथ के मोड़ों तक खुद आ जायेंगी
पर पगतली राह की सिकता छूने में असमर्थ रह गई

उमड़े हुए मेघ जितने भी आये थे चल चल कर नभ में
उनकी गागर रीती की रीती ही भेज सका  रत्नाकर   
तॄष्णाओं को रही सींचती जलती हुई तृषा अधरों की
आता हुआ सावनी  मौसम गया प्यास फ़िर से दहका कर

हवा वारुणी आईं थी तो लेकर लुटी हुई इक गठरी
जली हुई कंदीलें सारी आशाओं की व्यर्थ रह गईं.

सपनों के अंकुर उग आयें बोये बीज एक क्यारी में
मन की, सौगन्धों के सम्मुख सम्बन्धों से रखा सींच कर
लेकिन उगीं नागफ़नियाँ ही  सभी अपेक्षायें ठुकरा कर
दृश्य न बदला चाहे जितना देखा हमने पलक मींच कर

था मतभेद सारथी-अश्वों में बासन्ती मौसम रथ के
सभी चेष्टायें सहमति की करते करते तर्क रह गईं

खुलते हुए दिवस की खिड़की नहीं कर सकी कुछ परिवर्तित
चुरा ले गया किरणें सारी, जाता हुआ भोर का तारा
संध्या ने छत पर रांगोली लेकर काजल जो पूरी थी
उसका रंग बदल न पाया.चढ़ कर कोई रंग दुबारा

खिंची हुईं रेखा हाथों की  हर संभव कोशिश ठुकरा कर
समय पृष्ठ पर शिला लेख बन,बिन बदले कुछ अर्थ रह गईं

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