कहना होगा तुम हो पत्थर

थी हमें पिलाई गई यहाँ घुट्टी में घोल कई बातें
जिनको दोहराते बीते दिन, बीती अब तक सारी रातें
इस जगती की हर हलचल का है एक नियंत्रक बस सत्वर
हर घटना का है आदि अंत बस एक उसी की मर्जी पर

पाले बस यही मान्यताएं नतमस्तक थे मंदिर जाकर
आराधे सुबहो शाम सदा प्रतिमा में ढले हुए पत्थर

गीता ने हमको बतलाया, वह ही फल का उत्तरदायी
कर्तव्य हमारे बस में है, परिणाम सुखद सब होता है
उसने संबोधित होने को, मध्यस्थ न आवश्यक कोई
जो भी उससे बातें करता, वो सारी बातें सुनता है

तो आज हजारो प्रश्न लिए आया हूँ द्वार तुम्हारे पर
यदि उत्तर नहीं मिले तो फिर, कहना होगा तुम हो पत्थर


तुमने जब सृष्टि रची थी तब क्या सोचा था बतलाओ तो
क्यों धर्म रचा जो आज हुआ मानवता का कट्टर दुश्मन
क्यों ऐसे बीज बनाये थे जो अंकुर हों जिस क्यारी में
उसक्यारी में ही आयातित करते है अनबन के मौसम


वसुधैवकुटुंबम शिलालेख जो बतलाती संस्कृतियोंका
उस एक सभ्यता को सचमुच कहना होगा अब तो​ पत्थर


जो स्वार्थ घृणा और अहाँकर की नींवों पर निर्मित होता
उस एक भवन की प्रतिमा में कब प्राण प्रतिष्ठितहोते हैं 
तुम इन प्रासादों के वासी,  जो चाकर चुने हुए तुमने
वे श्रद्धा और आस्था की बेशर्म तिजारत करते है



तुम निस्पृह होकर के विदेह हो चित्रलिखित बस खड़े हुए
तो मन क्यों माने ईश् तुम्हें, कहना होग हो पत्थर

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