नव वर्ष 2018

आज प्राची के क्षितिज से हो रहे नव गान गुंजित
है नये इक वर्ष की शुभकामना तुमको समर्पित

भोर आतुर है, करे नूतन दिवस पर चित्रकारी
और कलियों ने तुहिन की बूँद ले छवियाँ पखारी
मलयजे आकर सुनाने को चली है मंगलायन
आरती की तान ने नव आस की बूटी सँवारी

आस्था के रंग फिर से आज होते है समन्वित
है नए इस वर्ष की शुभकामना तुमको समर्पित

आ गया है वर्ष लेकर डायरी के पृष्ठ कोर
शब्द लिखती हो तुम्हारे लेखनी केवल नकोरे
स्वस्ति चिह्नों से भरें रांगोलिया उगते दिवस की
और दुलराएँ गली पूरबाइयों के ही झकोरे

पगतली जो पंथ चूमे वह डगर हो पुष्प संज्जित
है नए इस वर्ष की शुभकामना तुमको समर्पित

शेष न साया रहे बीती हुई कड़वाहटों का
हर निमिष अभिनंदनी हो पास आते आगतों का
स्वप्न की जो पालकी आए, सजे दुल्हन सरीखी
साँझ नित स्वागत करे मुस्कान के अभ्यागतों का

जो नयन में कल्पनाएँ हों सभी इस बार शिल्पित
हैं सभी नव वर्ष की शुभकामना सादर समर्पित 

पीपल की छाह नहीं

आपाधापी में जीवन की कहीं तनिक विश्राम नहीं
इस पथ की अ​विरलताओं में है पीपल की छाह नहीं

मुट्ठी ​ में  उंगली थामे सेहुये अग्रसर पग चल चल कर
उंगली थमा किसी को प​थ का निर्देशन देने तक आये
कभी लोरियों ​की सरगम के झूलों पर पेंगे भर झूले
कभी छटपटात सांझो में रहे अ​केले दिया जलाये

गति ने उन्हें जकड़कर ​रखा रुक न सके थे पांव  कही 
इस पथ की अविरालताओं में, कही तनिक विश्राम नही


​स्थिति जनित विवशताओं के परिवेशों में उलझा मानस
रहा ढूंढता समीकरण के हुए तिरोहित अनुपातों को
बो​ई सदा रात की क्यारी में  मृदु आशाओ की कोंपल
और बुहारा किया दुपहरी में बिखरे टूटे ​पातों को 

सपने जिसे सजा रक्खे थे, रहा दूर ही गाँव कहीं 
और राह में दिखी कहीं भी इक पीपल की छाँह नहीं 

कोई साथी नहीं न कोई साया, नहीं काफिला कोई
बीत गए युग वृत्ताकार पथों की दूरी को तय करते
मृग मरीचिका से आशा के लटके रहे क्षितिज पर बादल
संभव नहीं हुआ पल को भी छत्र शीश पर कर कर झरते

दूर दूर तक नीड़ न कोई, जिसको घेरे घाम नहीं
और एक विश्रान्ति सजाने को पीपल की छाँह नहीं

मुझे झुकने नहीं देता

तुम्हारे और मेरे बीच
की यह सोच का अंतर
तुम्हें मुड़ने नहीं देता
मुझे झुकने नहीं देता

कटे तुम आगतों से
औ विगत से
आज में जीते
वही आदर्श ओढ़े
मूल्य जिनके
आज हैं रीते

विकल्पों की सुलभता को
तुम्हारा दम्भ आड़े आ
कभी चुनने नहीं देता

उठाकर मान्यताओं
की धरोहर
चल रहा हूँ मैं
मिले प्रतिमान विरसे में
उन्हें साँचा  बनाकर
ढल रहा हूँ में

वसीयत में मिला
अनुबंध अगली पीढ़ियों का
राह में रुकने नहीं देता

तुम्हारा  मानना
परिपाटियां
अब हो चुकी खँडहर
मेरी श्रद्धाएँ
संचित डगमगाई
है नहीं पल पर

मेरा विश्ववास दीपित
आस्थाओं की बंधी गठरी
कभी खुलने नहीं देता 

हम तुम गए मिल

हम तुम गए मिल

हो गये सुधि के वनों में आज फ़िर जीवन्त वे पल
जब भटकती शाम के इक मोड़ पर हम तुम गये मिल

गोख पर धूमिल क्षितिज की रात आकर झुक रही थी
रोशनी जिस पल प्रतीची की गली में मुड़ रही थी
वर्तिका तत्पर हुईं थीं ज्योति के संग नृत्य करने
और मौसम की थिरक में कुछ खुनक सी घुल रही थी

ज़िन्दगी की इस शिला के लेख बन अविरल अमिट वे
आज फिर अंगनाईयों में फूल बन कर हैं रहे खिल

उस घड़ी ऐसा लगा झंकृत हुई सारी  दिशाएं
वृक्ष की शाखाओं पर नूपुर बजे पुरबाइयों के
सांझ की छिटकी हुई सिंदूरिया परछाइयों में
राग अपने आप गूंजे सैकड़ो शहनाइयों के

ज़िन्दगी की , यूं लगा यायावरी पगडंडियों पर
सामने आ मुस्कुराती पास खुद ही आज मंज़िल

चांदनी तन से छिटक कर लग पड़ी नभ में बिखरने
मलयजी इक गंध उड़ती सांस में भरने लगी थी 
दूधिया चन्दाकिरण भुजपाश में ले गात मेरा
जलतरंगी रागिनी से बात कुछ करने लगी थी

पाँखुरी से कुछ गुलाबो की फसल मंदाकिनी से
धार से अपनी सजाई  प्रीत से भरपूर महफ़िल 

भावना छूने लगी नभ, काँचनजंघा शिखर बन
नयन में नन्दनवानों के राजमहली चित्र उभरे
 बिछ गई कचनार की कलिया  स्वयं आ पगतली में
पारिजाती हो गगन पर कल्पना के स्वप्न संवरे 

समीकरणों की सभी उलझन सहज में ही सुलझ ली
आप ही हल हो गई  आकर रुकी जो पास मुश्किल  

पा गई वरदान कोई सहस्र जन्मों की तपस्या
मिल गया आराध्य जैसे बिन किसी आराधना के
स्वाति के मेघा बरसने लग गये मन चातकी पर
शिल्प में ढलने लगे सब कचित्र आकर कल्पना के

मन निरंतर एक  उस ही ज्वार के आरोह पर है
जब था उमड़ा उन पलो में प्रीत का इक सिंधु फेनिल
राकेश खंडेलवाल
21 नवंबर 2017 

कहनी थी कुछ बात नई

तुम ने भी दुहराई कहनी थी कुछ बात नई 
"अच्छे दिन की आआस लगाए बीते बरस कई"

दिन तो दिन है कब होता है अच्छा और बुरा
कोई कसौटी नही बताये खोटा और खरा
दोष नजर का होता, होते दिन और रात वही
 
अपनी एक असहमति का बस करते विज्ञापन
अनुशासन बिन रामराज्य क्या, क्या तुगलक शासन
मक्खन मिलता तभी दही जब मथती रहै रई 

भोर रेशमी, सांझ मखमली, दोपहरी स्वर्णिम
फागुन में बासंती चूनर सावन में रिमझिम
जितने सुंदर पहले थे दिन अब भी रहै वही 

जानता यह ​तो नही मन

क्या पता कल का सवेराधुंध की चादर लपेटे
या सुनहली धूप के आलिंगनों में जगमगाये
या बरसते नीर में
​ भीगा हुआ हो मस्तियों में ​
जानता यह 
​तो 
 नही मन, किन्तु है सपने सजाये

स्वप्न, अच्छा दिन रहेगा आज के अनुपात में कल
आज का नैराश्य संध्या की  ढलन में ढल सकेगा
आज की पगडंडियां कल राजपथ सी सज सकेंगी
और नव पाथेय पथ के हर कदम पर सज सकेगा

राह में अवरोध बन कर डोलती झंझाये कितनी
और विपदाएं हजारों जाल है अपना बिछाये
नीड का 
​ संदेश कोई 
सांझ ढलती  ला  सकेगी 
जानता यह भी नही मन स्वप्न है फिर भी सजाये 

​उंगलियां जो मुट्ठियों में  थाम कर चलते रहे हैं 
आस की चादर बिछाई जिस गगन के आंगनों में 
धूप के वातायनों तक दौड़ती पगडंडियों पर 
क्या घिरेंगे शुष्क बादल ही बरसते सावनों में 
प्रश्न  उठते हैं निरंतर भोर में, संध्या निशा में
और कोई चिह्न भी न उत्तरों का नजर आये
शून्य है परिणाम में या है अभीप्सित वांछित कुछ
जनता यह भी नहीं मन, स्वप्न है फिर भी सजाये 

कलम से इस हथेली पर


अधूरी रह गई सौगंध, जब तुमने कहा मुझसे
कलम से इस हथेली पर समर्पण त्याग लि
​ख ​
देना

कथानक युग पुराना आज फिर दुहरा दिया तुमने
समर्पित हो अहल्या रह गई अभिशाप से 
​दंशित 

तपा सम्पूर्ण काया को धधकती आग से गुज
​री ​

मगर फिर भी रही 
​वैदेही 
हर अधिकार से वंचित

कहाँ तक न्यायसंगत है कोई अनुबंध इक तरफ़ा
पुराना पृष्ठ फिर इतिहास का इक बार लिख देना

समर्पित हो , रहे हो तुम कभी इतना बताओ तो
पुरंदर तुम, शची का त्याग क्या इक बार पहचाना
पुरू अपने समय के सूर्य थे तुम घोषणा करते
कभी औशीनरी की उर व्यथा के मूल को जाना

चले हम आज जर्जर रीतियाँ सा
​री ​
 बदल डालें
ज़रूरी है ह्रदय पर प्रेम और अनुराग लिख देना

कहो क्या प्रेम आधारित कभी होता है शर्तों 
​पर 
कहाँ मन से मिले मन में उठी हैं त्याग की बातें 
​समर्पण हो गया सम्पूर्ण जब भी प्रेम उपजा है 
गए हैं बँध धुरी  से उस, समूचे दिन, सभी रातें 

कहाँ  जन्मांतर सम्बन्ध होते शब्द में सीमित 
किशन-राधा सती-शिव का उदाहरण आज लिख देना 

कलम से ज़िंदगी में इक महकता बाग़ लिख देना 

जरा झलक मिल जाये

जरा झलक मिल जाये कमल वासिनी की
यही आस ले पूजा की उपवास किये
अभिलाषा के बीज बोये नित सपनो में
और जलाकर दीवाली के रखे दिए 

सुबह आस की भर कर रखी प्यालियां ले
ज्योतिषियों के सम्मुख रखा हथेली को
हाथों की रेखा का मेल नक्षत्रों से
वह करवा दे तो फिर सुख की रैली हो 
दादी नानी से सुन रखा बचपन  में
घूरे के भी दिन फिर जाते बरसों में
तो संभावित। है अपना भी भाग्य खुले
आज नही तो कल या शायद परसों में  

एक सवा मुद्रा का भोग लगाया नित
सवा मनी फल का मन मे आभास लिए
बीज बोये अभिलाषा के नग्नाई में
और दीवाली जैसे दीपित किये दिये

 देते रहे दिलासा मन ही मन खुद को
सदा विगत के कर्मो का फल मिलता है
परे नील नभ के दूजे इक  अम्बर से
इस जीवन को कोई नियंत्रित करता है 
उसे रिझाने को रोजाना मंदिर जा 
सुबह शाम जा आरतियों को गाते   हैं 
एवज़ में पा जाएंगे हम झलक ज़रा  
छोटी सी बस इक यह आस लगाते हैं 

माला के मनकों पर गिन गिन  कर हमने 
पूरे आठ और सौ मंत्रोच्चार किये 
ज़रा खनक मिल जाए स्वर्ण कंगनों की 
सांझ सवेरे सपनों का विस्तार किये 


जर्जर हुई मान्यता अंधी श्रद्धाएं
गई पिलाई हमें घुटी में बचपन की
कर्महीन होकर भी इन राहों पर चल
मिल जाया करती चौथाई छप्पन की
रहे बांधते दरगाहों पर बरगद पर
 रंगबिरंगे धागे हम मन्नत वाले
और चढ़ाते रहे नीर शिव मंदिर में
बहैं गगन से देव कृपा के परनाले

आधी उमर गंवा कर आंख खुली अपनी
हम मरीचिकाओं में कितने वर्ष जिये
जरा झलक मिल जाती हमें सत्यता की
संभव था बेकार न इतने बरस किये 

गीत की गरिमा भुला दूँ

बह रहे हैं शब्द आवारा निरंकुश काव्य जग में
यह नहीं स्वीकार मुझको गीत की गरिमा भुला दूँ

उड़ रही हैं पंख के बिन अर्धकचरी कल्पनाये
पद्य का ओढ़े मुखौटा ,कुछ हृदय  की भावनाएं
संतुलित तो भाव हो ना पाए, बस दे नाम कविता
भीख मांगी जा रही मिल जाए थोड़ी वाहवाहैं 

जो उड़ेले जा रहे तरतीब के बिन शब्द सन्मुख
है नहीं स्वीकार मुझको, मैं उन्हें कविता बता दूँ 

दूर कितनी चल सके हैं शब्द अनुशासन नकारे
बह सकेगी देर कितनी तोड़ कर नदिया किनारे
लय गति और ताल से हो विमुख कविताये विरूपित
कोशिशें कर ले भले कितनी छलावों के सहारे

बुलबुलो में जो बने वे चित्र टंकते भीत पर क्या
मानते हो तुम तो आओ आज में भ्रम को मिटा दूं

छिन्नमस्ता मूर्तियां कब मंदिरों में सज सकी है
छंदमुक्ता पद्य कृति कब याद की सीढी चढ़ी है
जो सहज सम्प्रेष्य होता, शब्द वह लय में बंधा है
साक्ष्य में यह बात गीता और मानस ने कही है

तर्क है यदि कुछ तुम्हारा,म तो बहो कुछ देर ले में 
सत्य खुद तुमसे कहेगा आओ मैं दर्पण  दिखा दूँ 

दीप हूँ जलता रहूँगा

मैं अक्षय विश्वास का ले स्नेह संचय में असीमित 
इस घने घिरते तिमिर से अहर्निश लड़ता रहूँगा 
दीप  हूँ जलता रहूँगा 

बह रहीं मेरी शिराओं में अगिन प्रज्ज्वल शिखाएं 
साथ देती है निरंतर नृत्य करती वर्तिकाएं 
मैं अतल ब्रह्माण्ड के शत  कोटि नभ का सूर्यावंशी 
जाग्रत मुझ से हुई हैं चाँद में भी ज्योत्स्नायें 

मैं विरासत में लिए हूँ ज्योति का विस्तार अपरिम 
जो  ,मिले दायित्व हैं  निर्वाह वह  करता रहूँगा 
दीप  हूँ जलता रहूँगा 

हैं मुझी से जागती श्रद्धाविनित  आराधनाएं 
और मंदिर में सफल होती रही अभ्यर्थनाएँ 
मैं बनारस में सुबह का मुस्करा  आव्हान करता
सांझ मेरे साथ सजती है अवध की वीथिकाएँ

मैं  रहा आराध्य इक भोले शलभ की अर्चना का
प्रीतिमय बलिदान को उसके अमर करता रहूंगा 
दीप हूँ  जलता रहूंगा 

साक्ष्य में मेरे बँधे   रंगीन धागे मन्नतों के
सामने मर्रे जुड़े संबंध शत जन्मान्तरों के
में घिरे नैराश्य में हूँ संचरित आशाएं बनकर
में रहा हूँ आदि से, हर पृष्ठ पर मन्वंतरों के

मैं रहा स्थिर, और मैं ही अनवरत गतिमान प्रतिपल 
काल की सीमाओं के भी पार मैं चलता रहूँगा 
दीप  हूँ, जलता रहूँगा 

सुधियों के मेरे आंगन में

किसने अलगोजा बजा दिया, मेरी सांसों के तार छेड़
ये कौन सुरभियां बिखराता, सुधियों के मेरे आंगन में

उषा की पहली जगी किरन की ताजा ताजा छुअन लिये
पांखुर से फ़िसले तुहिन कणों की गतियों से चलता चलता 
झीलों की लहरों के कंपन जैसे चूनर को लहराता
ये कौन उमंगों में आकर नूतन उल्लास रहा भरता

निस्तब्ध शांत संध्याओं का  छाया सन्नाटा तोड़ तोड़
किसने इकतारा बजा दिया मेरे जीवन के आंगन में

वातायन में आकर किसने रंग डाले इन्द्रधनुष इतने
पाटल पर उभरी हैं फ़िर से कुछ प्रेम कथा इतिहासों की
जुड़ गये अचानक नये पृष्ठ इक संवरे हुये कथानक में
राँगोली रँगी कल्पना ने , भूले बिसरे मधुमासों की

किसके आने की है आहट जो टेर बनी बांसुरिया की
किसने पैझनियाँ थिरकाईं, मन के मेरे वृन्दावन में

किसकी पगतालियाँ की छापें रँग रही अल्पनाये अदभुत 
सपनो की दहलीजों से ले सूने मन की चौपालों तक
है किसका यह आभास मधुर लहराता हुआ हवाओं में
ये कौन मनोरम   प्रश्न बना दे रहा हृदय पर आ दस्तक

कस्तूरी मृग सा भटकाता है कौन मुझे यूं निशि वासर 
 किसके पग के नूपुर खनके, मन के इस नंदन कानन में 

जहां अनुराग पलता हो

 चलें  बावले मन अब किसी अनजान बस्ती में
जहां अनुराग पलता होसमन्वय से गले मिलकर

 प्रतीक्षित दग्ध होकर तू  रहेगा और अबकितना ​
अकल्पित द्धेष के झोंके निरंतर आये झुलसाते
​उगी है राजपथ पर नित नई इर्ष्याओं की बेलें
जिधर भी देखता है तू  घने कोहरे नजर आते

​चलें चल छोड़ दें ये घरबनें फिर आज यायावर 
बनाएं कुछ नए रिश्ते किसी आलाव पर रुककर ​

बिखर कर रह गई साधें जिन्हें बरसों संवारा था
रहे वसुधा कुटुंबम के न अब अवशेष भी बाकी
नसंध्या सुरमई होतीन आती भोर अरुणाती
निरंतर पीर की मदिरा उंडेले जा रही साकी

चलें चल मन अरण्यों के उसी  बस एक प्रांगण में
जहाँ संवरी थी संस्कृतियांश्रुती में होंठ पर चढ़ कर 

बनाये चल नई  बस्ती जहां अनुराग पलता  हो
क्लीसोंमस्जिदोंमंदिरमुहल्ले में औ गलियों में
जहां पर बदलियां घिर कर सुधामय प्रेम बरसाती
जहां  सद्भाव की गंधेविकसती आप कलियों में 

चलें चल आज दें दस्तक सुनहरे द्वार पर कल के 
जहां अनुराग छाये हर दिशा में गंध सा उड़कर 

जिस्र आज ने फिर दुहराया


मन उदास हैहो निढाल बस सोफे पर लेता अलसाया
ये ही तो हालत कल की थीजिस्र आज ने फिर दुहराया

दिन उगता घुटनों के बल चल संध्या को जल्दी सो जाता
मौन खड़े पत्ते शाखों पर कोई कुछ भी कह न पाता
खिड़की की चौखट को थामे खड़ी धूप बीमार सिसकती
अँगनाई की पलक प्रतीक्षा का हर पल उत्सुक रह जाता ​

​ 

पता नहीं चलता कब आकर रजनी ने  आँचल फहराया 
ऐसे ही कल की थी हालत जिसे आज ने फिर दोहराया ​

 

दूर क्षितिज तक जा पगडण्डी रही लौटती दम को साधे
सूना मंदिर लालायित था कोई आकर कुछ आराधे
हवा अजनबी पीठ फिराये खड़ी रही कोने में जाकर
बढ़ता बोझा एकाकीपन का, ढो ढो झुकते है काँधे

ताका करती दॄष्टि ​भाव की गुमसुम हो बैठी  कृशकाया
ऐसा ही तो कल बीता था जिसे आज ने फिर दुहराया ​

 

संदेशों के जुड़ कर टूटे कटी पतंगों जैसे धागे
बढ़ती हुई अपेक्षा रह रह पल दो पल का सहचर मांगे
फ़ैली हुई ​नजर ​की सीमा होती जाती और संकुचित
हो निस्तब्ध प्रश्न के सूचक, बने घड़ी के दोनों कांटे

फौलादी होता जाता है पल पल सन्नाटा गहराया
ऐसे हुआ हाल कल भी था जिसे आज ने फिर दोहराया

मन का कब ईतिहास पढोगे

अनुत्तरित यह प्रश्न अभी तक कब बोलो तुम उत्तर दोगे
तन का तो भूगोल पढ़ लिया, मन का कब ईतिहास पढोगे 

युग बीते पर पाठ्यक्रमों में किया नही परिवर्तन 
​तू
मने
बने हुए हो बस अतीत के पृष्ठों में होकर के बन्दी
मौसम बदले, ऋतुयें बदली, देशकाल की सीमाएं भी
किन्तु तुम्हारी अंगनाई 
​की बदली नहीं घिरी 
 नौचंदी

बिख्री
​ हुइ मान्यताओ के अन्धकूप मे डूबे  हो तुम 
बोलो नई  सुबह की अपने मन मे कब उजियास भरोगे ​

सिमटा रहा तुम्हारा दर्शन सिर्फ मेनका उर्वशियो में
लोपी, गार्गी, मैत्रेयी को कितना तुमने समझा जाना
दुष्यंती स्मृतियां सहेज कर, कच से रहे अर्थसाधक तुम
यशोधरा का और उर्मिला का क्या त्याग कभी पहचाना

अनदेख करते आये हो बिम्ब समय के दर्पण वाला
कटु यथार्थ की सच्चाई पर, बोलो कब विश्वास करोगे
 
एकाकी जीवन की राहें होती है अतुकांत काव्य सी
मन से मन के संबंधों की लय सरगम बन  कर सजती है 
सहचर बनने को कर देता जब कोई जीवन को अर्पित
पल पल पर सारंगी तब ही साँसों की धुन में बजती है 

जीवन का अध्याय तुम्हारा अर्थ, विषय से रहित गद्य सा
इसको करके छंदबद्ध कब अलंकार अनुप्रास जड़ोगे 

 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...