दृष्टियों में बिम्ब

दृष्टियों में बिम्ब भर कर
हम खड़े उस मोड़ पर ही
तुम जहां पर एक दिन
भुजपाश में आ बंध गए थे

उस जगह परछाइयों के
फूल अब भी मुस्कुराते
एक पल में ही न जाने
वर्ष कितने बीत जाते
जागती
​ है भोर अपनी
​सांस में गंधें संजो कर 
दिन सुबह से सांझ तक 
बस इंद्रधनुषों को बनाते 

चौखटों के  शीर्ष पर तोरण
 बने सजते निमिष वे 
दृष्टियों की साधना में 
जीतते तुम रह गए थे 

दृष्टियों में भर गए है
बिम्ब कुछ आकर स्वयं ही
जब मेरा सानिध्य पाकर
दृष्टि बोझिल हो गई थी
उंगलियों ने चुनरी के
छोर को आयाम सौंपे
और पगनख से धरा पर
आकृतियां बन गई थी

कैनवस पर आ क्षितिज के
हो रहे जीवंत क्षण वो
जब दिशाओ के झरोखे
लाज रंजित  हो  गए थे

दृष्टियों में बिम्ब भरने 
लग गए हैं आज  फिर से 
होंठ की पाँखुर कँपी  थी 
चांदनी में भीग कर के 
उड़ गया मन, स्यंदनों के  
पंख पर चढ़ कर गगन में 
पंथ अन्वेषित हुए थे 
दो कदम ही साथ चलते 

दृष्टियों में  हो रहा इतिहास
फिर से आज बिम्बित
प्रीत के किस्से जहां पर
स्वर्ण में मढ़ जड़ गए थे

ईद मुबारक

​​

उलझन में फंसे शामो सुबह ​ बीत रहे हैँ

अंधियारे उजालो से लगे जीत रहे हैं

झंझाओं के आगोश में लिपटा हुआ है अम्न

सुख चैन लगा हो चुके बरसों से यहां  ​दफ्न

ओढ़े हुए है ख़ौफ़ को नीची हुई नजर

जम्हूरियत का कांपता बूढ़ा हुआ शजर

​फिर भी किये उम्मीद की शम्मओं  को रोशन

रह रह के हुलसता है  जिगर ईद मुबारक

​कहती है ये खुशियों की सुबह ईद मुबारक ​



​विस्फोट ही विस्फोट हैं हर सिम्त जहां में 

रब की नसीहतों के सफे जाने कहाँ है

 इस्लाम का ले नाम उठाते है जलजला

चाहे है हर एक गांव में बन जाए कर्बला

 कोशिश है कि रमजान में घोल आ मोहर्रम

अब और मलाला नहीं सह पाएगी सितम

आज़िज़ हो नफ़रतो से ये कहने लगा है दिल

अब और न घुल पाये ज़हर  ईद मुबारक

कहती है ये  खुशियों की सहर ईद मुबारक



अल कायदा को आज सिखाना है कायदा

हम्मास में यदि हम नहीं तो क्या है फायदा

कश्मीर में गूंजे चलो अब मीर की गज़ले

बोको-हरम का अब कोइ भी नाम तक न ले

काबुल हो या बगदाद हो या मानचेस्टर 

पेरिस मे न हो खौफ़ की ज़द मे कोइ बशर

उतरे फलक से इश्क़ में डूबी जो आ बहे 

आबे हयात की हो नहर, ईद मुबारक 

​कहती है ये खुशियों की सुबह ईद मुबारक


जरा शुभचिंतकों से

है मेरी किसको जरूरत और कितनी
पूछ लेता हूँ जरा शुभचिंतकों से

घिर अपेक्षाओं से अब तक मैं जिया
स्वत्व भूला और सब के वास्ते
दूसरो के पाँव के कांटे चुने
भूल कर अपने स्वयं के रास्ते

कोई मेरे वास्ते क्या झुक सका है
पूछ लेता हूँ ये पथ के कंटको स

क्यों भुलावों
​ में​
 उलझ जीता रहूँ
औ छलूँ में स्वप्न अपने नैन के
है अभी आशाये कितनी है जुडी
जान लू अपने घड़ीभर चैन  से

कौन से रिश्ते मुझे बांधे हुए है
पूछ लेता हूँ मैं बंधू बांधवो से

किसलिए फिर आज भटकाउं नजर
खोजते परिचय, अपरिचय में छिपा
और पढ़ना चाहूँ एक उस नाम को
जो गया ही है नही अब तक लिखा
 
शेष कितने है नयन के बिम्ब बिखर्र
पूछ लेता हूँ समय 
​अनुबन्धकों 
 से 

पितृ दिवस 2017

आद्यशक्ति ने बीजरूप में जिसका प्रादुर्भाव ​किया है
सकल सृष्टि की संरचना में बन कर रहा सदा 
​सहयोगी 
​ 
शांत रूप में राम, क्रोध में बन जाया करता है शंकर
और कृष्ण बन कर जीवन में होता है कर्मो का योगी

आज पुनः उस एक पिता के आगे हो करबद्ध हृदय ये
नतमस्तक है
​, और कर रहा 
 रह रह के सादर अभिनंदन
मां की ममता को देता है जीवन मे आयाम नए नित
पितृ दिवस पर अर्पित उसको मुट्ठी भर शब्दों का चंदन

कौन सकेत देता रहा

कौन सकेत देता रहा प्रीत के
उम्र की 
​रा​
ह पर 
​दूर 
से ही मुझे
जानता हूँ ये में जानता हूँ उसे
किन्तु लगता आपरिचित है वह आज भी

एक वयःसंधि की फिसलनी पर कहीं
पांव ठोकर बिना लडखडाये जरा
शापग्रस्ता हुई लौ जले दीप की
और गहरा तिमिर सामने था खड़ा
​कोई संकेत धुँधुआय भ्रम में मुझे
एक निश्चित दिशाबोध देते हुए
मंज़िलों की डगर पर बना प्रेरणा 
निश्चयों को नया वेग देता रहा 

सामने भी रहा पर अगोचर रहा
दूर  था हर घड़ी पर रहा साथ भी

कितने संकेत मिलते रहे आज तक
और कितने है संकेत बन कर मिले
हर कदम पर रहे उँगलियाँ  थाम कर
आज तक ज़िन्दगी में यही सिलसिले
द्वार जब भी मिले सामने बन्द हो
कौन नूतन डगर सौंपता था मुझर
यह तिलिसमो में डूबे हुए भेद है
उम्र बीती मगर अब तलक न खुले

मौन  ने जब कभी आके छेड़ा मुझे
कौन झंकारता  था मधुर साज भी

जब भी घेरे भ्रमों के दिवास्वप्न आ
सत्य के कौन संकेत देता रहा
जब प्रपातों को उन्मुख हुई नाव तो
मांझियों के बिना कौन खेता रहा
उम्र बीती इन्हीं गुत्थियों में उलझ
कोई हल आज तक भी नहीं मिल सका
में चला हर घड़ी ओढ़ एकाकियात
जाने है कौन संकेत देता रहा

अनसुलझ ये परिस्थिति रही आज तक
कोई बदलाव दिखता नहीं आज भी

हम खुद से अनजान हो गये

सुबह पांच से सांझ नौ बजे
तक लंबे दिनमान हो गये
करते रहे समन्वय सबसे 
पर खुद से अनजान हो गये

हुई कब सुबह, इस जीवन की
या इस दिन की याद नही है
किस पल चढ़ी दुपहरी सिर पर
ये भी कुछ अनुमान नही है
बस  इतना है याद, हमारे
नयन खुले तो राह बिछी थी
जिस पर चले दूर हम कितने
या देरी, यह ध्यान नही है

हम पथ की बाधा में जूझे
झंझा का व्याख्यान हो गए

दायित्वों के बोझों वाली
कांवर को कांधो पर रखकर
दिन दोपहरी रात अंधेरी
चलते रहे निरंतर पथ पर
नही अपेक्षाओं से परिचय
हुआ हमारा इस यात्रा में
इंद्रधनुष का सिरा दूसरा 
रहा बुलाता बस रह रह कर

अनुपातो के समीकरण का
अनसुलझा विज्ञान हो गए

अधरों ने जो कुछ दुहराया
उनमे गीत नही था कोई
बना जिसे आराध्य पूजते
रहे , रही वह प्रतिमा सोई
जागी नही सरगमें उंगली
छूकर साजों के तारों की
व्यर्थ शिवालय के प्रांगण में
हमने जाकर तुलसी बोई

कही जा सकी नहीं ग़ज़ल जो
बस उसका उन्वान हो गए

शब्द

गिरिश्रृंगों से  गुलशन तक ने शब्दो का श्रृंगार किया है
मेरा यायावर मन शब्दों की इक आंजुर भरने को भटका

भावो के पाखी तो आतुर है,  विस्तार गगन का नापे
शब्द नही है तो उडॉन भी आभिव्यक्ति की नही मिल सकी
मन की क्यारी तो उर्वर हैबोये हुए बीज भी अनगिन
शब्द बिना न हुआ अंकुरण और न कोई कली खिल सजी  

जीवन की नदियां के तट पर मरुथलसा वीरान बिछा है
आस सुलगती है सिरजन हो शब्दो वाले वंशीवट का

झोली में हैं सिर्फ़ मात्रा, रही अधूरी अक्षर बिन जो
जुड़ न पाई इक दूजे से और नहीं इक शब्द बन सका
दरवेशी पग रहे घूमते पर्वत, घाटी, चौपालों पर
एक फूल शब्दों का कोई अंजलियों में नहीं रख सका

आशा, रखे शब्द की कलसी कोई अनुभूति के जेहर
तो कुछ अर्थ समझ पायेगा भावों के रीते पनघट का

कभी मचलते, कभी सँवरते, कभी बिखरते सुनते आये
कभी मुस्कुराते अधरों पर, शामाते हैं कभी नयन में
इस मन ने यह इतिहासों की किवदन्ती कह कर स्वीकारा
नहीं हुये अनुभूत इस तरह, नहीं जाग में नहीं शयन मेंण

जिस जिस का अधिकार शब्द पर, लिखते रहा गीत या गज़लें
मुझसे रहे अपरिचित, सिरजन शेष नहीं मेरे भी बस का

गतियाँ जो थक रहे पाँव को

आभारी हैं साँसें उसकी ​जो  अव्यक्त, सभी पर परिचित
रहा सौंपता नई अस्मिता जो नित ही बेनाम नाम को

आभारी हूँ सदा प्रेरणा बन कर साथ रहा जो मेरे
है उसका आभार दीप बन पीता आया घिरे अँधेरे
अन्त:स में कर रहा प्रवाहित जो भावों का अविरल निर्झर
शब्दों में ढल होठों पर आ जिसने हर पल गीत बिखेरे

भाषा और व्याकरण में ढल जो स्वर का श्रूंगार कर रहा
नित्य सुहागन कर देता है दूर क्षितिज ढल रही शाम को

है उसका आभार, शब्द जो आभारों के सौंप रहा है
अन्तर्मन की गहन गुफ़ा में जो दामिनि सा कौंध रहा है
है उसका आभार सांस की सोई हुई मौन सरगम में
 धड़कन की अविराम  गति की तालें आकर रोप रहा है

उसका है आभार विगत को कर देता है जो संजीवित
फिर ​सुधियों  में ले आता है अपने छोड़े हुये गांव को

मिल जाता है कभी कहीं पर भूले भटके परछाईं में
मिल जाता है कभी अचानक, बिखरी बिखरी जुन्हाई में
जलतरंग बन कर लहरा है आंखों की गहरी झीलों में
आभारी हूँ उसका, जिसकी छाप भोर की अरुणाई में


आभारी हूँ , गीतों के इस नित्य हो रहे सिरजन पथ पर
बन कर नव पाथेय दे रहा गतियाँ जो थक रहे पाँव को

कांपती सी हवा है

कांपती सी  हवा है नगर में एक निस्तब्धता छा रही है
शाख पर एक कोयल उदासी ओढ़ करके ग़ज़ल 
​गा 
रही है

सारे आयोजनों की घटाए, हो चुकी खर्च 
​अब तो ​
बरस के
शेष है रिक्त ही कुर्सियां 
​बस 
 कोई आता नही है पलट के 
शून्यता मंच पर आ उतर के अपना अभिनय किये जा रही है

राजनीति के वादों सरीखे पांव नित राह पर चल रहे हैं
सूर्य भी आलसी हो गया है दोपहर में दिवस ढल रहे हैं
खोखली
​ एक ​
 प्रतिध्वनि 
​निरंतर 
 लौट 
​नभ से चली आ रही है 

होंठ हर एक सहमा सा चुप है, दोष जैसे किसी ने लगाया 
घोल  सन्नाटा ही आहटों  में ,मुंह चिढ़ाते समय मुस्कुराया 
और नाकारियात पाँव फैला, लेती जम्हाई मुंह बा रही है 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...