ज़िन्दगी
ने जो दिया वह हार है या जीत मेरी
जानता हूँ
मैं नही, स्वीकार
करता सिर झुकाकर
आकलन आधार
है बस दृष्टिकोणों के सिरे का
जीत को वे
हार समझें, हार को
जयश्री बना दें
एक ही
परिणाम के दो अर्थ जब भी है निकलत
ये जरूरी
है उन्हें तब, हम स्वयं
निस्पृह बता दें
सौंपती है
ज़िन्दगी वरदान ही तो आजुरी में
ये मेरा
अधिकार उनको रख सकूं कैसे सजाकर
हार दिखती
सामने, ही जीत का
आधार होती
ठोकरों ने
ही सिखाया पग संभल रखना डगर में
राह की
उलझन उगाती नीड के अंकुर हृदय में
और देती
है नए संकल्प के पाथेय कर में
मजिलो की
दूरियां का संकुचित होना सुनिश्चित
देर तब तक
है रखू मैं पांव को अपने उठाकर
हार हो या
जीत हो यह तो भविष्यत ही बताये
कर्म पर
अधिकार अपना फ़ल प्रयासों पर टिका है
शत
युगों का ज्ञान। अर्जित यह बनाता संस्कृतियां
विश्व की हर एक
भाषा की किताबों में लिखा है
हार हो या
जीत, दोनों
शब्द हैं ! शाश्वत नहीं है
एक इंगित
ही समय का, अर्थ बदले
मुस्कुराकर
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