हम तुम गए मिल

हम तुम गए मिल

हो गये सुधि के वनों में आज फ़िर जीवन्त वे पल
जब भटकती शाम के इक मोड़ पर हम तुम गये मिल

गोख पर धूमिल क्षितिज की रात आकर झुक रही थी
रोशनी जिस पल प्रतीची की गली में मुड़ रही थी
वर्तिका तत्पर हुईं थीं ज्योति के संग नृत्य करने
और मौसम की थिरक में कुछ खुनक सी घुल रही थी

ज़िन्दगी की इस शिला के लेख बन अविरल अमिट वे
आज फिर अंगनाईयों में फूल बन कर हैं रहे खिल

उस घड़ी ऐसा लगा झंकृत हुई सारी  दिशाएं
वृक्ष की शाखाओं पर नूपुर बजे पुरबाइयों के
सांझ की छिटकी हुई सिंदूरिया परछाइयों में
राग अपने आप गूंजे सैकड़ो शहनाइयों के

ज़िन्दगी की , यूं लगा यायावरी पगडंडियों पर
सामने आ मुस्कुराती पास खुद ही आज मंज़िल

चांदनी तन से छिटक कर लग पड़ी नभ में बिखरने
मलयजी इक गंध उड़ती सांस में भरने लगी थी 
दूधिया चन्दाकिरण भुजपाश में ले गात मेरा
जलतरंगी रागिनी से बात कुछ करने लगी थी

पाँखुरी से कुछ गुलाबो की फसल मंदाकिनी से
धार से अपनी सजाई  प्रीत से भरपूर महफ़िल 

भावना छूने लगी नभ, काँचनजंघा शिखर बन
नयन में नन्दनवानों के राजमहली चित्र उभरे
 बिछ गई कचनार की कलिया  स्वयं आ पगतली में
पारिजाती हो गगन पर कल्पना के स्वप्न संवरे 

समीकरणों की सभी उलझन सहज में ही सुलझ ली
आप ही हल हो गई  आकर रुकी जो पास मुश्किल  

पा गई वरदान कोई सहस्र जन्मों की तपस्या
मिल गया आराध्य जैसे बिन किसी आराधना के
स्वाति के मेघा बरसने लग गये मन चातकी पर
शिल्प में ढलने लगे सब कचित्र आकर कल्पना के

मन निरंतर एक  उस ही ज्वार के आरोह पर है
जब था उमड़ा उन पलो में प्रीत का इक सिंधु फेनिल
राकेश खंडेलवाल
21 नवंबर 2017 

कहनी थी कुछ बात नई

तुम ने भी दुहराई कहनी थी कुछ बात नई 
"अच्छे दिन की आआस लगाए बीते बरस कई"

दिन तो दिन है कब होता है अच्छा और बुरा
कोई कसौटी नही बताये खोटा और खरा
दोष नजर का होता, होते दिन और रात वही
 
अपनी एक असहमति का बस करते विज्ञापन
अनुशासन बिन रामराज्य क्या, क्या तुगलक शासन
मक्खन मिलता तभी दही जब मथती रहै रई 

भोर रेशमी, सांझ मखमली, दोपहरी स्वर्णिम
फागुन में बासंती चूनर सावन में रिमझिम
जितने सुंदर पहले थे दिन अब भी रहै वही 

जानता यह ​तो नही मन

क्या पता कल का सवेराधुंध की चादर लपेटे
या सुनहली धूप के आलिंगनों में जगमगाये
या बरसते नीर में
​ भीगा हुआ हो मस्तियों में ​
जानता यह 
​तो 
 नही मन, किन्तु है सपने सजाये

स्वप्न, अच्छा दिन रहेगा आज के अनुपात में कल
आज का नैराश्य संध्या की  ढलन में ढल सकेगा
आज की पगडंडियां कल राजपथ सी सज सकेंगी
और नव पाथेय पथ के हर कदम पर सज सकेगा

राह में अवरोध बन कर डोलती झंझाये कितनी
और विपदाएं हजारों जाल है अपना बिछाये
नीड का 
​ संदेश कोई 
सांझ ढलती  ला  सकेगी 
जानता यह भी नही मन स्वप्न है फिर भी सजाये 

​उंगलियां जो मुट्ठियों में  थाम कर चलते रहे हैं 
आस की चादर बिछाई जिस गगन के आंगनों में 
धूप के वातायनों तक दौड़ती पगडंडियों पर 
क्या घिरेंगे शुष्क बादल ही बरसते सावनों में 
प्रश्न  उठते हैं निरंतर भोर में, संध्या निशा में
और कोई चिह्न भी न उत्तरों का नजर आये
शून्य है परिणाम में या है अभीप्सित वांछित कुछ
जनता यह भी नहीं मन, स्वप्न है फिर भी सजाये 

कलम से इस हथेली पर


अधूरी रह गई सौगंध, जब तुमने कहा मुझसे
कलम से इस हथेली पर समर्पण त्याग लि
​ख ​
देना

कथानक युग पुराना आज फिर दुहरा दिया तुमने
समर्पित हो अहल्या रह गई अभिशाप से 
​दंशित 

तपा सम्पूर्ण काया को धधकती आग से गुज
​री ​

मगर फिर भी रही 
​वैदेही 
हर अधिकार से वंचित

कहाँ तक न्यायसंगत है कोई अनुबंध इक तरफ़ा
पुराना पृष्ठ फिर इतिहास का इक बार लिख देना

समर्पित हो , रहे हो तुम कभी इतना बताओ तो
पुरंदर तुम, शची का त्याग क्या इक बार पहचाना
पुरू अपने समय के सूर्य थे तुम घोषणा करते
कभी औशीनरी की उर व्यथा के मूल को जाना

चले हम आज जर्जर रीतियाँ सा
​री ​
 बदल डालें
ज़रूरी है ह्रदय पर प्रेम और अनुराग लिख देना

कहो क्या प्रेम आधारित कभी होता है शर्तों 
​पर 
कहाँ मन से मिले मन में उठी हैं त्याग की बातें 
​समर्पण हो गया सम्पूर्ण जब भी प्रेम उपजा है 
गए हैं बँध धुरी  से उस, समूचे दिन, सभी रातें 

कहाँ  जन्मांतर सम्बन्ध होते शब्द में सीमित 
किशन-राधा सती-शिव का उदाहरण आज लिख देना 

कलम से ज़िंदगी में इक महकता बाग़ लिख देना 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...