उठा प्रकम्प बीन के जो तार से
मधूर सुरों में सरगमां की धार से
वो एक शब्द ढल संख्य शब्द में
हुआ प्रवाह बांसुरी के द्वार से
वो शब्द एक आद्यब्रह्म जो रहा
कोटि कोटि कंठ से हुआ मुखर
गीत बन के जो कि होंठ पर चढ़ा
बिक्षुब्ध करते मौन से जो है लड़ा
अचल अटल रहा समय प्रवाह में
जो पर्वतों सा एक बिंदु पर खड़ा
वो एक स्वर जो नित्य है अशेष है
वो कोटि कोटि कंठ से हुआ मुखर
निकल के शारदा की कर किताब से
वो गूँजता है कंठ के निनाद से
वो रव में प्राण की जगाता चेतना
हुआ युवा वो भाव के प्रताप से
जो सृष्टि का समूची एक मात्रा स्वर
वो कोटि कोटि कंठ से हुआ मुखर
मधूर सुरों में सरगमां की धार से
वो एक शब्द ढल संख्य शब्द में
हुआ प्रवाह बांसुरी के द्वार से
वो शब्द एक आद्यब्रह्म जो रहा
कोटि कोटि कंठ से हुआ मुखर
गीत बन के जो कि होंठ पर चढ़ा
बिक्षुब्ध करते मौन से जो है लड़ा
अचल अटल रहा समय प्रवाह में
जो पर्वतों सा एक बिंदु पर खड़ा
वो एक स्वर जो नित्य है अशेष है
वो कोटि कोटि कंठ से हुआ मुखर
निकल के शारदा की कर किताब से
वो गूँजता है कंठ के निनाद से
वो रव में प्राण की जगाता चेतना
हुआ युवा वो भाव के प्रताप से
जो सृष्टि का समूची एक मात्रा स्वर
वो कोटि कोटि कंठ से हुआ मुखर
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